पारंपरिक भाषाओं के अस्तित्व पर संकट, फिर भी दुनिया में कोई हलचल नहीं

भाषा किसी संस्कृति की पहचान, उसकी विरासत होती हैं वो सिर्फ शब्दों को ही नहीं संजोती, वो अपने में सदियों पुराने ज्ञान को भी संजोए रहती हैं। हम संथाली के साथ-साथ अपने पारम्परिक वाघयंत्र, लोकगीत, कथाएं, पोशाक आदि खोते जा रहे हैं।

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भगवान मुर्मू

पारम्पारिक बोली व भाषाएं ने केवल हमारे विचारों को प्रकट करने का जरिया है बल्कि यह हमारी संस्कृति को जीवत रखने की महत्वपूर्ण कड़ी है। ऐसे में कोई भी भाषा या बोली का चलन खत्म होने लगता है तो उसका नुकसान सारी मानव जाति या उस समुदाय को भुगतना पड़ता है। ऐसा कहना है ओडिशा के केंदुझर जिले के डांगाचुआ गांव के आदिवासी समुदाय से तालुक्क रखने वाले भगवान मुर्मू का। उनका कहना है कि, यदि हम विलुप्त होती भाषाएं और बोलियों को नहीं बचा पाए तो ये हम सब के लिए दुर्भाग्य की बात होगी। हम सबको लगता है भाषा का खत्म होना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन ऐसा नहीं, हम सब मिलकर एक मानव सभ्यता को खत्म कर रहे हैं। हमारे पूर्वजों से मिली विरासत जो नई पीढ़ी के पास पहुंचने के बजाए संसार से विलुप्त हो रही है।

भगवान मुर्मू आगे बताते हुए कहते हैं कि उनके आदिवासी समुदाय में बोली जाने वाली संताली भाषा को भले ही 22 दिसंबर 2003 को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया हो लेकिन आधुनिकता के दौर में संताली भाषा विलुप्ति के कगार पर है। इसे बचाने के लिए वह पिछले तीन महीनों से गांव के बच्चों को मुफ्त में संताली लिपि जिसे ओलचिकी लिपि कहा जाता है। उसे सीखा रहे हैं। मुर्मू बताते हैं कि उनके गांव के लगभग सभी आदिवासी बच्चे स्कूल तो जाते हैं लेकिन वह शिक्षा उड़िया या अंग्रेजी भाषा में लेते हैं। जिस कारण बच्चे संताली बोल तो सकते हैं लेकिन लिख नहीं पाते।

डांगाचुआ के आदिवासी समुदाय के लोगों को मानना है कि, संताली भाषा के खत्म होने के पीछे की वजह रोजगार और शहरी परिवेश है। उनका मानना है कि जब स्कूलों में संताली भाषा से जुड़ा पाट्यक्रम नहीं होगा तो बच्चा क्या पढ़ेंगा? कैसे अपनी पहचान को बनाकर रखेगा। तेजी से बढ़ता आधुनिकरण आदिवासी समुदाय की कला और पहचान के  लिए संकट बना चुका है। ऐसे में भगवान मुर्मू ने इस भाषा को बचाने की मुहिम शुरू की है। उन्होंने बताया कि उनका लक्ष्य है साल 2025 तक उनको ऐसा काम करना है कि हर घर में जो भी कलम पकड़ पाए उसे ओलचिकी लिपि में दस्तखत करने आए।

                                               संताली सीखते बच्चे

क्यों बढ़ रहा है तटीय भाषाओं पर खतरा-
इसी विषय पर डांगाचुआ के अध्यापक लक्ष्मण मांझी आगे कहते हैं,  भाषा किसी संस्कृति की पहचान, उसकी विरासत होती हैं वो सिर्फ शब्दों को ही नहीं संजोती, वो अपने में सदियों पुराने ज्ञान को भी संजोए रहती हैं। हम संथाली के साथ-साथ अपने पारम्परिक वाघयंत्र, लोकगीत, कथाएं, पोशाक आदि खोते जा रहे हैं। अनेक भाषाएं आज खतरे में केवल इसलिए क्योंकि जिस तरह से स्कूली शिक्षा का विकास किया जा रहा है उससे पारम्पारिक भाषाओं पर खतरा बढ़ गया है। हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के अलावा क्षेत्रीय भाषा व पारम्पारिक बोलियों आदि को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। भगवान मुर्मू इसमें जोड़ते हुए कहते हैं कि इसके अलावा तटीय इलाकों में बोली जाने वाली भाषाओं को सबसे ज्यादा खतरा है क्योंकि यहां आजीविका सुरक्षित नहीं है। स्थानीय भाषा में कोई काम करवाना नहीं चाहता और कमाने के लिए जब बाहर जाते हैं तो भाषाएं पीछे छूट जाती हैं।

क्या अंग्रेजी कई भारतीय भाषाओं पर खतरा-
महात्मा गांधी के एक कथन से अपनी बात शुरू करते हुए हिन्दी साहित्य के प्रोफेसर रविशंकर त्रिपाठी कहते हैं कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा में नहीं बल्कि किसी अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं। इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है। अंग्रेजी भारतीय भाषाओं के लिए खतरा नहीं है ये लोगों के द्वारा बनाई गई केवल धारणा है। जिसे आप या हम नहीं बदल सकते हैं। हां, ये सच है कि अंग्रेजी के बिना आज कोई काम-काज संभव नहीं है। ऐसा माहौल बनाया किसने हम ने ही। विलुप्त होती भाषाओं को केवल हम ही बचा सकते हैं, यदि उनमें अच्छे साहित्य, कहानियां और लेख लिखें जाए। युवाओं में समय के साथ तकनीकी भाषा का भी खूब विकास हो रहा है जहां भाषाओं में बड़े शब्दों के लिए छोटे शब्द ’एक्रोनिम’ को जन्म लेते भी देखा जा सकता है। हिंदी और अंग्रेजी के मिश्रण ‘हिंगलिश’ बना दिया। बस ये सब होना नहीं चाहिए इनसे भाषाओं को खतरा है क्योंकि न तो हम पूरा ज्ञान ले पा रहे हैं और न ही अधूरा……हम भाषा को एक नई ही शक्ल दे रहे हैं। हमें इस और ध्यान देने की आवश्यकता है।

