आस्था के नाम पर राजनीति या जनमानस की भावनाओं से खिलवाड़

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भारतीय राजनीति में कई दशकों से होता चला आ रहा है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनावी लाभ के लिए भोली-भाली जनता को अपना राजनीतिक मोहरा बनाने में तनिक भी संकोच नहीं करती फिर बात चाहे आस्था के नाम पर राजनीति की हो या धार्मिक भावनाओं को भड़का कर एक दूसरे समुदाय के बीच वैमनस्य की भावना को बढ़ाने कि दोनों ही परिस्थितियों में जनता भुक्तभोगी होती है। कभी-कभी यह आपसी वैमनस्य इतना बढ़ जाता है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष के लोगों की जीवन लीला को समाप्त करके ही मानता है। इस संदर्भ में हम पिछले कुछ दशकों से घटित घटनाक्रमों को देखें तो पाएंगे कि अयोध्या बाबरी मस्जिद विवाद का नाम सबसे पहले आता है जिसमें 1528 में अयोध्या में बाबर के द्वारा ऐसे स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे हिंदू मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म स्थान मानते हैं। जहां राम मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनाई गई…इस मुद्दे को लेकर 1853 मे दोनों समुदायों के बीच हिंसा हुई। इस हिंसा के बाद 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कारसेवको द्वारा मस्जिद गिराई गई।

उसी समय निकट भविष्य में चुनाव होने थे जिसमे राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे का भरपूर लाभ लेने की कोशिश की। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इतने संवेदनशील मुद्दे का राजनीतिकरण किया गया बिना यह समझे कि हमारे देश की एकता, अखण्डता एवं भाईचारा पर इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा। निसंदेह रूप से श्रीराम इस कालजई पुरातन संस्कृति के स्तंभ हैं और भव्य दिव्य श्री राम मंदिर करोड़ों भारतवासियों का सपना लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि हमारे मूल में छिपी सर्वधर्म समभाव की राह से किसी राजनीतिक पार्टी द्वारा असहिष्णुता और धार्मिक भावनाएं भड़काने मात्र से हम दूर हो जाए।इसी तरह पिछले कुछ महीनों में घटित घटना क्रमों को देखें तो हम पाएंगे कि सांप्रदायिक हिंसा के साथ-साथ जातीय हिंसा भी एक नये अवतार के रूप में मे सामने आया है और इस बात से हम बिल्कुल भी इनकार नहीं कर सकते कि इसमें भी राजनीतिक पार्टियों द्वारा छद्म रूप से राजनीतिक लाभ लेने की अवधारणा न रही हो इसको हम इस बात से समझ सकते हैं कि बीते 1 जनवरी को पुणे में दलित समुदाय द्वारा भीमा कोरेगांव की लड़ाई की 200 वी सालगिरह मना रहे थे इसी दौरान दो गुटों के बीच में टकराव में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई और कुछ लोग घायल भी हो गए जिसके बाद मुंबई समेत राज्य के कई इलाकों में तनाव फैल गया…इसी को लेकर 3 जनवरी को दलित समुदायों द्वारा राज्य बंद का आह्वान किया गया।

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महाराष्ट्र की इस जातीय हिंसा की बात करें तो यह कुछ लोगों द्वारा सार्वजनिक विमर्श में दलित बनाम शेष हिंदू समाज की झूठी अवधारणा को बढ़ाने की वजह से फैली और देखते ही देखते एक उग्र भीड़ के रूप में परिवर्तित हो गई जिसकी वजह से हमारे देश की काफी क्षति हुई…मैं वोट बैंक की राजनीति करने वाले उन सभी राजनीतिक दलों से पूछना चाहता हूं कि क्या जाति धर्म पंथ संप्रदाय के आधार पर समाज को बांट कर आप देश का भला कर पाएंगे…?

जिस देश की संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम “सारा विश्व एक परिवार है” कि ऐसी सर्व व्यापी अवधारणा रही हो जिस देश में पिछले 10000 वर्षों से लेकर अब तक किसी अन्य देश पर कब्जे की नियत से कभी आक्रमण न किया हो। जहां रहीम दास जी जैसे संत रहे हैं जिन्होंने जन्म तो एक मुस्लिम परिवार में लिया लेकिन जीवन भर हिंदू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहें। जिनकी काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथन को उदाहरण के लिए चुना जो भारतीय संस्कृति की अद्भूत, अविस्मरणीय झलक को पेस करती हैं।

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उनकी मानव के प्रति प्रेम को दर्शाने वाले दोनों में प्रसिद्ध “रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय टूटे पे फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए” जैसे दोहे आज भी लोगों को मानवता का पाठ पढ़ा रहे हैं। इसी प्रकार बीते 2 अप्रैल को दलित समुदाय द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से बुलाए गए भारत बंद में हिंसा हुई इससे लोगों को काफ़ी समस्याओं का सामना करना पड़ा। भारत में दलित आंदोलन और विरोध प्रदर्शन का लंबा सिलसिला रहा है लेकिन इतने व्यापक स्तर के बावजूद उनका हिंसक इतिहास नहीं रहा है। दलित संगठनों द्वारा भारत बंद की अराजकता इस बात को बल देती है की साजिश के तहत हिंसा को भड़काया गया वह भी तब जब आखिरी तौर पर इसमें विभिन्न राजनीतिक दल कूद पड़े। जिसमें एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भारत बंद बुलाने के पीछे यह कारण था कि सरकार एससी/एसटी अधिनियम को बदलकर निष्प्रभावी बना रही है जिससे दलितों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं भीड़ को भड़काने वाले को इस बात की कोई परवाह नहीं की इसका परिणाम क्या होगा चाहे पटेल आंदोलन हो, जाट आंदोलन हो, मराठा आंदोलन हो या फिर दलित प्रदर्शन इन सभी में एक समानता जरूरी है कि यह जनता की भावनाओं को उफान देकर देश को जातिया, मजहबी आधार पर बांट कर किसी भी प्रकार से लाभ लिया जाय।

ऐसे किसी भी साजिश के तहत जनता को इसका निर्णय करना है कि कुछ असामाजिक तत्वों के द्वारा सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे भ्रामक दुष्प्रचार का शिकार न स्वयं बने और न किसी को बनने दें। इसी प्रकार कासगंज में गणतंत्र दिवस पर सामुदायिक हिंसा कथित तौर पर इसलिए भड़की क्योंकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता मोटरसाइकिल से वंदे मातरम के नारे लगाते हुए एक मुस्लिम बहुल इलाके से गुजर रहे थे। वहां के लोगों को इस यात्रा में शामिल लोगों को देख कर यह रास नहीं आया जिस पर उन्होंने निरपराधों पर शस्त्रों से वार किया और भीड़ में शामिल लोग इसका शिकार हो गए।

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इस कड़ी में आगे भी ऐसी घटनाक्रमों को देखें तो राजस्थान के अलवर जिले में अकबर खान को जो गौ तस्करी के आरोप में हिंसक भीड़ द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। ऐसे घटनाक्रमों की बीच हमारा उद्देश्य भीड़ के हिंसक चरित्रों को खत्म करना होना चाहिए दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है बल्कि इस पर राजनीति हो रही है जिससे स्थिति और भी बिगड़ रही है। यदि इतने पर भी राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी लाभ लेने के लिए समाज को बांटने का काम किया जाए तो इसमे कोई संदेह नहीं कि आगे आने वाले समय में इसके परिणाम घातक हो सकते हैं।

आकाश तिवारी

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