आदिवासी रहेंगे तो बचेगी प्रकृति

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आदिवासी शब्द का प्रयोग  किसी भौगोलिक क्षेत्र के उन निवासियों के लिए किया जाता है ,जिनका उस क्षेत्र के इतिहास से सबसे पुराना संबंध  हो। आदिवासी शब्द  दो शब्दों आदि और वासी से मिलकर बना है जिसका अर्थ मूल निवासी है। सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ  में इनके लिए जनजाति ,वनवासी आदि शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिये अनूसूचित जनजाति का प्रयोग किया गया है ।देश की जनसंख्या का लगभग आठ प्रतिशत  हिस्सा आदिवासियों का है । इसमें प्रमुख आदिवासी समुदाय मुंडा,खड़िया ,बोडो ,भील ,संभाल,मीणा ,कोली और मल्हार आदि है।

आदिवासी या अनुसूचित जनजाति को समाज में स्वाभाविक रूप से  वंचित गरीब और पिछड़े हुए लोगों की प्रजाति के रूप में देखा जाने लगा है। सामाजिक विश्लेषण में ये  बहुत अविकसित माने जाते हैं और उनके विकास के लिए योजनाएं बनाई गयी है। सामाजिक बदलाव के लिए पहले आदिवासियों को जानना नितांत आवश्यक है।  आदिवासी का अर्थ कोई एक जाति या वर्ग नहीं है वास्तव में उन्हें समझने की भूल की जा रही है। आदिवासी एक तरह से प्रकृति के द्वारा तय सिद्धांतों पर अपनी जीवनशैली और मान्यताओं को स्वीकार करने वाला समूह है। यह समूह सैद्धान्तिक रूप से दूध का उपयोग नहीं करता है , क्योंकि यह मानता है कि मां के दूध पर उसके बच्चों का अधिकार है और यही प्रकृति का नियम भी है।  ये धरती को जननी के रूप में देखते  हैं  और अनाज उत्पादन के लिए नुकीली वस्तु का प्रहार धरती पर नहीं करते।

पूरे देश में फैले हुये एक जैसे चारित्रिक विशेषता  वाले  इन  आदिवासी समूह के खानपान और भाषा में विविधता है। मध्य प्रदेश में ही लगभग 43 आदिवासी समूह है । भील भिलाला की जनसंख्या सबसे अधिक है और बिरहोर की सबसे कम जनसंख्या है।

भारत में आदिवासी समूहों का निर्धारण चार मापदंडों के आधार पर किया गया है।

-कृषि में प्रौद्योगिकी स्तर ,

-साक्षरता का निम्नतम स्तर

-अत्यंत पिछड़ा और दूर निवास  स्थान

-घटती हुई जनसंख्या

स्थिति और जनसंख्या का सही आकलन ना होने के कारण अधिकतम नीतियां और  कार्यक्रम अधूरी जानकारी के आधार पर बनाए जाते हैं। यही कारण है कि आजादी के इतने वर्ष बाद भी आदिवासी उपेक्षित और शोषित ही रह गए हैं। राजनीतिक पार्टियां इनके उत्थान की बात तो करती है पर सही अर्थों में अमल नहीं करती हैं।  ये  कहीं नक्सलवाद से जूझ रहे हैं ,कहीं अलगाववाद की आग में जल रहे है ,कहीं अपने को एक धर्म के अंतर्गत स्थापित करने की माँग और सबसे बड़ी समस्या अपने निवास के अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं।

छत्तीसगढ़ झारखंड में आदिवासी नक्सलवाद की त्रासदी झेल रहे हैं ।यह समस्या आतंकवाद से भी कहीं ज्यादा बड़ी है। आतंकवाद तो आयातित है पर नक्सलवाद  देश की आंतरिक समस्या है। यह समस्या देश को अंदर ही अंदर घुन की तरह खोखला कर रही है ।नक्सली प्रजातंत्र को मजबूती के साथ आंख दिखाते हुए अत्याधुनिक हथियारों और विस्फोटकों से लैस होते जा रहे हैं ।इन क्षेत्रों में आदिवासी ना चाहते हुए भी नक्सलियों का सहयोग करने को विवश है ।

