कामचलाऊ रवैया महंगी डिग्रियों से करता मोहभंग

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आज देश में शिक्षा व्यवस्था के जो हालात है वह ‘कामचलाऊ रवैया’ के कारण है। सरकार की तरह कॉलेज फैक्ट्रियां भी मोटी-मोटी फीस लेकर सिर्फ कामचलाऊ डिग्रियां आपके हाथ में थमाने का काम कर रही हैं। जिन्हें लेकर कई साल तक आप सघंर्ष करते हैं और थक हार कर अंत में अपना करियर फोकस बदल देते हैं। कामचलाऊ रवैया शिक्षा प्रणाली पर बोझ बढ़ा रहा है और देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ा कर रहा है। इंजीनियरिंग डॉक्टर, एमबीए जैसी महंगी पढ़ाई की व्यवस्था चरमराई हुई है। इंजीनियरिंग और एमबीए डिग्री ले चुके लाखों युवा बेरोजगार हैं। एक आंकड़ा बताता है हर साल 4 लाख इंजीनियर और एमबीए स्टूडेंट्स पास आउट होते हैं जिसमें लगभग 1.5 लाख स्टूडेंट्स को नौकरी मिल पाती है। कुछ चुनिंदा संस्थानों को छोड़कर दिया जाए तो निजी इंजीनियरिंग और एमबीए कॉलेजों के स्टूडेंट्स हाल काफी खराब है। कुछ रिपोर्ट्स तो ऐसी मिली है जिसमें एमबीए और इंजीनियरिंग की पढ़ाई किए स्टूडेंट्स बैंक में चपरासी की नौकरी तक करने को तैयार है।

बिजनेस स्कूलों पर होने वाली स्टडी बताती है कि देश में तकनीकी शिक्षा में 70 फीसदी हिस्सेदारी इंजीनि‌यरिंग कॉलेजों की हैं। बाकी 30 फीसदी में एमबीए, फार्मा, आर्किटेक्चर जैसे सेक्टर आते हैं। कुछ साल पहले तक इंजीनियरिंग और एमबीए का जबर्दस्त क्रेज था। अच्छी नौकरी और बेहतर भविष्य की ये गारंटी माने जाते थे। पर हालात में बदलाव के साथ दोनों सेक्टरों की हालत धीरे-धीरे खराब होने लगे। अब हाल ये है कि स्टूडेंट्स 12वीं के बाद किसी तरह के अन्य प्रोफेशनल कोर्स में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा है या फिर टीचर बनने में। लेकिन इससे भी ज्यादा चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए कुंभ मेले से। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, 10,000 से ज्यादा भारतीय युवा अपना अच्छा-खासा करियर और भविष्य छोड़कर इस बार कुंभ में नागा साधु बनने की दीक्षा ले रहे हैं। इनमें इंजीनियरिंग और एमबीए ग्रैजुएट से लेकर कॉलेज और स्कूलों के टॉपर छात्र तक शामिल हैं।

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इसका क्या मतलब निकाला जाए कि आखिर क्या सच में नौकरियों की तंगी ने इन महंगी खून चूस पढ़ाईयों से स्टूडेंस का मोह भंग कर दिया है। या फिर सरकारी ढ़ाचा ऐसा हो गया है उन्हें इन सेक्टर की तरफ नजर ही नहीं जाती। हैरानी कहे या बेवकूफी चुनावी दौर में हर सरकार नौकरी देने का वादा करेगी। वोटबैंक के खातिर फ्री में बेरोजागारों को पैसा बांटने की बात कही जाएगी लेकिन कोई उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने की बात क्यों नहीं कहता। एसोचैम की दिसंबर 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक, बिजनेस स्कूलों से निकलने वाले छात्रों में केवल 20 फीसदी को ही रोजगार मिल पा रहा है  2016 में यह आंकड़ा 30 फीसदी था। बिजनेस स्कूलों और इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों को मिलने वाले वेतन में भी ‌2016 की तुलना में 40-45 फीसदी की कमी आई है।

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एआइसीटीई की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 में इंजीनियरिंग कॉलेजों में 15,43,214 छात्रों ने प्रवेश लिया लेकिन, इन कॉलेजों से पढ़ाई पूरी कर निकले इंजीनियरों में से महज 5,07,736 को ही नौकरी मिली। 2016-17 में उन छात्रों की पढ़ाई पूरी हुई होगी जिन्होंने 2013-14 के सत्र में नामांकन कराया था। 2013-14 के सत्र में 17,97,807 छात्रों ने दाखिला लिया था। इसका मतलब हुआ कि चार में से एक इंजीनियर को ही प्लेसमेंट मिली। ये ही नहीं मैनेजमेंट और आईटी सेक्टर भी इसी तरह की परेशानी से गुजर रहे हैं।