सरकारी रूख सुस्त क्यों?
लेखिका तपस्या सेठ का मानना है कि भारत सरकार उस भाषा को मान्यता नहीं देती जिसे बोलने वाले लोगों की संख्या दस हजार से कम हो। अब आप बताएं भाषाएं और बोलियां कैसे बचेंगी। तपस्या कहती है कि इसीलिए इन भाषाओं का पहला संघर्ष तो मान्यता के लिए ही होता है। फिर उन्हें कुछ संसाधन मिल सकते हैं लेकिन सवाल तो ये हैं कि इन भाषाओं को सीखाकर सरकार कोई रोजगार दे पाएगी। इस सवाल का जवाब सरकार या भाषा को बचाने के लिए जो संगठन बने हैं वो कभी नहीं दे पाएंगे और हमेशा की तरह साल के किसी दिन हम बहस करेंगे और बात वहीं अटक जाएंगी।

संताली भाषा का इतिहास-
आदिवासियों की समृद्ध भाषा संताली भारत में झारखंड, ओड‍िशा, ब‍िहार, पश्‍च‍िम बंगाल, असम व त्र‍िपुरा आद‍ि राज्‍यों में बोली जाती है। इस भाषा की ल‍िप‍ि को ओल च‍िकी कहा जाता है। इसे पंडित रघुनाथ मुर्मू ने तैयार क‍िया था। स्थानीय लोग बताते हैं कि 1925 के पहले तक यह संथाली गांवों में सिर्फ बोली जाती थी। इसके न वर्ण थे न अक्षर। आठ साल के रघुनाथ मुर्मू ने अपनी ही भाषा में पढ़ने की जिद् की और वह जंगल में निकल गए। पंडित रघुनाथ ने जल, जंगल, जमीन के संकेतों को समझकर वर्ण गढ़ना शुरू किए। 12 साल की मेहनत के बाद संताली भाषा की ओलचिकी लिपि का आविष्कार हुआ।

संताली भाषा की तरह भारत और दुनिया की हजारों भाषाओं पर विलुप्ति की तलवार लटक रही है। अगर हम युनेस्को द्वारा जारी “एटलस ऑफ वर्ल्ड लैंग्वेज इन डैंजर” को देखें तो पाएंगे कि 1950 से अब तक दुनियाभर में 230 भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। युनेस्को ने 2001 में पहली बार जब एटलस जारी किया था, तब 900 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा पाया था। वहीं साल 2017 का एटलस सर्वे बताता है कि विलुप्ति की और बढ़ती भाषाओं की संख्या 2,464 तक पहुंच गई। सबसे डरावनी बात यह है कि इनमें भारतीय भाषाओं की संख्या सबसे अधिक है।

युनेस्को की सूची में अहोम, आंद्रो, रांगकास, सेंगमई और तोल्चा भारतीय भाषाएं ऐसी हैं जो मर चुकी हैं। युनेस्को ने भारत की 197 भाषाएं चिन्हित की हैं जो विलुप्तप्राय हैं। अभी हाल ही में आई द ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी (एएनयू) द्वारा किए एक अध्ययन से पता चला है कि सदी के अंत तक दुनिया की करीब 1,500 भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी, जिसका मतलब है कि इनको बालने और जानने वाला कोई नहीं बचेगा। यह शोध जर्नल नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में छपा है। साथ ही शोधकर्ताओं ने उन कारणों को भी जानने का प्रयास किया है, जिनके कारण यह भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं। इसमें एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है।

जिसमें कहा गया है कि जिस क्षेत्र में देश को शहरों और गांवों को कस्बों से जोड़ने वाली जितनी ज्यादा सड़के हैं, वहां भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा उतना ज्यादा है। भारत में 2011 के जनगणना सम्बन्धी आंकड़ों को देखें तो उसके अनुसार देश में करीब 19,569 भाषाएं या बोलियां बोली जाती हैं। इनमें से 121 भाषाएं ऐसे हैं जिनको बोलने वालों की आबादी 10 हजार या उससे ज्यादा है, जबकि बाकी के जानकर 10 हजार से भी कम है। कुछ तो भाषाओं के जानकार भी नहीं हैं। एक शोध के मुताबिक, भारत ने पिछले पांच दशकों में अपनी 20 फीसदी भाषाओं को खो दिया है।  ज्यादा हैरत की बात यह है कि भाषा का इतना बड़ा नुकसान होने के बाद भी कहीं कोई हलचल नहीं है। यह शायद इसलिए कि इनमें से ज्यादातर जनजातियों की मातृभाषाएं थीं। दुखद है कि हजारों सालों से बनी एक भाषा, एक विरासत, उसके शब्द, उसकी पहचान, उनके मुहावरे, लोकगीत, लोक कथाएं एक झटके में ही खत्म होने लगी हैं।

ध्यान दे- इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार पञ्चदूत के नहीं हैं।

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