उत्तर प्रदेश: मेरठ के हाशिमपुरा गांव के 42 मुसलमानों को पीएसी जवानों द्वारा अगवा करके गाजियाबाद के करीब गोली मारकर उनकी हत्या करने और नहर में बहा देने के मामले में आरोपी सभी 16 पुलिसवालों को कोर्ट ने 2015 में बरी कर दिया। कोर्ट ने सबूतों के अभाव में यह फैसला सुनाया। इस मामले में कुल 19 आरोपी थे, जिनमें तीन की ट्रायल के दौरान मौत हो गई। वहीं, इस नरसंहार में चार लोग बच गए, जिनके बयान और मुकदमों के आधार पर यह केस चला।
क्या था मामला
मेरठ और आसपास के इलाके सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में थे। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाने के आदेश दिए थे। मेरठ और आसपास के जिलों में दंगे, आगजनी और हत्याओं के कई मामले सामने आए। ऐसा माहौल कई महीनों तक रहा। मेरठ में अप्रैल 1987 में फिर दंगा भड़का। इस पर काबू भी कर लिया गया था और बाद में सुरक्षा बलों को हटा लिया गया था। लेकिन 18 मई, 1987 को दोबारा हिंसा भड़क गई।
इसके बाद वहां सेना और पैरामिलिट्री फोर्स बुलाई गई। इसी क्रम में पीएसी के मुख्यालय गाजियाबाद से उसकी 41वीं बटालियन को भी मेरठ बुलाया गया। अभियोजन पक्ष के मुताबिक, 22 मई 1987 को पीएसी के कुछ जवान हाशिमपुरा गांव गए और वहां 500 लोगों की सभा में से करीब 50 मुस्लिम लोगों को ट्रक से गाजियाबाद जिले के मुरादनगर के बाहरी इलाके में ले गए। वहां पुलिसवालों ने उन्हें एक साथ गोली मार दी और उनके शवों को नहर में बहा दिया। चंद दिनों बाद उनके शव नहर में तैरते मिले।
इस हत्याकांड में जो लोग बच गए, वे बाद में सरकारी गवाह बन गए। इस मामले में 1996 में गाजियाबाद चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने चार्जशीट फाइल की गई थी। इसमें 19 लोगों को आरोपी के तौर पर नामजद किया गया। मई 2000 में 19 में से 16 आरोपियों ने सरेंडर कर दिया, जिन्हें बाद में जमानत दे दी गई। तीन आरोपियों की मौत हो चुकी थी। सितंबर 2002 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केस को यूपी से दिल्ली ट्रांसफर किया गया था। केस की जांच से जुड़ी रही उत्तर प्रदेश की सीबीसीआईडी ने इस मामले में 161 लोगों को गवाह बनाया था।
जो बचे उन्होंने बताया- खुद को बचाने के लिए रोकनी पड़ी सांस
एक अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, इस नरसंहार में जिंदा बचे जुल्फिकार नासिर ने बताया, ”वे एक बार में एक को मार रहे थे। पहले यासिन फिर अशरफ, फिर मेरा नंबर आया। मुझे जमीन पर घसीटा गया। मैंने सोचा कि मेरा आखिरी वक्त आ गया। मुझे भी गोली मारी गई, लेकिन बुलेट मेरे बगल में लगी। मैंने मरने का अभिनय किया। मैंने सांस रोक ली और लाशों के अंबार में पड़ा रहा। इसके बाद उन्होंने हमें नदी में फेंक दिया।”
बीबीसी के छपे एक लेख के अनुसार एडवोकेट रिबेका जॉन ने कहा इस मामले से सबक लेने की जरूरत है। जिंदगी, आजादी और नागरिक अधिकारों से जुड़े मामलों में जल्द सुनवाई होनी ही चाहिए। खासतौर पर तब, जब पीड़ित गरीब या हाशिये पर खड़े लोग हों तो हमारी वर्तमान व्यवस्था उन्हें न्याय नहीं दिला सकती। पुलिस वाले जब अपनों के खिलाफ जांच करते हैं तो कोशिश रहती है कि ‘भाईचारे का बंधन’ निभ जाए (ये सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी है)। सबसे मजबूत सबूत नष्ट कर दिए जाते हैं। प्रक्रिया को बिखेर कर खराब कर दिया जाता है।”
इस पूरे मामले में पीड़ितों की हार नहीं है बल्कि कानून की हार मानी जाएगी। इस नरसंहार के अपराधियों को खुला घूमते देख ऐसा ही लगता है कि भारत में किसको भी किसकी हत्या का छूट है।
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