सस्ते में जाती मरीज की जान, आखिर कब टूटेगी स्वास्थ्य विभाग की नींद

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देश भर में स्वास्थ्य विभाग की लचर व्यवस्था आए दिन अखबारों की सुर्खियां बनती है। स्वास्थ्य विभाग की खामियां किसी से छिपी नहीं है। यह विभाग अपनी हकीकत खुद ही बयां कर देने में समर्थ और सक्षम है। स्वास्थ्य-विभाग की जमीनी-हकीकत जानने के लिए केंद्रीय टीम जहां कहीं भी जाती है, उसे अव्यवस्था ही मिलती है। स्वास्थ्यकर्मियों की लापरवाही से मरीजों की जानजाने की भी तादाद अच्छी खासी है। अब तो हालात यह हो गए हैं कि निजी अस्पताल भी इस अव्यवस्था के घेरे में आ गए हैं। निजी अस्पतालों में बिल चुकाए बिना शव भी नहीं दिए जा रहे हैं? आखिर मानवता को परम धर्म मानने वाले देश में ही मानवता को ही शर्मसार करने वाली घटनाएं हो रहीं हैं। आखिर इन सबका जिम्मेदार है कौन? राजस्थान की बात की जाए तो राज्यभर में स्वास्थ्य सुविधाओं की हकीकत किसी से छिपी हुई नहीं है। ग्रामीण अंचलों में हालात और बदतर बने है। गेट पर ही डिलेवरी होने के कई मामले आए दिन प्रकाश में आते रहते हैं।  दो साल पहले स्वीकृत हुए  उपस्वास्थ्य केंद्रों को प्रशासन अभी तक जमीन ही नहीं उपलब्ध करा सका है।

बुनियादी सुविधाओं की हालत बहुत ही दयनीय
देश के सरकारी अस्पतालों की बात की जाए तो जिला मुख्यालयों पर स्थित अस्पतालों में ही बुनियादी सुविधाओं की हालत बहुत ही दयनीय हैं। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की शर्मनाक हालत हर किसी की आंख में आंसू लाने के लिए पर्याप्त हैं। पिछले साल कानपुर में नौ साल के एक बच्चे अंश की अपने पिता के कंधे पर ही मौत हो गई। मौत की वजह यह रही कि अस्पताल के आपातकालीन विभाग ने उसे एडमिट करने से ही इनकार कर दिया था। ओडिशा के आदिवासी कलाहंडी जिले में दाना मांझी अपनी पत्नी के शव को 10 किलोमीटर तक अपने कंधों पर ले जाने के लिए मजबूर हुआ क्योंकि जिला अस्पताल प्रशासन ने शव वाहन देने से ही इनकार कर दिया था। इस तरह की शर्मनाक घटनाएं हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की आंतरिक व्यवस्था को दर्शाती हैं। हमारे पास 10,189 लोगों पर सिर्फ एक सरकारी डॉक्टर है। 2,046 लोगों पर  सरकारी अस्पतालों में एक बिस्तर और 90,343 लोगों पर एक सराकरी अस्पताल है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर एक संसदीय समिति की रिपोर्ट ने 2016 में कहा था कि भारत में डॉक्टर-मरीज का अनुपात वियतनाम, अल्जीरिया और पाकिस्तान की तुलना में बहुत कम है। हमारी स्वास्थ्य-प्रबंधन प्रणाली में डॉक्टरों की कमी सबसे बड़ी समस्या है। फोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के अर्थशास्त्र और बिजनेस पॉलिसी फैकल्टी द्वारा कराए गए एक अध्ययन में 2017 में कहा गया था कि भारत में 2030 तक 2.07 मिलियन से अधिक डॉक्टरों की जरूरत होगी। तभी 1,000 की आबादी पर एक अच्छे डॉक्टर का अनुपात हासिल किया जा सकेगा।

डॉक्टरों की कमी
डॉक्टरों की कमी का असर विशेष रूप से गांवों में सीधा दिखाई देता है। केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री ने जुलाई 2017 में संसद में एमसीआई के हवाले से बताया था कि 31 मार्च, 2017 तक एमसीआई में 10,22,859 एलोपैथिक डॉक्टर पंजीकृत थे। इंडियास्पेंड के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में स्थित सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर ही 3,000 से ज्यादा डॉक्टरों की कमी है। पिछले दशक में इस कमी में 200 फीसदी की वृद्धि हुई है। स्पष्ट रूप से राज्य की राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाओं और जमीनी हकीकत के बीच यह एक विसंगति है। केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत 160,000 करोड़ रुपए का फंड बनाया है। इसके अंतर्गत वर्ष 2019 तक प्रत्येक नागरिक को 50 से अधिक मुक्त दवाएं देने, एक दर्जन से ज्यादा टेस्ट सुविधाएं और बीमा कवर का वादा किया गया है। केंद्र के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों में से एक शिशु मृत्यु दर में कमी लाकर 1,000 में से 30 तक लाना है। वर्तमान में यह 40 फीसदी है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का यह भी एक हिस्सा है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए गांवों में तीन किलोमीटर के दायरे में चिकित्सा और नर्सिंग संसाधनों की स्थापना करनी होगी। हमारी आबादी के बढ़ते आकार और यहां तक कि बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को देखते हुए यह स्पष्ट है कि बाजार आधारित तंत्र सिर्फ मांग-आपूर्ति की खाई को नहीं पाट सकता है। 2020 के लिए नीति आयोग का एजेंडा यह तथ्य स्वीकारता है।