केंद्र  और राज्य सरकार आदिवासियों के नाम पर हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बावजूद भी उनकी जीवन स्तर में में कोई बदलाव नहीं आया है ।भारत के समृद्ध विकासशील देश होने के  बाद भी आदिवासी समाज की मुख्यधारा में  नहीं आए हैं ।इसी का फायदा उठाकर नक्सली  उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं ।

आदिवासियों के आर्थिक विकास और जीवन स्तर सुधारने के लिए बहुत सी योजनाएं बनाई गई हैं जैसे अंत्योदय स्वरोजगार योजना ,नवजीवन आवास योजना ,वसुंधरा कृषि भूमि क्रय योजना, बंजर भूमि सुधार योजना,जल जीवन सामूहिक सिंचाई  योजना,धन्वंतरि आदि  ।

इनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना योजना बनाने का  कोई लाभ नहीं  है।सरकार इन कार्यक्रम के माध्यम से जनजातियों के विकास के लिए पूरी तरह ईमानदार है  लेकिन फिर भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। इन  सभी मूल समस्या के साथ आदिवासियों की प्रमुख  माँग और समस्या ये है कि उनके धर्म की मान्यता दी जाए।

धर्म कोड की मांग-

धर्म के कॉलम में उन्हें ट्राइबल या ऐबोरिजिनल धर्म चुनने का विकल्प दिया  जाये । अभी कुछ महीने पहले  ही देश के लगभग 19 राज्यों के आदिवासी प्रतिनिधि दिल्ली अपने एक दिन के धरने के लिये आये  और वापस  भी चले गए । उनके कष्ट , समस्याओं  ,निवास  और धर्म के मुद्दे  पर किसी अखबार और न्यूज़ चैनल ने ध्यान नहीं दिया। उनका कहना है कि 1951 में भारत में पहली बार जनगणना हुई  तो उनके लिए अलग से  धर्म का कॉलम था। इसे धीरे धीरे  राजनीतिक लाभ  और अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए खत्म कर दिया गया।  इसको हटाने की वजह से आदिवासियों की गिनती अलग-अलग धर्मों में  की जाने लगी जिससे उनके समुदाय को काफी नुकसान पहुंचा है।

हिंदू  ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई, जैन और बौद्ध धर्म से यह अपने को जुड़ा हुआ नहीं मानते हैं ।किसी फॉर्म को भरते  समय इन्हें बहुत समस्या आती है कि यह कौन सा धर्म  और धर्म कोड का चयन करें ।

देश के तमाम आदिवासियों की ये मांग है  कि उन्हें अलग से धर्मकोड  का ऑप्शन चाहिए । अनेक प्रकार की धार्मिक रीतियों और भाषा में विभिन्नता के बावजूद इनकी राष्ट्रीय स्तर पर एक विशिष्ट धर्म की मांग है जिससे इन्हें मजबूरन किसी दूसरे धर्म का दामन ना थामना पड़े ।आजादी के बाद से सरकारें अपनी सुविधानुसार इन्हें धार्मिक गुलाम बना रही हैं। तमाम विभिन्नताओं के बावजूद सभी आदिवासी समूह प्रकृति की पूजा करते हैं और दार्शनिक सोच विचार भी एक जैसे ही है ,सभी आदिवासी समूह की ये मांग है कि 2021की जनगणना से पहले सातवें कॉलम में हमें अलग धर्म कोड मिले। प्रश्न यह है कि समस्या भावनात्मक है या व्यवहारिक क्यों कि इन्हें  ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है ।

आदिवासी भूमि कब्जे पर रोक लगे-

दूसरी प्रमुख  समस्या ये है कि आदिवासी भूमि पर अवैध कब्जों को रोका जाए । इनका कहना है, आदिवासियों से संबंधित किसी भी वन भूमि को उस विशेष क्षेत्र में रहने वालों के अलावा किसी अन्य को आवंटित नहीं की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने  राज्य सरकारों से आदिवासियों को वनभूमि से बेदखल करने के आदेश जारी किए थे । जब लोग मोगली पर फिदा है तब लाखों आदिवासियों को उनके ही जंगल से बेदखल कर दिया जाएगा  क्योंकि वहाँ के कागजात उनके पास नहीं है। कोर्ट ये मानता है कि ये जंगल पर कब्जा जमाये बैठे हैं। राज्यों द्वारा दायर हलफनामों के अनुसार  वन  अधिकार नियम के तहत अनुसूचित जातियों के स्वामित्व के दावों को विभिन्न आधार पर खारिज किया गया। इसमे वो लोग शामिल हैं जो ये सबूत नहीं दे पाये कि तीन पीढ़ियों से भूमि उनके कब्जे मे थी ।

