10 रोमांटिक फिल्‍में, जो हर कपल को आज के वक्त में देखनी बहुत जरूरी है

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हिंदी सिनेमा ने हमें जिंदगी के ना जाने कितने सबक दिए हैं। इनमें सबसे अहम पाठ है प्‍यार का। बीते 100 साल से अधि‍क समय से सिनेमा हमें प्‍यार का पाठ पढ़ा रहा है, लेकिन प्यार को समझने वाले अभी भी बहुत कम हैं। खैर पर्दे पर दिखाया प्यार असल जिंदगी से काफी अलग है।

आइए एक नजर डालते हैं उन 10 फिल्‍मों पर जिन्‍हें आज के वक्त में देखनी बहुत जरूरी हो गया है। आपको बताते चले कि प्‍यार मौज-मस्‍ती नहीं और ना ही एक्‍सपायरी हो जाने वाली चीज। सिनेमा समाज का आईना है ये फिल्में उसका उसका सबूत है।

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गाइड:

आरके नारायणन के उपन्‍यास पर बनी यह फिल्‍म प्रेम में समर्पण और खुद को भूल जाने की सीख देती है। एक राजू गाइड है, जिसे शादीशुदा रोजी से प्‍यार हो जाता है। रोजी अपनी जिंदगी से नाखुश है। मरना चाहती है, लेकिन उसमें जीने की ललक है। राजू खुद को भूलकर उस महिला के सपनों को जीने लगता है। रोजी नाचना चाहती है और राजू उसे खुशी से नाचते हुए देखना चाहता है। फिल्‍म में देवआनंद और वहीदा रहमान हैं। वो गीत है ना ‘तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं।’

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अभिमान:

प्रेम में अहंकार की कोई जगह नहीं होती। जलन नहीं होती। ‘अभि‍मान’ यही सीख देती है। फिल्‍म में अमिताभ बच्‍चन और जया बच्‍चन हैं। कहानी सुबीर और उमा की है। सुबीर फेमस सिंगर है। उमा सीधी-सादी घरेलू लड़की। उमा की आवाज में सरस्‍वती का वास है और यहीं से सुबीर के दिल में सितार बजते हैं। शादी होती है। उमा को भी प्रोफेशनल सिंगर बनने का मौका मिलता है। वह सुबीर से ज्‍यादा प्रसिद्धी पा लेती है। लेकिन सुबीर का अहंकार रिश्‍तों को तार-तार कर देता है। होश आता है तो पता चलता है कि सुकून एक-दूसरे की छांव में ही है। क्‍योंकि, ‘अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी…’

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दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे:

प्‍यार सबको साथ लेकर चलने का नाम है। यह सिर्फ दो लोगों का नहीं, दो परिवारों का मेल है। यह सिर्फ रिश्‍तों की पौध नहीं, फसल है। राज (शाहरुख) और सिमरन (काजोल) की कहानी यही तो बताती है। वर्ना सिमरन सरसों के खेत में राज से कहती तो है कि मुझे यहां से ले चलो राज। लेकिन राज नहीं मानता। आखिरी दम तक, हर तरीके से सबको मनाने में जुटा रहता है। और आखिर में जब प्‍यार मिलता है तो दो परिवार मिलते हैं। दिल मिलते हैं। ‘मेहंदी लगा के रखना, डोली सजा के रखना…’

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मैंने प्यार किया:

प्‍यार इंसान को जिम्‍मेदार बना देता है। प्‍यार पाने के लिए पहले खुद को साबित करना होता है। प्रेम (सलमान) और सुमन (भाग्‍यश्री) के साथ भी यही होता है। एक अमीर बाप का जवान बेटा। प्‍यार करता है। लेकिन उसे पाने के लिए पिता की दौलत की बजाय अपनी मेहनत का रास्‍ता चुनता है। खुद को साबित करता है, प्‍यार को छीनकर नहीं पाना चाहता। ‘दिल दे के दर्द-ए-मोहब्‍बत लिया है, सोच समझ के ये सौदा किया है कि मैंने प्‍यार किया… प्‍यार किया… प्‍यार किया है…’

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सुल्तान:

प्‍यार किसी से भी हो सकता है। लेकिन उसे पाने के लिए जरूरी है कि उसके लायक बना जाए। शहर की पढ़ी और सपनों की उड़ान भर चुकी आरफा (अनुष्‍का) ने गांव के ठेठ सुल्‍तान (सलमान) को पहली बार इनकार ही तो किया था। लेकिन सुल्‍तान के प्‍यार में ताकत थी। वह आरफा के काबिल बनता है। अपनी कमियों से उबरता है। प्‍यार पाता है। सुल्‍तान की कहानी में मर्यादा भी है। बीवी से अलग है। फेमस हो जाता है। पराई औरतें अपना बनाने को भी कहती हैं, लेकिन वो कहता है, ‘हमारे यहां इश्‍क की कोई एक्‍सपायरी नहीं होती।’