चिकित्सा शिक्षा प्रणाली भी जिम्मेदार
डॉक्टरों की कमी के लिए हमारी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली भी जिम्मेदार है। संसाधनों को बढ़ाए बिना काम नहीं चलने वाला है। भारत के 462 मेडिकल कालेजों से 56,748 डॉक्टर निकलते हैं लेकिन हमारी आबादी हर साल 26 मिलियन की दर से बढ़ रही है। ऐसे में डॉक्टर-मरीज अनुपात की खाई पटेगी कैसे? केन्द्र सरकार ने देश में 24 नए मेडिकल कॉलेज खोलने का फैसला लिया है। सरकार के अनुसार यह फैसला राष्ट्रीय आयुष्मान योजना के तहत लिया गया है। इसके अलावा मौजूदा कॉलेजों की सीट, पीजी सीट बढ़ाने का भी फैसला लिया गया है। पीजी की सीट अब 8,085 हो जाएगी। राजस्थान की बात की जाए तो प्रदेश में चिकित्सा शिक्षा के लिए बड़ा झटका लगा है। इंडियन मेडिकल काउंसिल ने लगातार दूसरे साल भी राज्य के सात जिलों में सात प्रस्तावित सरकारी मेडिकल कॉलेज की स्थापना के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश ही नहीं की है। एमसीआई का निर्णय राज्य सरकार के लिए शर्मिंदगी भरा माना जाना चाहिए। नए शैक्षणिक वर्ष से मेडिकल कॉलेजों का संचालन होना था, लेकिन अब इस पर तलवार लटक गई है। ये मेडिकल कालेज भीलवाड़ा, बाड़मेर, सीकर, भरतपुर, चूरू, पाली और डूंगरपुर में शुरू होने थे। दिल्ली से आई टीम को सेंटल ऑक्सीजन और सेंटल सेक्शन यूनिट, आपदा ट्रॉलियों, दुर्घटना गाडिय़ां ही निरीक्षण के दौरान नहीं मिलीं।

क्षेत्रीय असंतुलन भी वजह
क्षेत्रीय असंतुलन को भरना भी एक बड़ा काम है। आठ राज्यों में जहां देश की कुल आबादी का 46 फीसदी हिस्सा रहता है, में एमबीबीएस की केवल केवल 21 फीसदी सीटें हैं। छह अन्य राज्यों में जहां भारत की 31 फीसदी जनसंख्या रहती है, में भी 21 फीसदी सीटें हैं। इस असमानता के सबसे बड़े शिकार गरीब राज्य हैं। उदाहरण के तौर पर, राज्यों के बीच संस्थागत स्वास्थ्य सेवा वितरण में झारखंड और छत्तीसगढ़ में सबसे खराब बुनियादी ढांचा है। यहां कुपोषित बच्चों का प्रतिशत ज्यादा है। स्वास्थ्य केंद्रों और बुनियादी निदान सेवाओं तक पहुंचने के लिए 12 किलोमीटर से अधिक चलना सामान्य बात है। कहने को तो स्वास्थ्य राज्य का विषय है, पर राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति उदासीन ही रही हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की बदतर हालत सुधारने के लिए स्वास्थ्यसेवा कर्मचारियों को गुणवत्तायुक्त प्रशिक्षण देना चाहिए, जिला स्तर पर डॉक्टरों को बहुत अधिक प्रशासनिक जिम्मेदारियों से मुक्त करना चाहिए ताकि वे गांवों में मरीजों के इलाज पर ध्यान केंद्रित करने में मदद कर सकें।

गली-गली में फर्जी डॉक्टरों की दुकान
स्वास्थ्य विभाग की नाक के नीचे कई फर्जी मेडिकल स्टोर काम कर रहे हैं लेकिन उनकी जांच करने वाला कोई नहीं। ये हाल केवल मेडिकल्स दुकानों का ही नहीं है बल्कि ये ही हाल डॉक्टरों का भी है। गांवों में जहां सरकारी अस्पतालों के हाल बदतर होने के साथ डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं वहीं इन झोलाछाप डॉक्टरों की दुकान बड़ी तेजी के साथ पटरी पर आ रही है। गली-गली में अपना दवाखाना खोले बैठे हैं। स्वास्थ्य विभाग के खेमे को एक बड़े स्तर पर गांवों और शहरों में चल रही फर्जी डॉक्टरों की दुकान पर बड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है। ताकि लोग इन के प्रति जागरूक हो। स्वास्थ्य विभाग को ठेंगा देखाते ये फर्जी डॉक्टर लोगों को आयुर्वेदिक से लेकर एलोपैथिक तक की सही-गलत दवाएं खुलेआम बांट रहे हैं। ना ही कोई इनके पास लाइसेंस है, न ही प्रशिक्षण। चिकित्सकों की एक बड़ी के कारण इन झोलाछाप डॉक्टरों की दुकान चल रही है। स्वास्थ्य विभाग को इस और ध्यान देने की जरूरत है वरना लोगों के साथ यूं ही खिलवाड़ होता जाएंगा।

निधि शर्मा

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य और व्यक्त किए गए विचार पञ्चदूत के नहीं हैं, तथा पञ्चदूत उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

 

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