शिक्षा प्रणाली का बेड़ा गर्क करती नीतियां  

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हम उस देश के वासी हैं जहां शिक्षा हमारी सरकारों की प्राथमिकता से कौसो दूर है। 2019 के आम चुनाव आपके सामने है। देश में कई मुद्दे है जिसपर बहस छिड़ी है उनमें से एक मुद्दा है ‘बेरोजगारी’। भाजपा-कांग्रेस व अन्य राजनैतिक दल एक दूसरे के शासनकाल का पर्चा जनता में बांटने में लगी लेकिन कोई भी पार्टी जमीनी स्तर पर अपने काम पूरे करने सफल नहीं हो पाई है। वर्तमान हालात देश के क्या है इससे किसी भी पार्टी को पूरे 5 साल कुछ लेना-देना नहीं है। माना नोटबंदी से नौकरियों पर बुरा प्रभाव पड़ा है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बेरोजगारी की समस्या इससे पहले नहीं हुई। मेरा सवाल केवल इतना है कि रोजगार पैदा कैसा होगा जब आपकी शिक्षा व्यवस्था ही ठीक नहीं होगी। विपक्ष अपने हर बयान में कहता आया इस सरकार के आने से नौकरी में कमी आई लेकिन कोई ये नहीं कहता कि देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार की जरूरत है तभी नौकरी और विकास सही ढ़ग से होगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर साल बोर्ड परीक्षा से पहले स्कूली बच्चों को सम्बोधित करते हैं ताकि उनका मनोबल बढ़ाया जाए लेकिन क्या वह भूल गए कि बोर्ड परीक्षा के बाद, स्टूडेंट्स को अपने भविष्य को लेकर जो तनाव पैदा होगा तब आप उसका मनोबल कैसे बढ़ाएंगे? और खुदा न खास्ता उसने तनाव में आकर आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया तो आप उनके माता-पिता को क्या कहेंगे। बड़े से स्टेडियम में स्कूली बच्चों या कॉलेज में जाकर छात्रों का मनोबल बढ़ाना अच्छी बात लेकिन उनके भविष्य के बारें चितिंत रहिए न कि परीक्षा की आड़ में 2019 के चुनावों में अपनी छवि चमकाने के लिए तत्पर। दिसंबर 2018 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक सर्वे छापा, जिसमें बताया गया कि भारत के छह राज्यों में प्राथमिक स्कूलों में 5 लाख से अधिक शिक्षक नहीं हैं। इनमें से 4 लाख से अधिक तो सिर्फ बिहार और यूपी में नहीं हैं। जब दो राज्यों के हालात ये हैं तो पूरी शिक्षा नीति का बेड़ा गर्क माने तो गलत नहीं होगा। हाल ही में लंदन स्थित वैश्विक संगठन टाइम्स हायर एजुकेशन की इमर्जिंग इकोनॉमीज यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2019 में भारत के 49 संस्थानों ने जगह बनाई, गर्व करने वाली बात है लेकिन कैसे किया जाए क्योंकि जमीनी तस्वीर हमारे सामने पहले से साफ है। हैरानी तब होती है जब राज्य या केंद्र सरकारें ये तय नहीं कर पाती की ज्ञान के नाम पर बच्चों का बस्ता किताबों से भरना है या फिर दिमाग। कहने का मतलब, आए दिन खबरें आती हैं कि फलानी कक्षा की किताब में ये विवादित चीज पढ़ाई जा रही है। इतिहास के साथ छेड़छाड़ या गंगाधर तिलक को आतंकी बताया जा रहा है। वगैरह-वगैरह। शिक्षा व्यवस्था और रोजगार की बात करने से पहले ऐसे शिक्षकों का पर्दाफाश होना जरूरी है जो शिक्षा में भाम्रक चीजों का विस्तार कर रहे हैं और छात्रों में ज्ञान के नाम कुंठा को जन्म दे रहे हैं।