जो सीखा वहीं खत्म होने पर
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि आज स्कूल कॉलेजों में जो कुछ सीखाया जा रहा है वह अब खत्म होने की कगार पर है। कई संस्थानों ने जॉब्स मार्केट की मांग को समझते हुए अपने तरीकों में बदलाव किया है लेकिन अभी भी बड़ा बदलाव उच्च शिक्षा में होना बाकी है। आने वाले समय में धीरे-धीरे कुछ नौकरियां नाटकीय रूप से बदल जाएंगी जबकि कुछ दूसरी नौकरियां पूरी तरह से गायब हो जाएंगी। इसका बड़ा कारण भारतीय आइटी इंडस्ट्री में ऑटोमेशन, रोबोटिक, आर्टिफिशल इंटेलीजेंस तकनीक का आना है। इससे बहुत सी नौकरियां जाएंगी और कुछ नई तरह की नौकरियां पैदा होंगी। यानी अगले कुछ वर्षों में नौकरियों का स्वरूप बदलना तय है। जिसका अंदाजा छोटे उद्योगों से लगाया जा सकता है।

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अब उतना ही काफी नहीं है जो आपने सीखा है। जैसे-जैसे मशीनों का दौर आएगा वह करियर की अपार संभावनाओं के लिए एक नई चुनौती बनता जाएगा। जिसके लिए भारतीय युवाओं को तैयार नहीं किया जा रहा, इसी कारण आज उनके पास नौकरियां नहीं है। पहले इंसानी दौर था तकनीकी को सीखते हुए कई साल गुजरते थे, आज प्रतियोगिता मशीनों के साथ जिनके साथ  तेजी से बदलना होगा और इस बदलाव के लिए कॉलेज, विश्वविद्लायों में ट्रेनिंग पर सबसे ज्यादा ध्यान देने आवश्यकता है। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की वर्तमान शिक्षा प्रणाली इस नई वास्तविकता के लिए तैयार नहीं है। छात्रों को स्नातक बनाने जितना ही महत्वपूर्ण है उनको तकनीकी में मास्टर बनाना ताकि बदले दौर के साथ उन्हें बदलने में परेशानी न हो।

भविष्य की चुनौती कामचलाऊ रवैया
हर समस्या का हल है लेकिन आपके कामचलाऊ रवैया का हल सबसे पहले निकालना होगा। आज स्कूल कॉलेज में छात्रों को शोध कार्य नहीं करवाए जाते बल्कि परीक्षा से पहले नोट्स बांट दिए जाते हैं और कह दिया जाता है इन्हें रट ले परीक्षा पेपर इन्ही नोट्स के आधार पर तय किया जाएगा। भारत में हर दूसरे बच्चे को नोट्स की लत लगी है। ये उच्च शिक्षा से नहीं बल्कि प्राथमिक शिक्षा से दिया जाने वाला टॉनिक है जिसका असर धीरे-धीरे मानसिक और फिर शारीरिक तौर पर दिखाई देता है। जहां स्टूडेंट की नींव मजबूत करने की जरूरत उसके साथ खपने की जरूरत है

वहां मेहनत करने के बजाएं उसे पासबुक या नोट्स पकड़वा दिए जाते हैं। बस ये ही तुरंत ढूढ़ा जाने वाला हल अब युवा पीढ़ियों के लिए करियर में मर्ज बन गया है जो वर्तमान में नौकरियों और योग्यता से जूझ रहा है। ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन के 2015-16 के आंकड़ों के मुतबिक, 20 फीसदी इंजीनियरिंग के छात्रों को नौकरी मिल पाती है। इसके पीछे उन्होंने तीन कारण बताएं- पहला, उद्योंगों की मांग से ज्यादा छात्र इंजीनियरिंग की डिग्री के साथ बाहर आते हैं। दूसरा कॉलेजों में बनाए गए कोर्स उद्योगों की जरूरतों के मुताबिक नहीं हैं। इसकी वजह से ऐसे छात्रों की मांग नहीं रह जाती और तीसरा, कम्युनिकेशन स्किल के मामले में बहुत सारे छात्र पीछे रह जाते हैं। कुछ सालों पहले तक एमबीए और एमसीए की डिग्रियों को प्रतिष्ठित माना जाता था। लेकिन आज की स्थिति इससे इतर है।

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अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए कितने तैयार-
बाजार में रोजगार के अवसर पैदा करने और उस हिसाब से कॉलेजों में अलग-अलग तरह के कौशल विकास के लिए जरूरी काम करने की आवश्यकता है। सरकार की तरफ से ऐसी कोई भी योजना सामने नहीं आ रही है और शिक्षा के पूरे क्षेत्र को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया गया है। शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए शिक्षकों की भर्ती, उनका प्रशिक्षण और नई पद्धतियों को अपनाने को लेकर ध्यान देने की बहुत ज़रूरत है। जिससे आने वाली पीढ़ियां बाजार की मांग और आपूर्ति के लिहाज से खुद को तैयार कर सकें और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा में टिक सकें। क्योंकि अभी जिस तरह हमारी ट्रेन जैसी चल रही है उससे तो ये ही लग रहा है 4 करोड़ से ज्यादा की आबादी जो कॉलेज में है वो पूरी तरह से अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से बाहर है।

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