आखिर सभ्य समाज जा कहां रहा है?

0
669

महिलाओं-बच्चियों के साथ होते अपराधों में इजाफा इस कदर हो रहा है जैसे बंपर नौकरियां निकली है और सब इसे पाना चाहते हैं। मेरी मंशा किसी को आहत करना नहीं है लेकिन वर्तमान हालात ऐसे ही है। जितनी दूर तक आपकी नजर जाएंगी उतनी दूर तक हर कोई औरत को नोंच खाने पर तुला है। 2017 के आंकड़ों के अनुसार, 97 प्रतिशत केसों में महिलाएं अपनों की ही शिकार होती है। यानी अपराध करने वाला कोई परिचित ही होता है। देश में ऐसी कम ही घटनाएं हुई जिसमें कोई अपना लिप्त न हो। निर्भया कांड उसमें से एक है। इस घटना पर जिसतरह देश एकजुट नजर आया उसे मानों उम्मीद जगी की इस बार कानूनी रूप से कुछ बड़ा होगा। जिस तरह से देश भर में विरोध के स्वर गूंजे थे और जैसे सरकारी, गैरसरकारी संगठनों ने महिला अपराधों की रोकथाम के लिए जनचेतना से लेकर कानूनी प्रावधानों तक में बदलाव की चर्चाएं की थी, उपाय सुझाएं थे लेकिन इस सबके बावजूद परिणाम उलट ही निकले और आज वर्तमान हालात आपके सामने है। इंसान की इंसानियत जहां मर रही है वहीं हवस का एक नया रूप देखने को मिल रहा है। हवस ऐसी की रिश्ते भी तार-तार हो चले हैं, भाई बहिन से, पिता बेटी से। ये ही नहीं औरत-औरत को बेच रही है। मानो जैसे इंसानियत किसी में बची ही नहीं है। यह हमारे सभ्य समाज की भद्दी सोच बेहद निराशाजनक है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 में देश में 34,651 मामलें रेप से संबंधित दर्ज हुए हैं। छेड़छाड़ के मामलें देखें तो यही कोई 8 लाख से ज्यादा मामलें एक वर्ष में ही पुलिस के सामने आए हैं वहीं रेप के प्रयास का आंकड़ा एक लाख 30 हजार के पार था। महिलाओं से छेड़छाड़ हो या बलात्कार, अपहरण हो या क्रूरता सभी क्षेत्रों में बढ़ोतरी इस बात का संकेत है कि देश दुनिया में आज भी महिलाएं सुरक्षित नहीं है। यह भी सही है कि देश में कतिपय महिलाओें द्वारा महिला सुरक्षा के लिए बने कानून का दुरुपयोग व झूठे आरोप लगाने के मामलें भी तेजी से सामने आ रहे हैं और रेप के आरोप को हथियार बनाकर ब्लैकमेंलिग कर लूटने का रास्ता बनाया जाने लागा है।

निर्भया, उन्नाव और कठुआ कांड जैसे मामलों में जब-जब सड़कों पर महिलाओं के सम्मान के प्रति जनभावना और युवाओं का आक्रोश देखने को मिलेगा है उसे लगा इसबार लोगों में मरी मानवता संवेदनशीलता बढ़ेगी और असामाजिक तत्वों पर रोक लगेगी लेकिन ऐसा हुआ कुछ नहीं। अधिक चिंताजनक यह है कि रेप या इस तरह की घटनाओं को राजनीतिक व सांप्रदायिक रुप दिया जाने लगा है और राजनीति व सांप्रदायिकता की आग में महिलाओें की इज्जत तार-तार होने के साथ ही सामाजिक ताना-बाना भी बिखरने लगा है।

रेप सबसे कम रिपोर्ट होने वाला जुर्म-
दुनियाभर के कानूनों में बलात्कार सबसे मुश्किल से साबित किया जाने वाला अपराध है। इसलिए सबसे कम रिपोर्ट होने वाला जुर्म है। ज्यादातर मामलों में पीड़िता पुलिस तक पहुंचने की हिम्मत जुटाने में इतना वक्त ले लेती है कि फॉरेंसिक साक्ष्य नहीं के बराबर बचते हैं। उसके बाद भी कानून की पेचीदगियां ऐसी कि ये जिम्मेदारी बलात्कार पीड़िता के ऊपर होती है कि वो अपने ऊपर हुए अत्याचार को साबित करे बजाय इसके कि बलात्कारी अदालत में खुद के निर्दोष साबित करे।

क्या कहतें हैं आकड़ें –
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर एक घंटे में 4 रेप की वारदात होती हैं। यानी हर 14 मिनट में रेप की एक वारदात सामने आती है।
– देश में औसतन हर 4 घंटे में एक गैंग रेप की वारदात होती है।

