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मजहब
मजहब-मजहब से टकरा रहा है
इस मजहब की दीवार को गिरा देते हैं।
जब अपने होने का पता देते हैं
आंखों ही आंखों से कयामत गिरा देते...
साल दर साल
साल दर साल यूँ ही बदलते चले गए,
उम्र बढ़ती गई , सपने मरते चले गए।
क्या कुछ बदला पिछले कुछ सालों में,
हाँ हर साल धोखो ...
लिखने को किस्से हज़ार…
लिखता रहता हूँ अनवरत,
लिखने को किस्से हज़ार...
कभी पतझड़, कभी बारिश,
तो कभी बगिया में फूलों की बहार...
कभी रूठना, कभी मनाना,
अपनों का निश्छल प्यार...
लिखने को किस्से...