इन बदलावों की वजह से बर्बाद हुई हमारी लोक संस्कृति

हिंदी सिनेमा के नए दौर में लंचबॉक्स, पीके, पिंक, हिंदी मीडियम, टॉयलेट एक प्रेम कथा, न्यूटन, शाहिद, मशान आदि ऐसी कई फिल्में है जिन्होंने प्रेरणा देने का काम किया लेकिन क्या दर्शक उस फिल्म से या किसी किरदार से खुद को जुड़ पाता है नहीं।

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सिनेमा का नाम आते हृदय मचल उठता है एक अद्भुत और चकाचौंध की मनोहारी दुनिया , लोगों को अपनी जादू भरी उंगलियों पे नचाने वाली ,अपने मायाजाल से भरमाने वाली नन्हे-मुन्ने से लेकर बाल , युवा  व वृद्ध सभी को अपना शिकार बनाने वाली एक ऐसी  दुनिया जिसमें  चुम्बकीय  आकर्षण है। इन सबसे पहले सिनेमा हमारे समाज का आईना है। जो इन दिनों धुंधा हो चुका है। सिनेमा एक ऐसी दुनिया जहां जानें का एकबार ख्याल सबका आता है। पर वो संसार छलावे जैसा होता है और कुछ ही उस छलावे को यथार्थ में ढाल पाते हैं। सिनेमाई  संसार  में बहुत कुछ समाया हुआ है। सिनेमा ने चलचित्रों द्वारा  समाज को मनोरंजन दिया वहीं इसने अनेक रोजगार भी पैदा किए है। भारतीय सिनेमा जगत में अनगिनत हस्तियों ने अपना भाग्य आजमाया और अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। कला के इस क्षेत्र में लेखन ,संगीत ,नृत्य, निर्देशन तथा तकनीकी में कईं चेहरे चाँद बन कर चमके। सिनेमा ने अपनी अद्भुत क्षमताओं से मनोरंजन दिया है , वो उसका अविस्मरणीय योगदान ही है । सिनेमा द्वारा रचित  चलचित्र युवाओं  के नेत्रों को अत्यधिक चुंधियाती हैं और उनके कच्ची  मनोस्थिति को प्रभावित करती है । नायक हो या खलनायक जिसका अभिनय उनको प्रभावित करता है वो उसी में स्वयं को  ढालने का प्रयत्न करते हैं ।यहीं से सामाजिक समस्याओं का जन्म आरम्भ होता है । अपरिपक्व  मनोमस्तिष्क पर जब यह गहरा प्रभाव पड़ता है तो क्या सही है और क्या गलत ? निर्णय लेने में समर्थ नहीं हो पाते। जब नया-नया चलचित्रों का चलन हुआ तो वो केवल मनोरंजन का  ही साधन नहीं थे बल्कि वो सामाजिक कुरीतियों के प्रति समाज को जागरूक करने का प्रयास करते थे। नकारात्मक नहीं  सकारात्मक  प्रभाव डालते थे। स्वतंत्रता के लिए  जुनून पैदा करने का कार्य सिनेमा के दिग्गजों ने ही किया था । स्वतंत्रता की अग्नि जलाने का साहस युवाओं में भरने वाला सिनेमा ही था। तब सिनेमा हृदय में देश भक्ति की भावनाओं को जगाता था। जोश भरे गीत मनोरंजन के  साथ  देश पर मर मिटने की भावनाओं को बल देते थे। हर अमीर गरीब के स्वप्नों को  दिखाने और उन्हें सत्य करने की राहें दिखाने का कार्य  इसी सिनेमा ने किया था लेकिन. ….स्वतंत्रता पाने  के  पश्चात  सिनेमा ने भी  अपना रंगरूप परिवर्तित करना आरम्भ कर दिया ।

शताब्दी परिवर्तन हुआ और एक नया सिनेमा समक्ष आया। धीरे धीरे यह एक ऐसा  उद्योग बन गया जिस का उद्देश्य केवल धन कमाना  बन गया ।  संस्कृति के संस्कारों को तज एक नये समाज को रचने की होड़ मची । अश्लीलता, नग्नता, धन लोलुपता, व आधुनिकीकरण के लिए पश्चिमी संस्कृति का लाना सिनेमा  को खलनायक की श्रेणी में ले आया। अब सिनेमा ऐसे चलचित्रों का निर्माण करने लगा जो समाज के हित के ना थे । समाज की रीतियां जो उसे भ्रष्ट  होने से बचाती थी , उन्हें रूढ़िवादी कह कर बहिष्कार करने का  कार्य किया । सामाजिक नियम जो बच्चों में  मर्यादित संस्कार भरते थे उन्हें ढकोसलों का नाम दे कर विमुख कर दिया।