– हर दो घंटे में रेप की एक नाकाम कोशिश को अंजाम दिया जाता है।

– हर 13 घंटे में एक महिला अपने किसी करीबी के द्वारा ही रेप की शिकार होती है।

– 6 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ भी हर 17 घंटे में एक रेप की वारदात को अंजाम दिया जाता है

– निर्भया कांड के बाद दिल्ली में दुष्कर्म के दर्ज मामलों में 132 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। साल 2017 में अकेले जनवरी महीने में ही दुष्कर्म के 140 मामले दर्ज किए गए थे। मई 2017 तक दिल्ली में दुष्कर्म के कुल 836 मामले दर्ज किए गए।

– विश्व स्वास्थ संगठन के अनुसार, ‘भारत में प्रत्येक 54 वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ वहीं महिलाओं के विकास के लिए केंद्र (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) अनुसार, ‘भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है।

निर्भया कांड जहां इंसानियत को शर्मसार करने वाला था वहीं अन्य पीड़ित महिलाओं के लिए एक आशा की किरण। वर्मा कमिशन की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने नया एंटी रेप लॉ बनाया। इसके लिए आईपीसी और सीआरपीसी में तमाम बदलाव किए गए, और इसके तहत सख्त कानून बनाए गए। साथ ही रेप को लेकर कई नए कानूनी प्रावधान भी शामिल किए गए लेकिन इतनी सख्ती और इतने आक्रोश के बावजूद अपराध नहीं रूके। एनसीआरबी के जारी ताजा आंकड़ों के अनुसार 2017 में देश में 28,947 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना दर्ज की गयी। इसमें मध्यप्रदेश में 4882 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना दर्ज हुई, जबकि इस मामले में उत्तर प्रदेश 4816 और महाराष्ट्र 4189 की संख्या के साथ देश में दूसरे और तीसरे राज्य के तौर पर दर्ज किये गये हैं। इसके साथ ही नाबालिग बालिकाओं के साथ बलात्कार के मामले में भी मध्यप्रदेश देश में अव्वल स्थान पर है। मध्यप्रदेश में इस तरह के 2479 मामले दर्ज किये गये जबकि इस मामले में महाराष्ट्र 2310 और उत्तरप्रदेश 2115 के आंकड़े के साथ क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर है।

कानूनी पकड़ कमजोर-
आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013  (Criminal law Amendment Act 2013) कहता है कि रेप के मामलों की सुनवाई निश्चित समय में पूरी की जानी चाहिए लेकिन बहुत कम मामलों में ही ऐसा हो पाता है। भारतीय जेलों के में कई बड़े अपराधी और बाबा लोग बंद है, जुर्म तय है कि उन्होंने अपराध किए है लेकिन सजा के मामले में इतनी ढ़ील क्यों बरती जाती है। सिर्फ इसलिए की उनके समर्थक शांतिभंग कर देंगे जैसे गुरमीत राम रहीम के समय हुआ या फिर आसाराम के। निर्भया केस आरोपियों को फांसी की सजा तय थी लेकिन उन्हें देने में इतनी देरी क्यों की? क्या इससे अपराधियों के हौसलें बुलंद नहीं हुए क्यों बाबाओं के मामले में तारीख पर तारीख देकर सालों साल मामले खींचे चले जाते और फिर उन्हें बरी कर दिया जाता है। अगर ऐसे बड़े अपराधियों को कठोर सजा नहीं दी जाएगी तो लोगों को कानून पर भरोसा कैसे होगा। यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को जल्द से जल्द न्याय दिलाने के लिए देश में 275 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए हैं लेकिन ये कोर्ट भी महिलाओं को कम वक्त में न्याय दिलाने में नाकामयाब रहे। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2016 में देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे बलात्कार के 152165 नए-पुराने मामलों में केवल 25 का निपटारा किया जा सका, जबकि इस एक साल में 38947 नए मामले दर्ज किए गए और ये तो केवल रेप के आंकड़े हैं, बलात्कार की कोशिश, छेड़खानी,  जैसी घटनाएं इसमें शामिल भी नहीं।

