स्वच्छ भारत अभियान एक ‘शौचालय’ कथा

इस अभियान को पूरा करने के लिए करीब 62,009 करोड़ का बजट तय किया गया। जिसका आधे से ज्यादा हिस्सा तो विज्ञापन में ही खर्च हो गया और ले देकर जो बचा वो शौचालय बनाने में लेकिन क्या इसे स्वच्छता बढ़ी?

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स्वच्छता के दिन हकीकत है या ख्वाब? शुरूआत इसी सवाल से हो तो बेहतर है क्योंकि बीते माह अक्टूबर में स्वच्छ भारत अभियान को पूरे तीन साल हो गए। अब आपके भी जहन में सवाल उठता होगा कितना स्वच्छ हुआ भारत? कहा तो यही गया था कि जब 2 अक्तूबर, 2019 को महात्मा गाँधी का 150वां जन्म दिवस मनाया जाये, तब तक स्वच्छ भारत अभियान अपना लक्ष्य हासिल कर ले। राष्ट्रपिता को राष्ट्र की ओर से यही सबसे अच्छी और सच्ची श्रृद्धांजलि होगी। इस अभियान के तहत शौचालयों का निर्माण करवाना, ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना, सड़कों की सफाई करना और देश का नेतृत्व करने के लिए देश के बुनियादी ढांचे को बदलना शामिल है। लेकिन इस अभियान की तस्वीर तो कुछ और ही बंया कर रही है। इस अभियान को पूरा करने के लिए करीब 62,009 करोड़ का बजट तय किया गया। जिसका आधे से ज्यादा हिस्सा तो विज्ञापन में ही खर्च हो गया और ले देकर जो बचा वो शौचालय बनाने में लेकिन क्या इसे स्वच्छता बढ़ी? या फिर ये समझ लिया जाए घर-घर शौचालय बनाना ही सरकार के लिए असली स्वच्छता थी। स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के तहत अब तक 2,57,259 गांवों के खुले में शौच से मुक्त होने का दावा किया गया है। ये तय टारगेट का महज़ 43% है। हालांकि सरकारी वेबसाइट के मुताबिक इनमें से अभी तक सिर्फ 1,58,957 गांवों का ही आंकड़ा प्रमाणित हो पाया है। वेबसाइट के मुताबिक स्वच्छ भारत मिशन (शहरी) में घरों के लिए 1.04 करोड़ शौचालय और 5.08 लाख सामुदायिक शौचालय बनाने का टारगेट है। घरों के लिए 30,74,229 शौचालय और 2,26,274 सामुदायिक शौचालय बनाए गए हैं। ये सभी आंकड़े अभी किसी स्वतंत्र या ग़ैर-सरकारी संस्था से प्रमाणित नहीं हैं। अप्रैल 2017 की रिपोर्ट पर नजर डाले तो, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम और केरल के सभी गाँव खुले में शौच से मुक्त किए जा चुके हैं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना अभी 50 फीसदी के आस-पास पहुंचे हैं। वहीं बिहार, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर अन्य राज्यों से काफी पीछे हैं। मात्र 29.01 प्रतिशत के आंकड़े के साथ बिहार ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय निर्माण में सबसे फिसड्डी राज्य साबित हुआ है। शौचालय निर्माण की ये प्रगति काफी सराहनीय साबित हो सकती है लेकिन सवाल बस ये ही है कि सरकार के लिए स्वच्छता का मतलब केवल शौचालय बनाना है बाकि तो झाड़ू पकड़कर चेहरे पर मास्क लगाकर तस्वीरें खींचवाना मात्र स्वच्छता का दिखावा करना है। देश के किसी भी कोने में चले जाइए आपका पहला स्वागत कचरे से ही होगा। फिर चाहें कचरा सड़क पर फैला हो, या दिल्ली का कूड़े का पहाड़ हो, जो आने वाले विदेशी सैलानियों के कैमरे में कैद होने के लिए हर साल अपने कद में विस्तार पर विस्तार किए जा रहा है। अगर याद हो तो बीते कुछ महीनों पहले ही इस कूड़े के पहाड़ में 2 जोरदार धमाके हुए जिससे एक-दो लोगों की जान और कुछ के घायल होने की खबरें आई लेकिन इस घटना से केंद्र और राज्य सरकार को क्या लेना देना। देश के यूपी, बिहार और झारखड़ कुछ ऐसे राज्य जो खुले में शौच को लेकर काफी सुर्खियों में रहे।  ‘हल्ला बोल, लुंगी खोल’ जैसे कैंपेन के जरिए प्रशासन ने लोगों को काफी परेशान किया। इस तरह की जब घटनाएं सामने आती है तो सवाल सरकार पर ही उठते हैं। इसमें कोई शक नहीं है स्वच्छ भारत अभियान देश के लिए कई तरह से लाभकारी होगा। इसके साथ समस्या यह है कि सरकार इस योजना के कार्यान्वयन पर कम जबकि इसके प्रचार और विज्ञापन पर ज्यादा ध्यान दे रही है। दिसंबर 2015 की सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने बताया कि इस अभियान के तहत ऐसे लोगों को लाभ दिया जा रहा है जो वास्तव में हैं ही नहीं। साथ ही इस अभियान में जवाबदेही का भी अभाव काफी देखा गया है। इंडिया टुडे की एक पड़ताल में निकलकर सामने आया कि राजस्थान के कई गांवों में लोगों ने शौचालय के नाम पर सरकार से धनराशि भी ले ली और खेतों में शौच जाना भी नहीं छोड़ा। वहीं दूसरी तरफ सार्वजनिक शौचालय इस्तेमाल करने वाले लोगों ने बताया सरकार ने शौचालय तो ढेरों बना दिए लेकिन वहां की सफाई और अन्य सुविधाओं पर गौर नहीं किया। कई सार्वजनिक शौचालय ऐसे है जहां के गड्ढ़े काफी छोटे करवाए गए और अब है वो भर गए तो खाली नहीं करवाएं जा रहे। ऐसे में बीमारियों को खुले आम निमंत्रण दिया जा रहा है। सरकारी विभागों ने सफाई जमीन पर नहीं बल्कि तिजोरी से ज्यादा की गई। तभी हाल ही में सरकार ने सभी कंपनियों को चिट्ठी लिखकर कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिल्टी यानी सीएसआर फंड का 7 फीसदी हिस्सा स्वच्छ भारत कोष में जमा करने का सुझाव दिया है। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि किसी भी राज्य को अभी तक तय बजट का आधा भी नहीं मिला है।

