बचपन – कलयुग के कंसों के आगे, कान्हा अब लाचार है ।

मैं भूखे बच्चों के लिए रोटी की आस लिखता हूँ ।

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मैं भूखे बच्चों के लिए रोटी की आस लिखता हूँ ।
प्यास से कांपते होठों की सांस लिखता हूँ ।।
चाह नहीं मुझे मोहब्बत के गीत लिखने की ।
मैं माँ की दुआओं में बच्चों के भविष्य का विश्वास लिखता हूँ ।।

मेरा राम फुटपाथ पर सोने को मजबूर है ।
ख़ुशहाली के जीवन से, अब भी कोसों दूर है ।।
रोटी के टुकड़े की खातिर, श्वानों से भिड़ जाता है ।
उसी पीड़ा को अन्तर्मन कविता बनाकर गाता है ।।

यहाँ यशोदा कान्हा को भूखा ही सुलाती है ।
माँ के अन्तर्मन की पीड़ा, सिसकी बन रह जाती है ।।
बचपन बचाओ कहने से भी, बचपन नहीं बच पाता है ।
उसी पीड़ा को अन्तर्मन कविता बनाकर गाता है ।।

कलयुग के कंसों के आगे, कान्हा अब लाचार है ।
कैदखाने की दीवारें भी सजग पहरेदार है ।।
मानव जब मानव न रह, दानव बन जाता है ।
उसी पीड़ा को अन्तर्मन कविता बनाकर गाता है ।।

बच्चों के बचपन की पीड़ा, जीवन बन जाता है ।
मानव दानव बनकर भी, उम्र भर सुख पाता हैं ।।
जब केशव कुरुक्षेत्र न आ, वृन्दावन में रह जाता है ।
उसी पीड़ा को अन्तर्मन कविता बनाकर गाता है ।।

कवि मोती चारण

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