किसानों के मसीहा कहे जाने वाले स्व. चौधरी चरण सिंह (chaudhary charan singh) देश के पांचवे प्रधानमंत्री थे। देश में जब भी किसानों की बात होती है तो चौधरी चरण सिंह चर्चा में आ ही जाते हैं। 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक प्रधानमंत्री के पद पर रहे। उनका कार्यकाल केवल साढ़े पांच महीने तक चला। उनका देहांत 84 साल की उम्र में 29 मई 1987 को हुआ था।
चरण सिंह का जन्म 1902 में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के नूरपुर में एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने 1923 में विज्ञान से स्नातक की एवं 1925 में आगरा विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। कानून में प्रशिक्षित चरण ने गाजियाबाद से अपने पेशे की शुरुआत की। वे 1929 में मेरठ आ गये और बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए।
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चौधरी चरण सिंह 1937 में पहली बार विधायक बनें
चरण सिंह सबसे पहले 1937 में छपरौली से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए एवं 1946, 1952, 1962 एवं 1967 में विधानसभा में अपने निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। वे 1946 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत की सरकार में संसदीय सचिव बने और राजस्व, चिकित्सा एवं लोक स्वास्थ्य, न्याय, सूचना इत्यादि विभिन्न विभागों में कार्य किया। जून 1951 में उन्हें राज्य के कैबिनेट मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया एवं न्याय तथा सूचना विभागों का प्रभार दिया गया। बाद में 1952 में वे डॉ. सम्पूर्णानन्द के मंत्रिमंडल में राजस्व एवं कृषि मंत्री बने।
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अप्रैल 1959 में जब उन्होंने पद से इस्तीफा दिया, उस समय उन्होंने राजस्व एवं परिवहन विभाग का प्रभार संभाला हुआ था। सी.बी. गुप्ता के मंत्रालय में वे गृह एवं कृषि मंत्री (1960) थे। सुचेता कृपलानी के मंत्रालय में वे कृषि एवं वन मंत्री (1962-63) रहे। उन्होंने 1965 में कृषि विभाग छोड़ दिया एवं 1966 में स्थानीय स्वशासन विभाग का प्रभार संभाल लिया।
उनके जमाने में अजगर फॉर्मूला काफी चर्चा में था?
चौधरी चरण सिंह ने अपने वक्त में कांग्रेस के कद्दावर नेताओं को धूल चटाने के लिए अजगर फॉर्मूला दिया था। इस फॉर्मूले का अर्थ जातियों से था। उन्होंने अहीर जाट, गुर्जर और राजपूत के मिल जाने को अजगर का नाम दिया था। चौधरी चरण सिंह का ये फॉर्मूला पश्चिम यूपी ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में सफल रहा था।
किन कामों के कारण चौधरी चरण सिंह को मिला सम्मान
- उत्तर प्रदेश के सीएम थे पंडित गोविंद बल्लभ पंत। किसानों के प्रति उनके काम को देखते हुए उन्हें पंडित पंत ने कई जिम्मेदारियां सौंपी। उसी में से एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी-जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, जिसे चौधरी साहब ने बखूबी अंजाम दिया। एक जुलाई 1952 को उत्तर प्रदेश ने जमींदारी प्रथा को उखाड़ फेंका। भूमि संरक्षण कानून साल 1954 में पारित हुआ। लाखों की संख्या में किसान रातोंरात जमीन के मलिक हो गए। कृषि में तरह-तरह की छूट, आर्थिक मदद के तरीके भी उन्हीं की देन हैं। भारत सरकार में पहुंचे तो किसानों को समर्थन देने वाले नाबार्ड की स्थापना की।
- जमींदारी उन्मूलन कानून पास होने के बाद 1952 में उत्तर प्रदेश के 27 हजार पटवारी आंदोलन करने लगे। दबाव बनाने के लिए पटवारियों ने सामूहिक इस्तीफा दे दिया। उन्हें लगता था कि सरकार डर जाएगी पर ऐसा हुआ नहीं। चौधरी चरण सिंह ने सभी का इस्तीफा स्वीकार किया और नए पटवारियों की नियुक्तियां हुईं, जिसमें चौधरी चरण सिंह के प्रयास से ही 18 फीसदी हरिजनों को भी इस पद के लिए चुना गया।
- जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। कभी कांग्रेस का अहम हिस्सा रहे चौधरी चरण सिंह ने उनकी खिलाफत कर दी।नतीजा, चौधरी चरण सिंह को जेल जाना पड़ा. हालांकि, आपातकाल के बाद देश में हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी को हार का मुंह देखना पड़ा और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी दलों ने सरकार बनाई। जनता पार्टी की अगुवाई में बनी सरकार के मुखिया थे मोरारजी देसाई, जिन्होंने किसानों के नेता चौधरी चरण सिंह को अपनी सरकार में उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री का पद सौंपा। मोरारजी देसाई की सरकार ज्यादा वक्त चली नहीं।
- मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के बाद साल 1979 में कांग्रेस यू के समर्थन से चौधरी चरण सिंह पीएम बन गए लेकिन सरकार चलाने के लिए जो जरूरी ताकत चाहिए थी, उनके पास नहीं थी। वे चाहते तो इंदिरा गांधी का समर्थन लेकर अपनी सरकार बचा सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। कहा जाता है कि चौधरी चरण सिंह की इस जिद के पीछे एक खास वजह थी। वह यह कि इंदिरा जी चाहती थीं कि आपातकाल को लेकर उनके और कांग्रेस नेताओं के खिलाफ जो केस दर्ज किए गए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए। बस, यही वह शर्त थी, जो चौधरी चरण सिंह को मंजूर नहीं थी और उन्होंने 21 अगस्त 1979 को तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपना इस्तीफा सौंप दिया। वह सिर्फ 23 दिनों तक देश के प्रधानमंत्री रहे और इस दौरान संसद का कोई सत्र नहीं होने के कारण उन्हें संसद का सामना करने का मौका भी नहीं मिला।
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