गंदगी से बीमार होता देश-

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक साफ-सफाई न होने के चलते भारत में प्रति व्यक्ति औसतन 6500 रूपये अपनी बीमारियों पर खर्च करता है। उपयुक्त शौचालय के अभाव में प्रत्येक वर्ष लाखों बच्चे मल-मूत्रादि से उत्पन्न रोगों के कारण मर जाते हैं। जून से अक्टूबर तक बरसात के मौसम में भू-जल में शौच के मिलने से विभिन्न रोगों के फैलने का डर अधिक रहता है। इससे ‘इंसेफेलाइटिस’-जैसी बीमारी के फैलने का भी खतरा बढ़ जाता है। यह बीमारी प्रत्येक वर्ष मानसून के मौसम में भारत के उत्तरी भागों, यथा-उत्तर-प्रदेश, बिहार इत्यादि राज्यों में फैलती है। ऐसा तब होता है, जब बरसात के दिनों में लोग नदी या तालाब के किनारे शौच के लिए जाते हैं और गंदे पानी के कारण संक्रमण का शिकार होते हैं। बिहार में इंसेफेलाइटिस का कहर अन्य वर्षों की तरह इस साल भी हुआ है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन ने साल 2016 में आई अपनी रिपोर्ट में बताया था कि सिर्फ 42.5% ग्रामीण घरों के पास शौचालय के लिए पानी था। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे (जनवरी 2015 से दिसंबर 2016) की रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 51.6% लोगों ने शौचालय सुविधाओं को इस्तेमाल किया। एक सर्वे के मुताबिक 47% लोगों ने बताया कि उन्हें खुले में शौच जाना ज़्यादा आसान और आरामदायक लगता है।

बजट की किल्लत-

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की रिपोर्ट बताती है कि कई राज्यों को गाइडलाइंस के हिसाब से जितना पैसा जारी किया जाना था, उससे कम दिया गया। 18 जनवरी, 2017 तक राजस्थान को शहरी मिशन का 58% बजट दिया गया, वहीं असम को महज़ 6% मिला। उत्तर प्रदेश को शहरी मिशन में 15% तय बजट के बजाय 5% ही मिल पाया। स्वच्छता सर्वेक्षण 2017 में वाराणसी को छोड़कर उत्तर प्रदेश के बाकी सभी शहरों की रेटिंग 300 से कम है।

