क्या है गोरखालैंड आंदोलन, जिसके लिए जलाया जा रहा है दार्जिलिंग

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पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में भड़की हिंसा के तीसरे दिन शनिवार को भी तनाव बरकरार है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) अलग गोरखालैंड बनाने की अपनी पुरानी मांग पर फिर एक बार अड़ गया है और इसके लिए एक आपातकालीन बैठक भी बुलाई है। पहले भी भाषायी आधार पर भारत के कई टुकड़े हुए।

इसकी शुरूवात सबसे पहले 1960 से हुई। जहां मराठी बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती बोलने वालों के लिए गुजरात बना। पिछले कुछ सालों में झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना जैसे राज्यों का गठन हुआ। लेकिन इन सबके बीच बंगाली और गोरखा मूल की एक लड़ाई और लड़ी जा रही है। जो नेपाली भाषा को आधार बनाकर गोरखालैंड की मांग कर रहे है।

बताते चले यह आंदोलन कुछ मायनों में देश के बाकी आंदोलनों से अलग है। किसी राज्य की मांग को लेकर यह देश का सबसे लंबा चलने वाला आंदोलन है। दूसरी और भारत सरकार हर बार इससे अपना पल्ला झाड़ती भी रही है, कहीं ना कहीं सरकार को यह आशंका है कि अगर गोरखालैंड बनाने की इजाजत दे दी जाती है तो ये भारत से अलग होकर नेपाल में मिल सकते हैं।

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किन कारणों से उठी अलग राज्य की मांग:

1865 में जब अंग्रेजों ने चाय का बगान शुरू किया तो बड़ी तादाद में मजदूर यहां काम करने आए। उस वक्त कोई अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा नहीं थी, लिहाजा ये लोग खुद को गोरखा किंग के अधीन मानते थे। इस इलाके को वे अपनी जमीन मानते थे। लेकिन आजादी के बाद भारत ने नेपाल के साथ शांति और दोस्ती के लिए 1950 का समझौता किया।

सीमा विभाजन के बाद यह हिस्सा भारत में आ गया। उसके बाद से ये लोग लगातार एक अलग राज्य बनाने की मांग करते आ रहे हैं। बंगाली और गोरखा मूल के लोग सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर एक दूसरे से अलग हैं, जिस वजह से इस आंदोलन को ज्यादा बल मिला।

गोरखालैंड की मांग की शुरुआत सबसे पहले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घिसिंग ने की थी। पहली बार 5 अप्रैल 1980 को घिसिंग ने ही ‘गोरखालैंड’ नाम दिया था। इसके बाद पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) बनाने पर राजी हुई। घिसिंग की लीडरशिप में अगले 20 साल तक वहां शांति बनी रही। लेकिन विमल गुरुंग के उभरने के बाद हालात बदतर हो गए।

गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट से अलग होकर विमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की नींव रखी और गोरखालैंड की मांग फिर तेज हो गई। जिस हिस्से को लेकर गोरखालैंड बनाने की मांग की जा रही है उसका टोटल एरिया 6246 किलोमीटर का है। इसमें बनारहाट, भक्तिनगर, बिरपारा, चाल्सा, दार्जिलिंग, जयगांव, कालचीनी, कलिम्पोंग, कुमारग्राम, कार्सेंग, मदारीहाट, मालबाजार, मिरिक और नागराकाटा शामिल हैं।

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साजिशों का दौर काफी लंबा रहा-

28 महीने चले इस रक्तपात को नेपाली पहाड़ियों ने ‘भाईमारा लड़ाई’ का नाम दिया था। इसमें 1200 से अधिक लोगों के मारे जाने के आंकड़ें हैं। इसमें 10 हजार से अधिक घर जलाए गए और सैंकड़ों लोगों को टाडा ऐक्ट के तहत जेल में ठूंसा गया। यह समझना कठिन नहीं है कि ममता बनर्जी इस इलाके में अपनी पहचान क्यों पुख्ता करना चाहती हैं। बंगाल के इस इलाके में जहां भाषा, सेल्फ रूल और नेपाली एकता जीवन और राजनीति दोनों पर हावी हैं।

दशकों पहले इंदिरा गांधी (1972) और मोरारजी देसाई (1979) ने नेपाली भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए हिंसक झड़पें देखी थीं। गोरखालैंड की मांग अस्वीकार कर देने पर 1987 में राजीव गांधी की दार्जिलिंग में हुई सभा में महज 150 लोग ही पहुंचे। 2008 में घीसिंग को भी दार्जिलिंग छोड़कर उस वक्त भागना पड़ा जब स्थानीय लोगों ने उन पर नेपाली अस्मिता और धार्मिक आधार पर फूट डालने की कोशिश का आरोप लगाया।

ममता बनर्जी ने इस लिहाज से अपने मार्गदर्शक बी सी रॉय से अलग रास्ता चुना है। भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता के सवालों पर उबाल मारते इस क्षेत्र को रॉय नजरअंदाज करते थे जबकि ममता वहां अपनी धमक दर्ज कराने को उत्सुक हैं। 2011 में गोरखालैंड टेरिटोरियल ऐडमिनिस्ट्रेशन की स्थापना के बाद बिमल गुरुंग को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर राज्य निर्माण के मुद्दे पर जीजेएम ने निकाय चुनावों में 4 में से 3 में अपना परचम लहराया है। चुनावों में सफलता के लिए चुनावी नारा दिया गया गोरखालैंड बनाम बंगाल का।

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तेलंगाना के गठन के बाद हालात और खराब: 

पहली बार 8 सितंबर 2008 को भारत सरकार, पश्चिम बंगाल और पहाड़ की राजनीतिक पार्टियों के बीच बैठक हुई।राजनीतिक पार्टियों ने  51 पेज का एक मेमोरैंडम यूनियन होम सेक्रेटरी को भेजा।

करीब साढ़े तीन साल के विरोध के बाद राज्य सरकार के साथ उनकी सहमति बनी। इस सहमति के बाद एक अर्द्ध स्वायत्त संगठन बनाया गया। इसने डीजीएचसी की जगह ली। 18 जुलाई 2011 को सिलीगुड़ी के नजदीक पिनटेल में उस वक्त के गृहमंत्री पी चिदंबरम, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के नेताओं के बीच मेमोरैंडम पर समझौता हुआ।

29 अक्टूबर 2011 को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (एबीएवीपी) ने मिलकर 18 बिंदुओं पर समझौता किया। इसके बाद गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) की जगह नई प्रशासकीय संगठन गोरखालैंड एंड आदिवासी टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीएटीए) बना।

2013 में एकबार फिर तृणमूल कांग्रेस गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बीच मतभेद बढ़ गया। 2 जून 2014 को तेलंगाना के गठन के बाद हालात और खराब हो गए। इस इलाके में ‘जनता कर्फ्यू’ लग गया। ‘जनता कर्फ्यू’ यानी लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकलेंगे।

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