दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड का 40 फीसद एमिशन कोयले के कारण होता है जबकि बाकी के लिए तेल और गैस जिम्मेदार हैं। इस तथ्य के बावजूद, एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, दुबई में COP28 प्रेसीडेंसी ने ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) पर एक दस्तावेज़ जारी किया है। इस दस्तावेज़ में जहां कोयले के प्रयोग को कम करने की पैरवी की गयी है, वहीं तेल और गैस के प्रयोग को कम करने के मामले में तुलनात्मक रूप से कुछ उदार रुख दिखाया गया है।
इसी बात को ले कर वैश्विक समुदाय में नाराजगी जताई जा रही है। ऐसा भी माना जा रहा है कि आगे इस संदर्भ में विकासशील देशों, विशेषकर भारत, द्वारा इस मुद्दे पर COP 28 को कड़े विरोध का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि भारत कि ऊर्जा व्यवस्था में कोयले की खास भूमिका है।
विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्थाएँ जीवाश्म ईंधन के उपयोग को धीरे-धीरे बंद करने के विचार से सहमत नहीं हैं, खासकर इसलिए क्योंकि फिलहाल यह मसौदा इस बात पर विचार नहीं करता है कि विभिन्न देशों की अलग-अलग जिम्मेदारियां हैं। उनका मानना है कि अमीर देशों को इस मुद्दे के समाधान के लिए और अधिक प्रयास करना चाहिए।
विकासशील देशों ने यह भी उल्लेख किया कि वे जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने का समर्थन नहीं करेंगे जब तक कि यह इस विचार के साथ संरेखित न हो कि विभिन्न देशों की अलग-अलग जिम्मेदारियां हैं, और जब तक कि इस परिवर्तन को करने के लिए पर्याप्त धन न हो। लेकिन ऐसा नहीं है कि तेल और गैस पर निर्भर विकसित देश इस उदार रवैये से खुश हो गए हों। उनकी अलग परेशानियाँ हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे विभिन्न समूह और विकसित देश संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में चर्चा से फॉसिल फ्यूल के उपयोग को सीधे तौर पर कम करने की योजना को मसौदे से बाहर रखने से असहमत हैं। उनका मानना है कि यह स्वीकार्य नहीं है क्योंकि इससे पेरिस समझौते में सहमति के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल हो सकता है।
आगे बढ्ने से पहले पहले समझ लेना चाहिए कि ग्लोबल स्टॉकटेक होता क्या है। दरअसल यह 2015 के पेरिस समझौते में स्थापित एक 5-वार्षिक समीक्षा है जिसमें जलवायु कार्रवाई पर शमन, अनुकूलन और वित्त के संदर्भ में प्रगति की निगरानी और आकलन, बिना देशों की व्यक्तिगत प्रगति का मूल्यांकन किए, किया जाता है।
ताज़ा जीएसटी दस्तावेज़ का उनतीसवां पैराग्राफ ग्रीनहाउस गैस एमिशन में पर्याप्त, तेज और निरंतर कटौती की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए सभी पक्षों से कार्रवाई करने का आग्रह करता है। क्योंकि आगे दस्तावेज़ में बात की गयी है कोयले के प्रयोग को तेजी और चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की और साथ ही कोयला बिजली उत्पादन पर तमाम प्रतिबंध लगाने की, इसलिए विकासशील दुनिया से आने वाले आलोचक इस भाषा को “चयनात्मक” और “भेदभावपूर्ण” बताते हैं। बात जब दूसरे फोस्सिल फ्यूल की होती है तब यहाँ देशों से “विज्ञान को ध्यान में रखते हुए, साल 2050 या उसेक आस पास नेट ज़ीरो हासिल करने के लिए उचित, व्यवस्थित और न्यायसंगत तरीके से खपत और उत्पादन दोनों को कम करने का आग्रह किया गया है।”
विशेष रूप से, इस दस्तावेज़ में फोस्सिल फ्यूल के लिए “फ़ेज़ आउट” या “फ़ेज़ डाउन”, दोनों ही शब्दों से परहेज किया गया है। और यह बात अब एक विवादास्पद मुद्दा है। अपनी प्रतिक्रिया देते हुए, सीईईडबल्यू के वैभव चतुर्वेदी इस मामले में विकसित और विकासशील दुनिया के बीच दिखाए गए भेदभाव पर चिंता व्यक्त करते हैं। वो इस बात पर जोर देते हैं कि ये कहना कि दूसरे फॉसिल फ्यूल को बस “कम” करने की आवश्यकता है, लेकिन कोयले के प्रयोग को “तेजी से” और चरणबद्ध तरीके से कम किया जाना चाहिए, यह बात सरासर भेदभावपूर्ण है।
आगे, क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल में वैश्विक राजनीतिक रणनीति के प्रमुख हरजीत सिंह कहते हैं कि इसमें हैरानी कि बात नहीं अगर विकासशील देश इस दस्तावेज़ का आगे विरोध करते हैं तो। हरजीत आगे दस्तावेज़ के पिछले संस्करणों से पीछे हटने के लिए उसकी आलोचना करते हैं, विशेष रूप से फोस्सिल फ्यूल को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने पर स्पष्ट भाषा की अनुपस्थिति के मामले में। वहीं क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला, कोयले की तुलना में तेल और गैस के प्रयोग में कमी की तात्कालिकता पर जोर देते हुए इस दस्तावेज़ को सभी पक्षों के लिए सुविधाजनक मानती हैं। आरती इस दस्तावेज़ को विज्ञान-सम्मत कम और कूटनीति से प्रेरित ज़्यादा मानती हैं। साथ ही वो इसमें निर्णायकता की कमी भी महसूस करती हैं।
भारतीय COP28 प्रतिनिधिमंडल के सूत्रों की मानें तो भारत के लिए अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करना सर्वोपरि है और इसके साथ भारत राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हुए एमिशन को कम करने के लिए प्रतिबद्ध है। गतिरोध के मूल में एनर्जी ट्रांज़िशन के प्रबंधन की चुनौती है। पावर शिफ्ट अफ्रीका के निदेशक, मोहम्मद अडो, इस ट्रांज़िशन में निष्पक्षता के महत्व पर जोर देते हैं, ऐतिहासिक जिम्मेदारी के आधार पर चरणबद्ध दृष्टिकोण का आह्वान करते हैं। वो कहते हैं कि इस मामले में नेतृत्व अमीर देशों को करना होगा।
उनके बाद मध्यम आय वाले देश और फिर गरीब देश आते हैं। कांगो और कनाडा जैसे देशों की अलग अलग परिस्थितियों पर ज़ोर देते हुए एडो कहते हैं कि दोनों देशों से फोस्सिल फ्यूल को एक जैसी दर से चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की अपेक्षा करना कटाई तार्किक नहीं। यह बात इस ट्रांज़िशन के निष्पक्ष और तार्किक होने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है।
डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।