दम तोड़ती सरकारी योजनाएं-
निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए एक कोष की जरूरत महसूस की गई। तब उस वक्त की यूपीए सरकार ने 2013 के बजट में निर्भया फंड की घोषणा की। वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने शुरुआती तौर पर 1000 करोड़ का आवंटन भी किया। 2014-15 और 2016-17 में एक-एक हजार करोड़ और आवंटित किए गए। ये पैसा आवंटित तो हो गया, लेकिन सरकार इसे खर्च नहीं कर पाई। गृह मंत्रालय द्वारा इस फंड के लिए आवंटित धन का मात्र एक फीसदी खर्च होने की वजह से साल 2015 में सरकार ने गृह मंत्रालय की जगह महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को निर्भया फंड के लिए नोडल एजेंसी बना दिया। निर्भया फंड के तहत पूरे देश में दुष्कर्म संबंधी शिकायतों और मुआवजे के निस्तारण के लिए 660 एकीकृत वन स्टॉप सेंटर बनने थे। जिससे पीड़िताओं को कानूनी और आर्थिक मदद भी मिले और उनकी पहचान भी छिपी रहे साथ ही सार्वजनिक स्थानों और परिवहन में सीसीटीवी कैमरे लगने थे। जिससे अपराधी की पहचान की जा सके लेकिन ऐसा कुछ नहीं ये सरकारी योजनाएं केवल दम और पीड़िता का हौसला तोड़ती ही मात्र नजर आई। दरअसल निर्भया फंड इसलिए भी असफल माना गया क्योंकि इस फंड से तीन मंत्रालय गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और महिला एवं विकास मंत्रालय जुड़े हैं। इसे लेकर भ्रम की स्थिति है कि किसे क्या करना है। हालांकि केंद्र सरकार इस फंड में धन मुहैया करा रही है, लेकिन राज्य सरकारों को यौन हिंसा संबंधी मुआवजा कब और किस चरण में देना है इसे लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।

मानवता के प्रति अपराध है पोर्नग्राफी-
भारत में, निजी तौर पर अश्लील सामग्री को डाउनलोड करना और देखना कानूनी है लेकिन  इसका उत्पादन या वितरण अवैध है। उसमें से एक है पोर्नग्राफी। आपको जानकर हैरानी होगी कि पोर्न फिल्में और बाल पोर्नग्राफी देखने में भारत सबसे आगे है। 2017 के एक सर्वे के अनुसार, 1300 मिलियन जोबी डाटा केवल एडल्ड कंटेंट डाउनलोड करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। क्या आप जानते हैं भारत में 50 करोड़ लोगों के पास इंटरनेट है। जिस पर 49.9 फीसदी लोग केवल पोर्न देखने के लिए फोन का इस्तेमाल करते हैं। वहीं 13 करोड़ बच्चों के पास फोन है। अपराध के लिए फोन के बड़ा माध्यम बनता जा रहा है। पोर्नग्राफी देखकर बलात्कार करने वाले आरोपियों की भी संख्या कम नहीं है, कम उम्र की बच्चियों के साथ की जाने वाले हैवानियत के पीछे ज्यादातर पोर्न फिल्मों का हाथ है जो खत्म होती मानवता के एक मजबूत बल के साथ हमें बर्बाद करने के लिए काफी है।

कब टूटेगा सभ्य समाज का भ्रम-
इन आंकड़ो को आप भूल सकते हैं लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में जिन चीजों से आप गुजरते हैं वो कैसे भूला पाएंगे। मेरी दोस्त सुरभी गोयल बताती है कि जब से उनकी नौकरी दिल्ली में लगी है तब से वह नौकरी से ज्यादा अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता में रहती है। वह बताती है बस हो या मेट्रो हर जगह उन्हें घूरती नजरों का सामना करना पड़ता है। एकदिन का वाकया साझा करते हुए बताती है कि एकदिन दफ्तर से निकलते वक्त थोड़ी देरी हो गई जिस वजह से उन्होंने कैब बुक की लेकिन कैब ड्राइवर की अश्लील हरकतों से परेशान होकर उन्हें बीच में ही कैब को छोड़ना पड़ा। सुरभी बताती है कि पिछले 5 सालों से वह दिल्ली में हैं लेकिन उन्हें डर हमेशा बना रहता है यहां तक उन्हें अपनी बिल्डिंग के वॉचमैन से भी डर लगता है। ये डर केवल सुरभी का नहीं है ये डर सुरभी के माता-पिता का भी। या फिर ये डर हर माता-पिता और उनकी बेटियों का है। जो फिर स्कूल, कॉलेज या ऑफिस जाती हो। सुधा (बदला नाम) जिनकी चार साल की बेटी है वह अपनी बेटी को रिश्तेदारों यहां तक की अपने पति के भरोसे भी अपनी बेटी को घर पर अकेला छोड़कर नहीं जाती। वह बताती है कि वह खुद बचपन में बलात्कार का शिकार हो चुकी है, बात भले ही पुरानी हो चली हो लेकिन उसका अहसास आज भी उनके शरीर पर है। बेटी के जन्म के बाद सुधा ने अपनी नौकरी तक छोड़ दी। सुधा बताती है कि वह अपनी बेटी की सुरक्षा के मामले में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरत सकतीं।

