गुजराल डॉक्ट्रिन: जब कुछ गलत फैसलों ने पहुंचाया भारत को नुकसान

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बदलते वक्त के साथ भारत की राजनीति किस स्तर पर है। इस बात का अंदाजा हम एयरस्ट्राइक के बाद चालू हुई सबूत देने की जंग से लगा सकते हैं। कितना अजीब लगता है कि एक तरफ हमारे देश में विकास और प्रगति जैसी बात की जाती है वहीं उन्ही नेताओं के मुंह से सबूत मांगने की बात की जाती है। क्या कभी लादेन जैसे आतंकी के मारने के सबूत किसी ने मांगे। क्या अमेरिका ने दूसरे देशों पर हमले करने या फिर लादेन के मारने के सबूत दिए। क्या किसी नेता या मीडिया ने बड़े देशों से हमले करने, किसी आतंकी को मारने के सबूत मांगे। अगर नहीं, तो फिर भारत की हर आतंकी घटनाओं पर की जाने वाली कार्रवाई पर सबूत क्यों मांगे जाते हैं। क्या सत्ता ने राजनेताओं को इतना लालची बना दिया कि वह राष्ट्रहित मामलों में भी साथ नहीं आ सकते। जब अन्य देशों के उदाहरण चुनावी रैलियों में दिए जाते हैं तो फिर अन्य देशों के विपक्ष की तरह राष्ट्रहित मसलों पर हमारे नेता एक क्यों नहीं होते। मीडिया और नेता उस जंग की तैयारी कर रहे हैं जो कभी नहीं हुई। हालात जंग की ओर तो नहीं गए लेकिन दोनों देशों में तनाव और भावनाओं का ज्वार उफान ले रहा है।

कूटनीतिक जंग भी जारी है और सियासत भी। न तो सरकार ने और न ही सेना ने यह दावा किया कि बालाकोट एयरस्ट्राइक में कितने मारे गए। लेकिन भाजपा के नेताओं ने दावा कर 300-350 आतंकवादी मारे गए। वहीं जब विपक्ष को लगा कि अहम मुद्दों को अब जनता भूल बैठी है और उसका सारा ध्यान पाकिस्तान पर है तो ऐसा क्या किया जाए कि विपक्ष फिर से चर्चा में आए। इसी के साथ विपक्ष ने संसद में 1 मार्च को बैठक करके सैनिकों की शहादत और सैन्य कार्रवाई का राजनैतिक इस्तेमाल करने के लिए योजना बनाई। सबसे पहला बयान पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आया जिन्होंने विदेशी मीडिया का हवाला देते हुए है कि जहां पीएम ने हवाई हमला करवाया है वहां किसी की मृत्यु नहीं हुई। पीएम हमें पूरी कार्रवाई का ब्यौरा दे। फिर कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने कहा, एयरस्ट्राइक में मारे गए आंतकियों के बीजेपी नेता अलग-अलग आंकड़े बता रहे हैं। देश जानना चाहता है कि इनमें झूठा कौन है।

सबूत मांगने वालों कतार में विपक्ष ने शहीद परिवारों और आम जनता तक को घसीट लिया। मुद्दा ये है कि देश के अंदर और बाहरी हिस्सों में होने वाली हिंसात्मक घटनाओं पर राजनीति को इतना तूल देकर माहौल और लोगों को क्यों भड़काया जाता है।

क्या देश भूल गया है कि ऐसी राजनीतिक घटनाओं के परिणाम होते हैं बड़े-हमले और राष्ट्रविरोधी गतिविधियां। बुरा लगेगा लेकिन जैश-ए-मोहम्मद भले ही आंतकी संगठन हो लेकिन उसका आतंक आज जो सर उठाकर बोल रहा है वो भारत की ही देन है। हम भारतीयों के साहस का जब-जब परिणाम मांगा गया है हम तब-तब फेल नजर आए हैं। जैसा कि आतंकी मसूद अजहर को छोड़ने का दवाब अटल सरकार पर नहीं बनाया होता। यदि हमने सड़को पर उतरकर विरोध शुरू नहीं किया होता तो शायद आज जैश-ए-मोहम्मद इतना शक्तिशाली ना होता।

