Video: कारगिल जंग के वो अंतिम खत, जो शहीदों ने जंग के मैदान से अपनों को लिखें

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आज से ठीक 18 साल पहले मतलब 26 जुलाई 1999 को भारतीय सेना ने पकिस्तान को कारगिल जंग में हरा कर जीत पाई थी. हर साल इस दिन कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है। 8 मई 1999 को शुरू हुई कारगिल जंग 26 जुलाई 1999 को पाकिस्तान की हार के साथ खत्म हुई थी. तो आइए आपको बताते है इस दिन एक वीर की गाथा जिसको शायद आज के दिन क्या हर दिन याद किया जाना चाहिए।

‘मेरा बलिदान सार्थक होने से पहले अगर मौत दस्तक देगी तो संकल्प लेता हूं कि मैं मौत को मार डालूंगा।’ ये शब्द थे उस योद्धा के थे जिसने मुल्क के लिये अपनी जान की बाजी लगा दी। शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडे, परमवीर चक्र विजेता, मात्र 24 साल की उम्र में ही देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर गए। लेकिन अपनी शहादत से पहले वो करगिल जंग की जीत की बुनियाद रख चुके थे।

उस रात कुछ यूं शुरू हुई पांडे की कहानी:

गोरखा रेजीमेंट के लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे सियाचिन की तैनाती के बाद छुट्टियों पर घर जाने की तैयारी में थे। लेकिन अचानक 2-3 जुलाई की रात उन्हें बड़े ऑपरेशन की जिम्मेदारी सौंपी गई। लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे को खालुबार पोस्ट फतह करने की जिम्मेदारी मिली। रात के अंधेरे में मनोज कुमार पांडे अपने साथियों के साथ दुश्मन पर हमले के लिए कूच कर गए।

दुश्मन ऊंचाई पर छिपा बैठ कर नीचे के हर मूवमेंट पर नजर रखे हुए था। एक बेहद मुश्किल जंग के लिये मनोज कुमार अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहे थे। पाकिस्तानी सेना को मनोज पांडे के मूवमेंट का जैसे ही पता चला उसने ऊंचाई से फायरिंग शुरु कर दी। लेकिन फायरिंग की बिना कोई परवाह किये मनोज काउंटर अटैक करते हुए और हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए आगे बढ़ रहे थे।

सबसे पहले उन्होंने खालुबार की पहली पोजिशन से दुश्मन का सफाया किया। आमने-सामने की लड़ाई में दो पाकिस्तानी सैनिकों को उड़ा दिया और पहला बंकर ध्वस्त कर दिया। उसके बाद उन्होंने दूसरी पोजिशन पर जमे पाकिस्तानी सैनिकों को मार कर दूसरा बंकर भी ध्वस्त कर दिया। इसके बाद मनोज कुमार पांडे अपने जवानों का हौसला बढ़ाते हुए और गोलियों की परवाह न करते हुए तीसरी पोजिशन की तरफ बढ़ चले। वहां भी उन्होंने पाकिस्तानी सैनिकों को मार कर उनका बंकर उड़ा दिया।

लेकिन इस दौरान एक एक गोली उनके कंधे और पैर पर लग चुकी थी। इसके बावजूद मनोज रुके नहीं। वो चौथी पोजिशन से दुश्मन के खात्मे के लिये आगे बढ़ चले। उन्होंने हैंड ग्रेनैड फेंक कर बंकर ध्वस्त कर दिया।तभी दुश्मन की एक गोली उनके माथे पर लगी। मनोज देश के लिए शहीद हो गए। लेकिन वीरगति को प्राप्त होने से पहले खालुबार पर भारतीय सेना के कब्जे की नींव रख चुके थे। अपने मिशन में 11 पाकिस्तानी सैनिकों को मार चुके थे।

तिरंगे से लिपटे ताबूत में इस शहीद का शव जब लौटा तब पूरे देश के लोगों की आंखें नम हो गई। 24 साल की उम्र में एक जांबाज जिंदगी को अलविदा कहने से पहले देश के लिए अपना फर्ज पूरा कर गया।

परमवीर चक्र हासिल करना एक मात्र लक्ष्य: पांडे

मनोज कुमार पांडे से जब सेना में भर्ती के लिए इंटरव्यू में पूछा गया कि आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं तब उनका जवाब था कि वो परमवीर चक्र हासिल करना चाहते हैं।