सुरभी और सुधा जैसी परेशानी आज हर घर की कहानी बन चुकी है। हम जिस सभ्य समाज में रह रहे हैं वहीं समाज एक भ्रम में जीने को मजबूर है। समाज का भद्दा नजरिया यह भी है कि लड़कों और लड़कियों की परवरिश में अंतर करना। इसके लिए केवल लोग जिम्मेदार नहीं है। इससे वह तंत्र भी खराब है जिसमें सिर्फ औरत को सेक्स करने का समान पाना जाता है। अंगुलियों पर गिना शुरू करेंगे तो भी आपको याद आ ही जाएगा कि आज टीवी, अखबारों, फिल्मों और सोशल मीडिया आदि पर महिलाओं की छवि किस कदर दिखाई जाती है।  कामुक विज्ञापनों में महिलाओं को ‘ खूबसूरत वस्तु’ की तरह पेश किया जाता है। जब तक यह मानसिकता नही सुधरेगी तब तक अनुकूल परिणाम सम्भव नही। फिर चाहें आप हाथों में कितनी भी मोमबत्तियां लेकर खूब ले इसका कोई फायदा नहीं होगा। सबसे निराशाजनक यह कि टेलीविजन पर सर्वाधिक देखे जाने वाले सीरियलों में महिलाओं द्वारा महिलाओं के खिलाफ साजिशों को प्रमुखता से दिखाया जा रहा है जिससे मानसिकता प्रभावित हो रही है। ऐसी ही कई घटनाएं पढ़ने में भी आती है सौतली मां ने पति का बदला बेटी से लेने के लिए उसका रेप करवा दिया या मार दिया। ये सब अपराध एक प्रगतिशील देश की मरती मानवता को उजागर करते हैं। हमारे समाज का एक तबका बलात्कार की घटनाओं पर धर्म का चोगा पहनाने से बाज नहीं आता शायद उन्हें पहले संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट पढ़ लेनी चाहिए। ‘Conflict Related Sexual Violence’ नामक इस रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई है कि आंतरिक कलह या आंतकवाद जनित युद्ध के दौरान यौन हिंसा को योजनाबद्ध तरीके से हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की प्रवृति किस तेजी से बढ़ी है। गृह युद्ध और आतंकवाद से जूझ रहे 19 देशों से जुटाए आंकड़े बताते हैं कि इन क्षेत्रों में बलात्कार की घटनाएं छिटपुट नहीं बल्कि सोची-समझी सामरिक रणनीति के तहत हो रही हैं। सामूहिक बलात्कार, महीनों तक चले उत्पीड़न और यौन दास्तां से जन्में बच्चे और बीमारियां एक नहीं कई पीढ़ियों को खत्म कर रहे हैं। इन घृणित साजिशों के पीछे की बर्बरता को हम और आप पूरी तरह महसूस भी नहीं कर सकते।

लड़ाई बहुत लंबी है-
खत्म होती इंसानियत की लड़ाई लंबी है। कब तक हम हाथों में मोमबत्ती लिए इंसाफ की मांग सड़कों पर करते रहेंगे। महिलाओं के सम्मान के लिए उनकी सुरक्षा के लिए हमारे समाज को उनके प्रति सोच बदलनी होगी। हमें ये मानना होगा कि महिलाएं किसी अपरिचित से कम परिचित के शोषण का शिकार ज्यादा होती है। ये घटना दर्शाती है कि हमारा सभ्य समाज में जीने का दावा पूरी तरह से गलत है। आदिम समाज से उपर उठने की बात बेमानी होती जा रही है। कहने को साक्षरता का स्तर बढ़ा है, साधन संपन्नता बढ़ी हैं। सुविधाओं का विस्तार हुआ है, जीवन सहज, और अधिक आसान हुआ है पर मन में दबे हैवानियत में कहीं कोई कमी दिखाई नहीं दे रही है। और ये बीमारी कानून और इंसाफ की गुहार से नहीं बल्कि अपनी गंदी सोच बदलने के बाद संभंव हो पाएगी। जब तक ये नहीं होगा ये लड़ाई ऐसे ही लंबी चलती जाएगी।

डिस्क्लेमर: पञ्चदूत पत्रिका पढ़ना चाहते हैं तो वेबसाइट (www.panchdoot.com) पर जाकर ई-कॉपी डाउनलोड करें। इसके अलावा अगर आप भी अपने लेख वेबसाइट या मैग्जीन में प्रकाशित करवाना चाहते हैं तो हमें [email protected] ईमेल करें।

ये भी पढ़ें:

रूचि के अनुसार खबरें पढ़ने के लिए यहां किल्क कीजिए

ताजा अपडेट के लिए लिए आप हमारे फेसबुकट्विटरइंस्ट्राग्राम और यूट्यूब चैनल को फॉलो कर सकते हैं