प्रेस स्वतंत्रता एक मिथक और जनता के साथ एक क्रूर मजाक है, जानिए कैसे?

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वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे- शब्द सुनने, लिखने और खुद का गौरव बढ़ाने में समर्थ है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रेस की आजादी को लेकर जागरुकता बढ़ाने के मकसद से 3 मई को वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे घोषित किया हुआ है। प्रबुद्ध लोगों विशेषकर पत्रकारों के जेहन और इस दिन होने वाले कार्यक्रमों में प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी का वह शेर गूंजता दिखाई देता है जो उन्होंने अंग्रेजों के जमाने में लिखा था। उन दिनों अखबारों पर अंग्रेजों का दमनचक्र चल रहा था। सरकार विरोधी लेख लिखने पर उनसे जमानतें मांगी जाती थी, अखबार छपने नहीं दिया जाता था और प्रेस को सील कर दिया जाता था। अब यह शेर विश्व  विख्यात बन चुका है। शेर है-

तीर निकालो न तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल होतो अखबार निकालो।

एक अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स वर्ष 2002 से लगातार विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक जारी करके बताता आ रहा है कि अमुक देश में पत्रकारों के लिए काम करने के हालात कितने मुश्किल हैं। वर्ष 2017 के लिए इसने जो सूचकांक जारी किया है, उसके मुताबिक भारत 180 देशों की इस सूची में 136वें स्थान पर है जबकि 2016 में 133 वें स्थान पर था। जाहिर है हालात लगातार बिगड़ते ही जा रहे हैं। भारत में पत्रकारों की नीति नियंता संवैधानिक संस्था भारतीय प्रेस परिषद है जो 1966 से कार्यरत है लेकिन यह नख-दंत विहीन है। हर साल 16 नवम्बर को राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है।

30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। पत्रकारों के अधिकारों के लिए संघर्ष का दावा करने वाली संस्थाओं की तो गिनती ही नहीं है। लेकिन आज पत्रकारों की स्थिति क्या है? दुखद है कि आज संपादक नामक संस्था का भी विलोप हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मारकंडेय काटजू जो भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष भी रहे हैं, उन्होंने एकबार लिखा था- विश्व प्रेस स्वंत्रता दिवस दुनिया का सबसे बड़ा छलावा है। प्रेस स्वतंत्रता एक मिथक और जनता के साथ एक क्रूर मजाक है। उन्होंने आगे लिखा था-दुनियाभर में मीडिया कारपोरेट के हाथ में है जिसका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक फायदा कमाना है।

वास्तव में कोई प्रेस स्वतंत्रता है ही नहीं। काटजू ने लिखा था, बड़े पत्रकार मोटा वेतन लेते हैं और इसी वजह से वो फैंसी जीवनशैली के आदी हो गए हैं। वो इसे खोना नहीं चाहेंगे और इसलिए ही आदेशों का पालन करते हैं और तलवे चाटते हैं। इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि मीडिया और पत्रकार इस वक्त व्यवसायीकरण के दौर से गुजर रहे हैं। पहले के जमाने में मीडिया का मतलब केवल अखबार होता था लेकिन अब नई तकनीक के आने के बाद प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है जिसकी वजह से मीडिया को चलाने के लिए खर्चे भी बढ़े हैं।

इन खर्चों को पूरा करने के लिए ज्यादातर अखबार और मीडिया संस्थान सरकार, राजनैतिक पार्टियों, बड़ी-बड़ी कंपनियों और बड़े-बड़े पूंजीवादी लोगों के ऊपर निर्भर हो गए हैं। इन सब के ऊपर मीडिया के निर्भर होने से मीडिया की आजादी को लेकर पत्रकार समझौता करने के लिए विवश हो जाते हैं। हालांकि इन सबके बीच भी कुछ पत्रकार अपनी आजादी से समझौता नहीं करते और वो मीडिया की गरिमा को बनाए रखने का निरंतर प्रयास करते हैं जिसकी वजह से उन्हें सरकार, प्रशासन और समाज से सहयोग से बदले उपेक्षा ही मिलती है। देश के राजनीतिक नेतृत्व का रवैया भी पत्रकारों के साथ अपमानजनक ही रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पत्रकारों को -न्यूज ट्रेडर्स- कह चुके हैं। इसका अर्थ है कि वे समाचारों, विश्लेषणों के लिए पैसे लेते हैं। उनकी सरकार के मंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह भी पत्रकारों को अलग ही तरह का सम्बोधन दे चुके हैं। एक ऐसे माहौल जहां पत्रकारों, संपादकों का सच बोलना मुश्किल हो रहा है, वहां यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रेस की आजादी कैसे स्वतंत्र और जीवंत रहे? समय की मांग है कि पत्रकार एकजुट रहें और अपन्तव की भावना दिखाएं। लोकतंत्र के हित में यह जरूरी है कि विचारों का आदान-प्रदान निर्बाध तरीके से हो ताकि सभी नागरिकों को पूर्वाग्रह से मुक्त जानकारी पहुंचाई जा सके।

हालात लगातार बिगड़ रहे
भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। यह प्रोफेसन कितना सुरक्षित है? आंकड़े स्वत: ही गवाही दे देते हैं। कहीं जाने की जरूरत नहीं। जानकारों का कहना है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र पत्रकारों की आजादी के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। साल 2017 में मीडियाकर्मियों पर हमलों की विभिन्न घटनाओं में नौ पत्रकार जान गंवा बैठे। पत्रकारों की हत्याओं से चिंतित केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को परामर्श जारी किया और ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के निर्देश दिए हैं।

इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईएफजे) ने भी भारत में पत्रकारों की हत्याओं पर चिंता जताई है और ऐसी घटनाओं की निंदा की है। मई 2014 में नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब भारत पत्रकारों के लिए काम करने के हालातों में 140वें नबंर पर था। 2015 में 136वें नंबर पर आया। 2016 में 133वें नबंर पर आया और 2017 में 136वें पायदान पर आ गया। यूपीए सरकार के सत्ता में रहने के समय भारत वर्ष 2010 में इस सूची में 122वें नंबर पर था। भारत 2014 तक 140वें नबंर पर रहा। यह सवाल आज भी प्रासंगिक है और सम्भवत: आगे भी रहेगा कि क्या आज के दौर की पत्रकारिता के लिए लेख की शुरुआत में लिखा शेर मुफीद है? वजह क्योंकि आज के तमाम बड़े-बड़े तोपची लोगों ने अखबार को गद्दा-तकिया बना लिया है और उस पर आराम से लेटे हुए हैं।

शार्ली हेब्दो पत्रिका पर हुआ बड़ा हमला
दुनियाभर में कई ऐसे मामले आए जब प्रेस की आवाज़ को कुचलने की कोशिशें की गई। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है फ्रांस की राजधानी पेरिस में व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ पर हमला है।  सात जनवरी को फांस की पत्रिका शार्ली अब्‍दो में हजरत मोहम्‍मद साहब का विवादित कार्टून छापे जाने के विरोध में आ‍तंकियों ने पत्रिका के कार्यालय पर हमला किया था। सैद और शेरीफ कोआची भाइयों का हमला सात से नौ जनवरी 2015 तक चला था। इसे फ्रांस में 9/11 की तरह का हमला कहा जाता है।  इस हमले और तीन दिनों तक हुई इससे जुड़ी अन्‍य घटनाओं में कुल 16 लोगों की मौत हुई थी।

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