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हम दोषी है आतंकवाद बढ़ाने के लिए
कभी-कभी कुछ बातें सोचने में इतनी आसान लगती है लेकिन उनकी हकीकत काफी कड़वी होती है और जहां तक नए भारत का अनुभव है उसमें जोश बहुत है लेकिन सिर्फ बातों में हिम्मत के नाम पर फिसड्डी है। इसका परिणाम अभिनंदन वर्धमान का पाकिस्तान कब्जे में होने के वक्त सामने आया। जब सोशल मीडिया पर ‘युद्ध नहीं चाहिए’, ‘अभिनंदन को वापस लाओ’, जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे। पूरी दुनिया मानती है युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है लेकिन इसके परे सोचने की बात है कि हम कैसे लोकतंत्र के नाम पर, फ्रीडम के नाम पर, सरकार पर मनचाहा दवाब बना सकते हैं। हम क्यों नहीं समझते हैं कि देश के आंतरिक मामले हमारे घरों के चाचा-ताऊ विवाद जैसे नहीं है।

इसबात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि घर के किसी वाद-विवाद में घर के बड़े मिलकर मुखिया से शिकायत करते हैं और जो उचित हो वो निर्णय लेने को कहते हैं, ऐसा नहीं सिर्फ अपना फैसला सुना दिया तो उसके अनुरूप फैसला लिया जाए। वैसी ही प्रक्रिया देशहित फैसलों में ली जाती है। आज आतंकवादियों के जो हौसले बढ़ें हैं उसके पीछे पाकिस्तान का जितना हाथ उतना भारत का भी है।

भारत सरकार को हमेशा दवाब बनाकर फैसला करवाया गया ना कभी सेना से पूछा, कि वो तैयार है ना किसी और से। देश के मामलों में भावनाएं जितनी जरूरी है उतना जरूरी समूचे राष्ट्र और विश्व की सुरक्षा भी। क्योंकि एक गलत फैसला आपका सबकुछ छीन सकता है। जैसा कि हर आर्मी परिवार के साथ रोज हो रहा। हम कभी वो सोच नहीं सकते हैं, क्योंकि हम आर्मी में जाना नहीं चाहते, हमें पता नहीं सैनिक की जिंदगी सीमा पर कैसी होती ? उसके परिवार की मनोस्थिति को अंदाजा हमें होता नहीं, बस हम कल्पनाशक्ति के बाण छोड़ जानते हैं।

कश्मीर आतंक से अर्थव्यस्था चरमराई-
क्या आपने सोचा कभी एक राज्य में तनाव के चलते वह केवल एक समस्या नहीं होती। उसमें कई पहलू होते हैं जो एकबार बिगड़ने लगते हैं तो फिर बिगड़ते चले जाते हैं। वैसा ही अर्थव्यवस्था है। जो अगर जल्दी स्थिर नहीं हुई तो फिर बिगड़ती चली जाती है। एक अनुमान के मुताबिक, आतंकवाद की वजह से कश्मीर और देश की अर्थव्यवस्था को 4.55 लाख करोड़ के नुकसान होता है। देश के बाकी राज्यों की तुलना में केन्द्र सरकार द्वारा कश्मीर को 8 गुना से ज्यादा फण्ड दिया जाता है। इसके बावजूद वहां के हालात सामान्य नहीं होते। इसलिए अब कश्मीर से धारा 370 को खत्म करने की मांग तेजी पकड़े हुए है।

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गुजराल डॉक्ट्रिन
 ने बनाया खुफिया क्षमताओं को कमजोर
पुलवामा हमले के बाद से ही खुफिया एजेंसियों पर सवाल उठने लगे हैं। जानकारी ये भी है कि खुफिया एजेंसियों को अंदाजा था कि आतंकवादी संगठन किसी आतंकी घटना को अंजाम देने वाले हैं। उसके बाद भी इतनी बड़ी चूक होना। कई सवाल खड़े करती है। आतंकी संगठनों को रोकने के लिए सिर्फ सैन्य क्षमता से काम नहीं चलेगा। यदि हम भी चाहते हैं कि अमेरिका जैसी कार्रवाई भारत भी करें तो हमें अपनी खुफिया एजेंसियों को मजबूत करना होगा जोकि तुरंत ऐसी जानकारी दे जिनपर वक्त रखते एक्शन लिया जा सके। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि पाकिस्तान जैसे देश में भारत की कोई भी खुफिया एजेंसी काम नहीं कर रही है। जो हमें ये जानकारी दे सके की मसूद अजहर कहां है? पाकिस्तान से कौन-कौन उसे फंडिंग दे रहा है? क्या हथियार है उनके पास और भी बहुत कुछ।