जुलाई मे  इस मामले को लेकर सुनवाई  है और इस मामले में केंद्र सरकार ने  भी सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी है ।आदिवासी  अपने अधिकारों और समस्या निदान  के लिए बहुतायत में पैदल मार्च और धरने पर बैठ  चुके है लेकिन कोई समाधान नहीं निकला है ।इनके दर्द और  निष्कासन को चुनावी मुद्दा भी बनाया जा रहा है ।

आदिवासी और पर्यावरण

वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट के एक रिपोर्ट के अनुसार  दुनिया भर में जंगल वहीं बचे है जहाँ आदिवासी बहुल संख्या में  रह रहे हैं । ये आज भी एक दूसरे के पूरक है। ये समूह आज भी जल जंगल और जमीन से स्वयं को जोड़ कर रखे है। पर्यावरण संरक्षण से आदिवासी समाज पूरी तरह जुड़ा हुआ है। वृक्षों की पूजा इसी की एक कड़ी है। आदिवासियों का कहना है कि एक तरफ  दुनिया भर मे पर्यावरण को साफ रखने के समझौते हो रहे हैं, नए आविष्कार किये जा रहें है  और  हम जो इसे बचाने के लिये सबसे अधिक  कार्य करते है तो हमें जंगल से बाहर किया जा रहा है। वर्षों से अपने ही  घर में रहने के लिए और अपने अधिकारों को लेकर लड़ाई लड़नी पड़ रही है ।

मध्यप्रदेश में चुरका परमाणु ,कनहर डैम योजना और सोनभद्र मे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी है। आर्थिक विकास के लिए जिस तरह से नदियों, जंगल और पहाड़ों  की हत्या की जा रही है यह हमें  साझा मौत की तरफ ले जा रही है ।भारत के कई राज्यों में रेगिस्तानी करण तेजी से बढ़ रहा है और धूल के तूफान अप्रत्याशित गति से बढ़ रहे हैं।स्थलीय पर्यावरण के लिए ये बहुत चिंता का विषय है ।

नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट कंपोजिट वाटर मैनेजमेंट 2018 के अनुसार देश के 60  करोड़  लोग उच्च स्तर के जल  संकट का सामना कर रहे है। विकास की आधुनिक परिभाषा की देन से हम वृहद पर्यावरण संकट से गुजर रहे  हैं। मध्य प्रदेश तथा और भी राज्यों मे ग्राम वन नियम अधिसूचित कर दिए गये  है। ये वन अधिकार कानून की भावनाओं के खिलाफ है। इसके अनुसार क्षतिग्रस्त वन को ग्राम वन के रूप मे अधिसूचित कर किसी निजी क्षेत्र को सौंप दिया जायेगा।

आदिवासियों की ये माँग है कि ये उन्हें सौप दी जाए और वो निजी क्षेत्र को देने के खिलाफ है। आदिवासी और वनवासी समुदाय हज़ारों वर्षो से जंगलों के बीच  ,जंगल के साथ  सह अस्तित्व के सिद्धान्त पर रहता आया है।इस पर इनका दृढ़ विश्वास है कि प्राकृतिक संसाधन के विनाश का मतलब स्वयं का विनाश है। ये संग्रहण और परिग्रह मे विश्वास नही करते ,और तथाकथित आधुनिकता से दूर , पर्यावरण की रक्षा करते है । इस संवेदनशील मुद्दे और समस्या पर अति सतर्कता से फैसला लेने की आवश्यकता है। पर्यावरण की रक्षा के साथ ,समाज की मुख्य धारा मे लाना आवश्यक है।

अनिता सुधीर श्रीवास्तव

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य और व्यक्त किए गए विचार पञ्चदूत के नहीं हैं, तथा पञ्चदूत उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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