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कपूर परिवार ने अपनी मर्यादा  बनाए रखी पर वो भी इस  अंधी दौड़  में  पीछे नहीं रहा उसने भी  फिल्म हिट के सब फार्मूले अपना कर सर्व प्रथम अश्लीलता परोसने का कार्य किया  और फिर यह इतनी बढ़ी कि फिर बढ़ती चली गई । अब होड़ लगी बोल्डनेस के नाम पर अश्लीलता के  स्तर को बढ़ावा देने की तथा इस में नित नये प्रयास कर नई से नई कहानियां बना कर इसे बढ़ावा दिया जा रहा। सिनेमाई संस्कृति को गिराने के पीछे हमारा आधुनिक होना। मुद्दों और कलाओं पर तैयार होने वाला सिनेमा अब मात्र अश्लील बनकर रह गया है। फिल्मों में अब लोकगीत, लोककलाएं गांव आदि कहां देखने को मिलते। हम कैसे बताएंगे अपनी पीढ़ी को ये हमारे फलाने गांव की फलानी संस्कृति या बोली है। सिनेमा के आधुनिकरण ने हमसे हमारी पहचान छीन ली है। पिछले दिनों लता मंगेशकर की एक खबर खूब चर्चा में रही जिसमें उन्होंने कहा कि सिनेमा जगत की रचनात्मकता अब मर चुकी है। यहां केवल पुराने कामों में मनमर्जी का फेरबदल कर जनता के सामने परोसा जा रहा। पुराने कामों को रीमिक्स बनाकर अपना नाम देना गलत है। इसबात से आप भी सहमत होंगे कि आज सिनेमा में साथ बैठकर देखने लायक कुछ नहीं बचा। सिनेमाई संस्कृति ने हमारी भारतीय संस्कृति को अंदर तक चोट पहुंचाई है। हालांकि मनोरंजन का एक माध्यम रंगमंच और लघु फिल्में आज भी सामाजिक मुद्दों को जीवंत रखें हुए है।

सिनेमा का असर फैशन जगत पर भी खूब देखने को मिला है। फैशन के नाम पर कपड़े अब तन पर कम होते जा रहे हैं। शरीर पर से कम होते कपड़े आपकी विचारधारा का एक सबसे बड़ा परिणाम है। बच्चों में मात-पिता का आदर कम हो रहा है क्योंकि हर बच्चा सुख सुविधाओं  को पाना चाहता है और वो गलत रास्ते पर  भटक जाता है । समाज में अपराधियों, भ्रष्ट लोगों की जीवनी पर जब चलचित्र बनाये जाते हैं तो युवा पीढ़ी भ्रमित हो कर उन का अनुसरण करते हैं। हमने कभी  रंगदारी ,खोखा व ड्रग्स का नाम चलचित्रों में  सुना था आज तो यह महामारी की हर शहर में तरह छाए हुए हैं । जो कार्य  वो समाज के उत्थान के लिए करने चला था वो ही भटक कर समाज के पतन का कारण बन गया। नारी के सशक्तिकरण के लिए नहीं उसे एक  बाजारू वस्तु बनाकर उस के शारीरिक सौन्दर्य को  अश्लील विज्ञापनों में  सजा कर धन कमाने  का  साधन बना दिया है।

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वेश्याओं के सिनेमा में आने से समाज और भी भ्रमित हुआ। छोटी-छोटी बच्चियों भी इस गन्दे पेशे को एक सिनेमा की सीढ़ी मान कर अपनाने को प्रेरित हो रही हैं । कभी किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि सभ्य समाज इस स्तर पर भी  गिर सकता है । हर एक देश की अपनी संस्कृति और मर्यादा होती है , उसे एक तरह मिटाने का कार्य कर रहा है यह खलनायक । आज सिनेमा बहुत विभिन्न किस्म की मनोस्थिति के साथ व्यवहार करता है। जिसको शब्दों के माध्यम से जितना बंया किया जाता है सब अपनी-अपनी जगह कर रहे हैं लेकिन अभी भी जो हम महसूस कर रहे और सीख रहे है वो अब भी समाज को बताना बाकी है। लिव इन रिलेशनशिप  व समलैंगिकता  जैसी सोच के समर्थन  में खड़े होना बताता है कि वो देश को कहां ले जाना चाहता है। शत्रु देशों से कलाकारों को ला कर उनको रोजगार देकर फिर उनकी गलत टिप्पणियों के साथ खड़े होना भी उसके खलनायक होने की पुष्टि करता है। राजनीतिक दलों के साथ अपने स्वार्थवश गलत राजनीतिक लोगों के समर्थन में खड़े होना भी और देश हित से विमुख हो कर अनाप – शनाप बयानबाजी  भी उसकी खलनायक होने का समर्थन  करती है ।