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साथिया:

सुहानी (रानी) और आदित्‍य (विवके ओबरॉय) युवा हैं। साथ रहना चाहते हैं। शादी करते हैं। अलग दुनिया बसाते हैं। समस्‍याएं शुरू होती हैं। रूमानी एहसास के आगे वास्‍तविक दुनिया आटे-दाल के भाव से दो-चार करवाती है। लेकिन रिश्‍तों की मौत उसी दिन शुरू हो जाती है, जब गलफमियां और शक की एंट्री होती है। प्‍यार का मतलब विश्‍वास है। एक-दूसरे पर खुद से ज्‍यादा भरोसा। यूं ही किसी के नाम जिंदगी नहीं होती।

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सलाम-ए-इश्क:

इस फिल्‍म में प्‍यार की छह कहानियां एक साथ चलती हैं। अलग-अलग तरह की। लेकिन आशुतोष (जॉन अब्राहम) और तहजीब (विद्या बालन) की कहानी सबसे जुदा है। एक हादसे में तहजीब की याद्दाश्‍त चली जाती है। वह आशुतोष को भी भूल जाती है। उससे डरने लगती है। पराया मानती है। लेकिन आशु फिर भी उसके साथ रहता है। आंसुओं की धारा दिल में बसे प्‍यार को बहा नहीं पाती। धीरे-धीरे याद्दाश्‍त तो नहीं लौटती, लेकिन जिंदगी नए सिरे से जरूर शुरू होती है। प्‍यार सिर्फ बीता हुआ कल नहीं। आने वाला हसीन कल भी है और इसके लिए हार नहीं माननी चाहिए।

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यू मी और हम:

अजय (अजय देवगन) और पिया (काजोल) की कहनी प्‍यार को संभालने की सीख देती है। फिक्र करने की जरूरत है, कहने की नहीं। पिया को अल्‍जाइमर है। वह धीरे-धीरे सबकुछ भूल रही है। भविष्‍य के गर्भ में क्‍या है, अजय को पता है। लेकिन वह कभी पिया का साथ नहीं छोड़ता। बीमारी से लड़ने में उसका साथी बनता है। हमेशा फिक्रमंद रहता है। खुद की नींद से ज्‍यादा पिया के सुकून की फिक्र। प्‍यार सिर्फ पाने का नहीं, साथ निभाने का नाम है।

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लाइफ इन मेट्रो:

प्‍यार करने की कोई उम्र नहीं होती। यह तो उम्र से परे है। इस फिल्‍म में भी कई कहानियां हैं। लेकिन जहां नजर टिकती है वो है अमोल (धर्मेंद्र) और श‍िवानी (नफीसा अली) की। 70 की उम्र हो चुकी है। दोनों जीवन में अकेले हैं। इस उम्र में प्‍यार को दुनिया क्‍या कहेगी, दोनों को इससे फर्क नहीं पड़ता। आखिरी लम्‍हा कभी भी आ सकता है। दोनों पहले प्रेमी हुआ करते थे। दिल में प्‍यार अभी भी है। प्‍यार में परवाह सिर्फ प्रेमी की होती है। बाकी दुनिया गौण है। आखि‍री क्षण तक। तभी तो प्‍यार है और यही तो प्‍यार है…

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चलते चलते:

राज (शाहरुख) को प्रिया (रानी मुखर्जी) से पहली नजर में प्‍यार हो जाता है। असल जिंदगी में भी ऐसे प्‍यार हो सकता है। लेकिन एक-दूसरे को समझना भी जरूरी है और समझ के साथ रिश्‍तों में समझौता भी। यहां समझौता अगले के सामने झुकना नहीं, बल्‍कि‍ अपनी कमी को मानना। ग‍लतियों को स्‍वीकार करना है। राज और प्रिया की शादी होती है। तौर-तरीके और ढंग से लेकर पसंद-नापसंद अलग-अलग हैं। झगड़े होते हैं। अलग हो जाते हैं। लेकिन प्‍यार की डोर साथ लाती है। दो लोग अलग-अलग होते हैं। मूल यह है कि दोनों साथ रहें और खुश रहें। प्‍यार में हार-जीत नहीं होती। ‘तुम पर मरता हूं, मैं सच कहता हूं। मांग के देख लो मुझसे जान… सुनो ना… सुन लो ना।’

इसके अलावा भी कई बेहतरीन फिल्में है जैसे वीर जारा, कल हो ना हो, देवदास, कुछ कुछ होता है, दिल चाहता है, साजन आदि। हम तो बस ये कहेंगे आप जिस भी फिल्म को देखें कुछ सीखे और अपने जीवन में अमल करें।

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