विद्यालयों में स्वच्छ पेयजल और टॉयलेट कथा अभी अधूरी-

उत्तरप्रदेश के सबसे स्वच्छ जिले लखनऊ के चिनहट ब्लॉक जहां अस्वच्छता की बानगी ही नहीं बल्कि पूरा साम्राज्य फैला हुआ है बच्चे विद्यालय में टॉयलेट की दीवारों के पीछे अपनी नित्य क्रियाये निपटाते है उदाहरण के लिए प्राथमिक विद्यालय सन्दौली जहाँ बच्चे विद्यालय में शौचालय के पीछे या फिर दूर खेतों में जाते है। यहाँ पानी की कोई व्यवस्था नहीं है और किसी को इसकी चिंता भी नहीं। प्राथमिक विद्यालय सफेदाबाद जहाँ कुछ भी पूर्ण नहीं है यहाँ तक की आंगनबाड़ी को दिए विद्यालय के हिस्से में सांप, बिच्छू भी घूमते दिख जाते है। अधिकतर विद्यालयों में स्वच्छता स्टेशन और पेयजल के मात्र बोर्ड लगे है लेकिन व्यवस्थाएं नदारद है। इसी प्रकार टॉयलेट सीट तो लगी है लेकिन उसका उपयोग नहीं है।

क्या कभी पूर्ण होगी लखनऊ की स्वच्छता कथा?

चारबाग रेलवे स्टेशन से मात्र 1 किमी से भी कम दूरी पर मवैया रेलवे पुल की जर्जर हालत अलग ही कहानी कहती है मानों दीवारें कभी भी ढह सकती है। उस पर सभ्य पुरुष नागरिकों द्वारा अँधेरे का फायदा उठा कर दिन-रात खुले में मूत्रालय का अड्डा बना दिया गया है। यदि कोई स्वस्थ इंसान यहाँ 5 मिनट बिता ले तो वह ज़रूर बीमार पड़ जाये थोड़ा और नजदीक की बात करें तो चारबाग में मुसाफ़िर खाना सड़क पर होटलों का खाना और फलों का कचरा यूँ बिखरा पड़ा रहता है मानों डंपिंग स्टेशन हो। अथश्री स्वच्छता की पर्याय लखनऊ मलिनता कथा का अंत नहीं है चाहे सदर पुल के नीचे बहता खुला नाला हो या फिर राजाजीपुरम क्षेत्र में बिखरा कूड़ा। हाँ लखनऊ नगर निगम के कर्मचारी मध्य प्रदेश जाकर सिर्फ वहां के सिस्टम की तारीफ तो कर सकते है लेकिन वहां की व्यवस्था को यहाँ लागू करने की कितनी मंशा है इसका अंदाज़ा शहर की गंदगी देख कर लगाया जा सकता है।

टायलेट नहीं तो टिकट नहीं-

भारत में चुनाव लड़ने के लिए कई शर्तें हैं, लेकिन एनडीए सरकार ने तय किया है जिनके घरों में टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं किया जाता वो राज्य के निकाय चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। जारी किए गए नए संशोधन में अब ज़िला, तालुका, गांव, पंचायत, नगर पालिका और नगर निगमों का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को शपथ पत्र देना होगा कि उनके घर में शौचालय की सुविधा है या नहीं।

गुरूजी बनें फोटोग्राफर-

शौचालय के प्रति लोगों में जागरूकता होनी जरूरी लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप अतिउत्साहित होकर बेतुके फरमान जारी कर दे। कई राज्यों के शिक्षा विभाग अधिकारियों ने ऐसा ही किया। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों के शिक्षकों को सुबह 5 से 7 और शाम 6 से 8 बजे के दौरान शिक्षकों को खुले में शौच करने वालों को पकड़ने और फोटो खींचकर व्हाट्सऐप पर भेजने का कार्य दे दिया। ये ही नहीं शिक्षकों को छात्रों को पढ़ाने के साथ खुले में शौच करने वालों का ब्यौरा भी अधिकारियों को लिखकर भेजना था। इस फरमान शिक्षकों ने विरोध करना चाहा तो अधिकारियों ने खुले में शौच करने वालों का फॉलोअप देने पर ही तनख्वाह मिलने का हुक्म जारी कर दिया। अब आप खुद समझ लीजिए कि देश में शौचालयों पर कितना जोर दिया जा रहा है बल्कि सरकार और अधिकारियों को लोगों को खुले में शौच के लिए गांव-गांव जागरूक करने की आवश्यकता है।