अब आपका सवाल होगा इसके पीछे की वजह क्या है। तो इसके पीछे की वजह है गुजराल डॉक्ट्रिन। ये भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और पूर्व विदेश मंत्री इंद्र कुमार गुजराल द्वारा निर्मित एक सिद्धांत है। जिसे गुजराल डॉक्ट्रिन नाम दिया है। साल जून 1996 से अप्रैल 1997 तक देश के प्रधानमंत्री एच.डी.देवगौड़ा थे। उन्होंने इंद्र कुमार गुजराल को भारत का विदेश मंत्री नियुक्त किया गया और उन्हें एक जिम्मेदारी दी गई। जिसमें उन्हें दक्षिण एशिया की अंतराष्ट्रीय राजनीति में भारत को ‘बिग ब्रदर्स’ की तरह स्थापित करना। इसके लिए उन्होंने सौम्य कूटनीति का सहारा लिया। उन्होंने सोचा अगर भारत बड़ा दिल दिखाएगा तो सभी पड़ौसी देश भारत की जय-जयकार करेंगे और इसके साथ भारत दक्षिण एशिया में खुद-ब-खुद एक बड़े भाई के तौर पर स्थापित हो जाएगा। लेकिन विदेशी मामलों के सलाहाकारों का मानना है कि यह उनकी सबसे बड़ी भूल थी। भारत आज भी गुजराल डॉक्ट्रिन का खामियाजा भुगत रहा है। गुजराल डॉक्ट्रिन के मुताबिक,  पहले पड़ोसी देशों में भारत पर विश्वास पैदा करने की कोशिश करनी होगी, उनके साथ विवादों को बातचीत से सुलझाना होगा और उन्हें दी गई किसी मदद के बदले में तुरंत कुछ हासिल करने की अपेक्षा नहीं करनी होगी। जिसके कुछ सिद्धांत कुछ यूं थे कि, दक्षिण एशिया का कोई भी देश किसी दूसरे देश के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। दक्षिण एशिया का देश किसी दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा और एक-दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का ख्याल रखेंगे। भारत ने यही अपना बड़ा दिल दिखाते हुए पाकिस्तान जैसे देश से अपनी सारी खुफिया एजेंसियों को समाप्त कर दिया और भारत की मंशा थी कि पाकिस्तान भारत का पड़ौसी देश है अब हमें पाकिस्तान के अंदर जासूसी नहीं करवानी है। जो भी दोनों देशों के मसले हैं उन्हें बैठकर का बातचीत के माध्यम से हल करना है। बस इसी गुजराल डॉक्ट्रिन के नियमों के कारण भारत की वर्षों की मेहनत बर्बाद हो गई और आज भारत को उसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।

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आपको बता दें, विदेश नीति के मामले में गुजराल डॉक्ट्रिन को काफी सराहना भी मिली लेकिन ये सिद्धांत भारत को काफी नुकसान पहुंचा गया जिसकारण इसका विरोध भी हुआ। आप इसबात का अंदाजा तो लगा सकते हैं कि एक अन्य देश में अपनी खुफिया एजेंसियां शुरू करना। अपने ऐसे गुप्त लोग तैयार करना जो हमें वहां चल रही देशविरोधी गतिविधियों से अवगत करवा सके। उसके लिए ऐसी टीम बनाने के लिए कितना लंबा वक्त लगता है। अब यदि हम चाहते हैं कि पाकिस्तान हमारे खिलाफ क्या साजिश रच रहा है तो हम कैसे पता लगाएंगे। क्योंकि हमारे पास ऐसे कोई लोग और एजेंसी नहीं। इसलिए एकबार फिर से भारत को सुरक्षा मामलों के लिए खुद को पुन: तैयार करना होगा। जिसमें एक बड़ा वक्त लगेगा। बस ऐसी ही खामियों का नतीजा है कि आज देश के टुकड़े-टुकड़े गैंग हर बार सबूत मांगने आ जाते हैं।

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