मनोज का जवाब सुनकर सब हैरत में पड़ गए थे। मनोज ने अपनी कही बात को सच साबित कर दिखाया। करगिल की जंग में खालुबार पोस्ट फतह में बलिदान देकर वो परमवीर चक्र का मेडल अपनी वर्दी पर सजा चुके थे।

25 जून 1975 को यूपी में सीतापुर के रुधा गांव में मनोज का जन्म गोपी चंद पांडे के परिवार में हुआ था। मनोज का सपना बचपन से ही सेना में जाने का था। देशभक्ति की भावना ही उन्हें सेना में देश की सेवा करने के लिये ले गई। 12वीं के बाद उन्होंने सेना को ही चुना।

साभार: द क्विंट

हालांकि वो बचपन से ही इतने मेधावी थे कि चाहते तो डॉक्टर या इंजीनियर बन सकते थे। वो आईआईटी और एनडीए दोनों में अच्छे नंबरों से पास हुए थे। लेकिन उन्होंने सेना को ही अपना जीवन समर्पित किया।

मनोज की सबसे खास बात ये थी कि वो कभी भी अपनी पढ़ाई के खर्चे के लिए पिता या परिवार पर बोझ नहीं बने। वो अपनी मेहनत के बूते स्कॉलरशिप लेकर पढ़ाई करते रहे। सैनिक स्कूल से पढ़ाई के बाद एनडीए की परीक्षा उत्तीर्ण की।इसके बाद 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहिनी के अधिकारी बने। परिवार के लिए एक आदर्श पुत्र रहे तो देश के लिये भी एक आदर्श बेटे की तरह उन्होंने अपने फर्ज के लिए बलिदान करने में देर नहीं की।

 

मनोज की शहादत के बाद उनसे जुड़ी कई बातें सामने आईं। एक बार उन्हें अपनी बटालियन के साथ सियाचिन में तैनात होना था. लेकिन इनकी पोस्टिंग युवा अफसरों की ट्रेनिंग में कर दी गई। इससे मनोज बेहद परेशान रहने लगे थे क्योंकि वो बटालियन के साथ सरहद के दुर्गम और जोखिम भरे रास्तों पर जाना चाहते थे। एक दिन उन्होंने अपने कमांडिंग आफिसर को पत्र लिखकर कहा कि अगर उनकी टुकड़ी उत्तरी ग्लेशियर जाए तो उनकी पोस्टिंग बाना चौकी में की जाए.।अगर उनकी टुकड़ी सेंट्रल ग्लेशियर जाए तो उनकी तैनाती पहलवान चौकी पर की जाए। आखिरकार उनकी बात मानकर उन्हें 19700 फीट ऊंची पहलवान चौकी पर तैनात किया गया। वो नहीं चाहते थे कि जब उनकी टुकड़ी कठिन परिस्थितियों में सरहद की सुरक्षा में जूझे तो वो आराम से अपने युवा अफसरों को ट्रेनिंग देकर वक्त गुजारें।

साभार: रेड एफएम

सियाचिन की चौकी से जब मनोज कुमार पांडे की टुकड़ी वापस लौटी तब उनकी छुट्टियों का समय हो गया था। लेकिन उन्होंने खुद आगे बढ़कर करगिल जंग के लिये दुश्मन पर हमले में शामिल होने के लिए इजाजत मांगी। अगर वो छुट्टी मांगते तो उनको छुट्टी मिल सकती थी। इसके बावजूद उन्होंने सेना के ऑपरेशन का हिस्सा बनने के लिये अपना नाम आगे बढ़ा दिया था। 2-3 जुलाई को निर्णायक जंग के लिए ये जांबाज़ अपनी टुकड़ी के साथ रवाना हो गया। कूच से पहले मनोज को लेफ्टिनेंट से पदोन्नत कर कैप्टन बनाया गया। साथ ही मिली खालूबार को फतह करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी।

मनोज 1/11 गोरखा राइफल्स की बी कंपनी के साथ मिशन खालुबार के लिये निकल पड़े और उस जंग की शुरुआत की जिसे करगिल की जंग कहा जाता है। मनोज कुमार पांडे इस जंग के हीरो थे और हमेशा हीरो रहेंगे।

ये सिर्फ एक मनोज की कहानी है लेकिन इस युद्ध में कई मनोज हुए और हम उनको सलाम करते हैं…जय हिन्द!!

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