कचरा सरकार के लिए बना चुनौती-

हर घर से कचरा उठाने और उसे निपटाने की योजना अभी रास्ते में ही है। लोगों की शिकायत है कि कचरा उठाने वाली गाड़ियों का समय तय नहीं है। जिसके कारण उन्हें कचरा आस-पास की खाली जगहों में फैंकना पड़ता है। देश के 81,000 शहरी वार्ड को इस योजना के दायरे में लाने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अब तक 41,000 ही कवर हुए है। कचरे से कंपोस्ट या बिजली बनाने की प्रक्रिया अब भी चुनौतियों से ही जूझ रही है। स्वच्छ भारत मिशन से पहले कचरे की प्रोसेसिंग का आंकड़ा 16 फीसदी पर था जो अब तक 22 फीसदी पर पहुंचा है। कचरे से कंपोस्ट बनाने की अनुमानित क्षमता 54 लाख टन पर लाने की थी, लेकिन अब तक 15 लाख टन ही हो पाया है। देश में 145 कंपोस्ट प्लांट है।

स्वच्छ भारत मिशन राजस्थान:

सभी राज्यों की भांति राजस्थान में भी टॉयलेट को लेकर काफी काम हुआ है। किन्तु यहाँ भी सिर्फ कंस्ट्रक्शन पर ही जोर रहा है। राजस्थान की सूर्य नगरी (जोधपुर) तो कम से कम यही दर्शाती है। यहाँ की कच्ची बस्तियों के हाल तो बहुत ही बुरे है। यहाँ यूँ तो कई बस्तियां है किन्तु बड़ी भील बस्ती सबसे पुरानी और बड़ी बस्ती है जो मेहरानगढ़ जाने वाले मार्ग में स्थित है यहाँ से हर रोज सैलानी गुजरते हैं। इस बस्ती के हर रास्ते पर कचरा फैला रहता है। यह 1100 घरों की बस्ती है बस्ती में यूँ तो कुछ जगह सीवरेज लाइन है लेकिन वह 10 साल पुरानी हो चुकी है और जब तक जाम रहती है गंदा पानी बाहर बहता है। बस्ती के लगभग 50 प्रतिशत घरों में टॉयलेट नहीं है। क्योंकि वहां मल निकासी के लिए कोई व्यवस्था नहीं है और पहाड़ी पर द्वि कूप पद्धति से टॉयलेट संभव नहीं। शहर के बीच रहते हुए भी लोग पहाड़ियों पर खुले में जाते है। यही मल बारिश के दौरान बह कर शहर के जलस्रोतों का दूषित करता है। हालाँकि कहने को तो यहाँ दो कम्युनिटी टॉयलेट है पर इनमें से एक ही चल रहा है। एक टॉयलेट चार पांच साल पहले ही बना है किन्तु पिट से मल निकासी और सफाई की सही नहीं होने से ये चोक हो चुका है। जैसा बस्ती के लोगो ने बताया की मजबूरी में उन्हें उसी में जाना पड़ता है। टॉयलेट की स्थिति तो एक तरफ यहाँ बस्तियों में सभी जगह कचरा पड़ा रहता है। नालियों में कचरा भरा रहता है।सत्य यह भी है की टॉयलेट के सीवरेज से जुड़े होने पर भी कोई भी शहर तभी स्वच्छ हो सकता जब वहां मल का उचित उपचार न हो। महानगरों में बहुत वर्षोँ से सीवरेज की व्यवस्था है किन्तु यहाँ भी मल बिना पूर्ण उपचार के नदियों में डाल दिया जाता है।

वास्तव में क्या है स्वच्छ्ता के घटक:

स्वच्छ्ता के छ: घटक है –

  • मानव मल मूत्र का प्रबंधन
  • ठोस अपशिष्ट का प्रबंधन
  • तरल अपशिष्ट का प्रबंधन
  • शुद्ध पेयजल
  • व्यक्तिगत स्वच्छ्ता
  • वातावरण की स्वच्छ्ता
  • घरेलू स्वच्छ्ता

इनमे से व्यक्तिगत स्वच्छ्ता व घरेलू स्वच्छ्ता को यदि व्यक्तिगत स्तर पर छोड़ दे तो भी सरकारी स्तर के प्रयास अन्य घटकों को प्राप्त करने के लिए न काफी है। गाहे बगाहे राष्ट्रीय पर्वो पर झाड़ू लेकर की जाने वाली खानापूर्ति स्वच्छ भारत मिशन के ईमानदारीपूर्वक लागू किये जाने पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। उद्देश्य कितना ही अच्छा हो किन्तु प्रयास यदि सही दिशा में और लगातार न किये जाये तो कोई भी योजना/ मिशन केवल प्रचार तक ही सीमित हो जाता है।