गुणवत्ता में कमी
समाज के सभी तबके के लोगों को समझना जरूरी है कि रोजगार का सीधा वास्ता शिक्षा की गुणवत्ता है। जिस देश का बच्चा गुणा-भाग करने में कमजोर हो वो देश की अर्थव्यवस्था में कैसा सहयोग देगा? सोशल मीडिया पर वायरल होती वीडियो में जहां शिक्षकों को सप्ताह के नाम, महीनों के नाम इंग्लिश में नहीं लिखने आते। जिन्हें सामान्य ज्ञान का नॉलेज नहीं वह बच्चों को क्या सीखाएंगे। शिक्षकों जैसा वहां पढ़ने आने वाले बच्चों का हाल, असर की रिपोर्ट बताती है कि 27 प्रतिशत आठवीं के छात्र दूसरी की किताब नहीं पढ़ सकते हैं। गुणा-भाग और इंग्लिश आदि की बात ही छोड़ दीजिए। जब प्राथमिक पढ़ाई बच्चे की ठीक से नहीं हो पा रही तो आप 10वीं 12वीं बोर्ड परीक्षा के नतीजों का अंदाजा लगा सकते हैं। सरकारी स्कूलों में लाखों की संख्या में शिक्षक नहीं हैं। जो हैं उनमें से भी बहुत पढ़ाने के योग्य नहीं हैं। जिसके कुछ उदाहरण अभी-अभी दिए हैं। सरकारी खजाने में पैसे के साथ फर्जी विश्वविद्यालयों के आंकड़े भी हैं लेकिन उनके पास देश में कितने फर्जी वोकेशनल संस्थानें चलाई जा रही है इसका आंकड़ा नहीं है। अपने शहर, कस्बे की भीड़-भाड़ वाले इलाके में नजर उठाकर देख लीजिए किसी न किसी वोकेशनल संस्थानों की दुकानें खुली मिलेगी। हम इन इंस्टीट्यूट की बात क्यों करें आजकल गली-गली में खुले स्कूल भी इस श्रेणी का बड़ा हिस्सा है। इनमें से कितने मानकों पर खरे उतरते हैं? हमें भी पता है, आपको भी और सरकार को भी लेकिन फिर भी सब चुप्पी साधे बैठे हैं और मौके की तलाश में कब हमारे या फलाने के बच्चे का भविष्य खराब हो तब हम सड़कों पर मोर्चा खोले। सोचिए हमारी अनदेखी से शुरू हुई ये कहानी पूरे समाज पर कितना असर डालती है। इन फर्जी दुकानों से निकलने वाले जुगाड़ से या किसी भी तरह नौकरी पाते हैं तो वह संस्थान को क्या दे रहे हैं? एकतरह का बढ़ावा।  दूसरा सवाल ऐसे छात्रों को मिलने वाली हर नौकरी की एवज में यकीनन एक योग्य उम्मीदवार नौकरी पाने से वंचित भी रह जाएगा। अगर खबरों से तालुल्क रखते हैं तो याद हो बिल गेट्स, बराक ओबामा और दलाई लामा ने भारतीय शिक्षा प्रणाली पर बड़े-बड़े सोचनीय सवाल हमारे लिए छोड़े हैं। उन्होंने पूछा है कि भारतीय ‘बच्चे स्कूल में रहते हुए क्या वास्तव में सीख रहे हैं? क्या भारत के विश्वविद्यालयों में छात्रों को इनोवेटिव होने के लिए प्रेरित किया जा रहा है?’ क्या उन्हें भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति तरफ नहीं लौटना चाहिए? जिसे पूरा विश्व सीखना चाहता है उससे ही भारतीय बच्चों को दूर किया जा रहा है। हैरानी वाली बात है हमारे देश की व्यवस्था बिगड़ती व्यवस्थाओं का आंकलन हमसे ज्यादा बाहरी लोगों को हो रहा है। बार-बार विदेशों से आए मेहमान हमें चेता रहे हैं और एक हम है कि सुधरने का नाम नहीं ले रहे।

सवाल ये पूछा जाना चाहिए की नई शिक्षा पद्धति के नाम पर जो चिल्ला-चिल्ला कर रैलियों में बताया जाता है कि फलानी सरकार ने क्या किया और आगे हम क्या करेंगे। उन्ही से ये भी पूछा जाना चाहिए कि उनके द्वारा शुरू की गई नई शिक्षा पद्धति से किन बच्चों को लाभ मिल रहा है, रोजगार के पैमाने पर? अच्छा नागरिक बनाने के पैमाने पर? दुनिया में हमें प्रतिस्पर्धी बनाने के पैमाने पर? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका जवाब मानव संसाधन मंत्रालय एंड मंडली से पूछा जाना चाहिए।

मौजूदा शिक्षा व्यवस्था पर मंथन जरूरी
अकबर इलाहाबादी की कुछ पक्तियां याद आ गई जो आगे की स्थिति को कम शब्दों में बयां करने में काम करेगी। उन्होंने लिखा कुछ यूं.. न पढ़ते तो खाते सौ तरह कमा कर / मारे गये हाय तालीम पाकर  न खेतों में रेहट चलाने के काबिल / न बाज़ार में माल ढोने के काबिल गौर करने वाली बात है हमारी शिक्षा व्यवस्था केवल ‘ग्रेजुएट’ पैदा कर रही है। उसमें इतनी ताकत नहीं कि वह सबको रोजगार दे सके। हमारे देश में शिक्षा के नाम पर हर वर्ष अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं। फिर भी भारतीय शिक्षा पद्धति जमीनी मानक से काफी पीछे है। सवाल यह है कि भारी-भरकम बजट, स्मार्ट क्लास-रूम की व्यवस्था व बेहतरीन आधारिक संरचना के बावजूद वर्तमान में हमारी शिक्षा व्यवस्था अपनी चमक छोड़ने में पीछे क्यों है। इसका कारण जो समझ आता है वह ये है कि 21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक स्कूली शिक्षा को नहीं बदला जाएगा। अब बदलते दौर में जमीनी तस्वीर साफ है कि अब हमें प्राथमिक स्तर को मजबूत करने की जरूरत है। स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में बदलाव देखा गया है लेकिन असली गुणवत्ता की अभी भी कमी है। विश्वगुरू कहलाने वाला भारत आज 21 सदी में सबसे पीछे क्यों खड़ा है। जबकि हम से कम विकसित देश आज शैक्षिण गतिविधियों में हमसे आगे है। कहीं ऐसा न हो हम डिग्री तो बांट दें, लेकिन वो ना हमें इधर का छोड़े ना उधर का। सोचिए सोचना जरूरी है बेहतर भविष्य के लिए।

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