अन्त में मैं  यही कहना चाहूंगी कि सिनेमा को अपने देश व समाज  हित के लिए अत्यधिक संवेदनशील हो कर फिल्म निर्माण करना चाहिए ताकि देश में, अपराधी, चोर लुटेरे , बलात्कारी, कातिल व देशद्रोहियों को अपनी प्रेरणा मान कर समाज की मर्यादा को भंग न करें । वो देश की भावी पीढ़ी में देश प्रेम, अहिंसा, समाजसेवी व अनेक गुणों से सुशोभित करने का  कार्य करें । भेदभावपूर्ण विचारों से बच कर रहे । देश में होनेवाली गतिविधियों पर  जिन फिल्मों का निर्माण हो वो ऐसे किया जाए कि जन में सकारात्मक सोच और ऊर्जा भर पाएं । इसके साथ ही हमारी भारतीय संस्कृति जो आज की पीढ़ी को बूढ़ी लगती है उनकी आजादी बाधा लगती उसबारें में भी समझाया जाए ताकि एक अच्छा और दूरगामी रास्ता भावी पीढ़ी के तैयार हो सके वरना वो दिन दूर नहीं जब सिनेमाई संस्कृति हमारी भारतीय संस्कृति को अपनी आधुनिक रचनात्मकता से बर्बाद कर देगी।

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प्रेरणादायक लेकिन जुड़ाव की कमी-
हिंदी सिनेमा के नए दौर में लंचबॉक्स, पीके, पिंक, हिंदी मीडियम, टॉयलेट एक प्रेम कथा, न्यूटन, शाहिद, मशान आदि ऐसी कई फिल्में है जिन्होंने प्रेरणा देने का काम किया लेकिन क्या दर्शक उस फिल्म से या किसी किरदार से खुद को जुड़ पाता है नहीं। हिंदी सिनेमा में बेहतर काम दर्शकों तक पहुंचाया जा रहा लेकिन उसमें भी या तो जुड़ाव की कमी देखती है या फिर कहानी जितने प्रभावपूर्ण ट्रेलर में लगती है उतनी पर्दे पर नजर नहीं आती।

भाषा और बोली की नकल-
फिलहाल पुरानी फिल्में जहन से बाहर है लेकिन आपको समझाने के लिए ये ही काफी है कि हाल में मराठी फिल्म सैराट का हिंदी रीमेक धड़क के रूप में हमारे सामने आई थी। जिसमें राजस्थानी भाषा की जमकर नकल की गई जो साफतौर से पर्दे पर नजर आ रही थी। ऐसी ही शाहिद कपूर की फिल्म बत्ती गुल मीटर चालू का ट्रेलर देखा जिसमें हिमाचल प्रदेश की स्थानीय बोली का कही-कही इस्तेमाल किया जिसका अगर मतलब निकाला जाए तो वह संवाद के अनुसार उचित नहीं बैठता। इन सब बातों का जिक्र करने का मतलब केवल इतना है कि सिनेमा में भारतीय संस्कृति को थोपकर क्यों दिखाया जा रहा है। यहां मुझे निर्माता-निर्देशक की कमी नहीं ब्लकि पटकथा लेखक की कमी नजर आती है जो इसतरह की कहानी बिना किसी खोजखबर किए बस लिखें जा रहा। अगर ऐसा ही चलता रहा तो हम आधे हिग्लिंश युग में आ चुके हैं और जो बचा है उसको भी जल्द पूरा कर लेंगे।

छवि सुधारक सिनेमा-
सिनेमा हमारा आईना है ये बात सब जानते हैं और अब फिल्म इंडस्ट्री वाले इसी कथन को आपके सामने अपनी छवि सुधारने के रूप में कर रहे हैं। हाल ही में आई निर्देशक राजकुमार हिरानी की फिल्म संजू जोकि संजय दत्त के जीवन पर आधारित है। इस फिल्म के केवल दो भाग एक संजू यानी संजय दत्त खुद और दूसरा मीडिया। संजू फिल्म दर्शकों में ये बताने की कोशिश करती है अगर वह दोषी करार दिए गए तो केवल मीडिया के वजह से उनकी स्वंय की इसमें कोई गलती नहीं है। बल्कि इन सब बातों से दूर फिल्म देखने के बाद लगा ये केवल छवि सुधारक कहानी है जो दर्शकों में संजय दत्त के प्रति फिर से सलमान खान के भांति दया जताने के लिए दर्शकों के बीच लाई गई, ताकि उनके साथ भी फैंस की वहीं पुरानी भावनाएं वापस से जीवंत हो जो पहली थी। जिससे ठप पर चुका उनका फिल्मी करियर बेहतर बन सकें। इस फिल्म के पीछे दूसरा कारण 100 करोड़ का सिनेमा भी शामिल हो सकता है। दरअसल, ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आज निर्माता फिल्म की कहानी पर काम करने से ज्यादा उसकी कमाई पर ध्यान देता, तो कहना गलत नहीं होगा संजय दत्त पर कोई निर्माता तभी पैसा लगाएगा जब उसे लगेगा कि इस एक्टर से उसे बड़ा मुनाफा हो सकता है। सिनेमा केवल अब व्यापार बन चुका जिसके कारण भारतीय संस्कृति हिन्दी फिल्मों से कटती जा रही है।

 शशि इन्द्रजीत

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