स्त्रियों की उन्नति और अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्भर है-अरस्तु 14 साल की पूरो अपने ब्याह के सपने देख रहीं हैं। रशीद नाम का एक युवक पूरो का अपहरण कर लेता हैं। अपहरण की वजह पुश्तैनी घरानों के झगड़े, जिसमे पूरों के घरानें ने रशीद के घराने की औरतों के साथ बदसलूकी की थी पर इसमें पूरों का क्या दोष था। रशीद पूरो से प्यार करता था, उसने तीन दिन उसे बिना छुए बंदी बनाया और उसी प्यार की वजह से एक मौका दिया अपने परिवार के पास जाने का। पर ये क्या जन्मदाताओं ने ही उसे मुंह मोड़ लिया। ये कहानी है उपन्यास की नायिका पूरो की। वैसे तो ये उपन्यास आजादी के समय का है। महान लेखिका अमृता प्रीतम ने इसे लिखा। इस उपन्यास में एक और किरदार है पगली का जो अचानक एक दिन गांव में आ जाती है। मैले-कुचेले कपड़े पहने इधर-उधर से मांग कर खाती है। जिसे खुद की कोई सुध-बुध नहीं। गांव में खलबली तब मचती है जब पगली का पेट निकलने लगता है। किसी ने पगली को अपनी हवस का शिकार बना डाला। उपन्यास पढ़ते-पढ़ते एक ही सवाल दिमाग में कौंधता हैं। क्या फर्क है आज की नारी कि स्थिति और पूरो और पगली की कहानी में? फर्क तो हैं कानून का, शिक्षा का, समझ का। पूरो के पास कानून का सहारा ना था पर आज की नारी के पास कानून तो है पर खौफ भी हैं। पूरो शिक्षित नहीं थी ना ही कोई साथ था, पर आज की लड़की शिक्षित भी है साथ भी है, पर डर है अपने मान-सम्मान का। पहले भी औरतों को अपने मान-सम्मान के लिए संघर्ष करना पड़ता था और आज भी ये जंग जारी हैं। 8 मार्च को हम महिला-दिवस मनाने जा रहे है। क्या ये दिवस मनाना सच में सार्थक है या महज एक औपचारिकता या फिर ये कहें पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव या सिर्फ एक दिखावा। स्त्री सशक्तिकरण, नारी-शिक्षा, महिलाओं का सम्मान इन सबके बारें में बड़ी-बड़ी बातें होने वाली हैं। एक दिन के लिए नारी की महानता का गुणगान होगा। क्या है ये सब? 21वीं सदी के इस दौर में जहां हम आधुनिकता के बातें करते है, औरत और आदमी के समकक्ष होने के डींगें हाकते है। महिलाओं, बच्चियों के प्रति हो रहे है वहशीपन को देखते हुए क्या हम सोच सकते है कि महिला दिवस सच में सार्थक हैं। हर साल ये विशेष दिन आता हैं और आकर चला जाता हैं। ये महज एक दिखावा ही लगता है क्योकि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।
इतिहास के झरोखों से
8 मार्च को यह दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता हैं। इतिहास के अनुसार समान अधिकारों की यह लड़ाई महिलाओं द्वारा ही शुरू की गई थी। प्राचीन ग्रीस में लीसिसट्राटा नाम की एक महिला ने फ्रेंच क्रांति के दौरान युद्ध समाप्ति की मांग रखते हुए इस आंदोलन की शुरूआत की। फारसी महिलाओं के एक समूह ने वरसेल्स में इस दिन एक मोर्चा निकाला, इस मोर्च का मकसद युद्ध की वजह से महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार को रोकना था। 1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका द्वारा पहली बार पूरे अमेरिका में 28 फरवरी को महिला दिवस मनाया गया। सन 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल द्वारा कोपहेगन में महिला दिवस की शुरूआत हुई और 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटजरलैंड में लाखों महिलाओं द्वारा जुलुस निकाला गया। मताधिकार, सरकारी कार्यलायों में जगह, नौकरी में भेदभाव को खत्म करने जैसे कई मुददों की मांग को लेकर इस का आयोजन किया गया। 1913-14 प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, रूसी महिलाओं द्वारा पहली बार शांति की स्थापना के लिए फरवरी माह के अंतिम रविवार को महिला दिवस मनाया गया। उस समय जुलियन कैलेडंर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेयिन कैलेडंर। इन दोनों की तारीखों में कुछ अंतर हैं। जुलियन कैलेडंर के मुताबिक 1917 की फरवरी का आखिरी इतवार 23 फरवरी को था जबकि ग्रेगेयिन कैलेडंर के अनुसार उस दिन 8 मार्च थी। इसलिए 8 मार्च को महिला दिवस मनाया जाता हैं। इतिहास के पन्नों को पलट कर देखे तो महिला दिवस का इतिहास काफी रोचक हैं। महिलाएं समाज की वास्तविक वास्तुकार होती हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता के बोल ”बुदेंले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।“ ये पंक्तियां आज भी रगों में जोश भर देती हैं। इतिहास में झांके तो रानी लक्ष्मी बाई, पन्नाधाय, रजिया सुल्तान, बेगम हजरत महल ये सभी नारी शक्ति के उदाहरण हैं। जो आज भी स्वर्णिम अक्षरों मे चमकते हैं। ममता की मूरत का प्रयाय नारी है, पर जरूरत पड़ने पर वह काली का रौद्र रूप भी धारण करती हैं। आज महिला-दिवस विश्व भर में मनाया जाता हैं। महिलाओं के मान-सम्मान, रक्षा एवं समाज में उनके योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया जाता हैं पर क्या कोई दिन बिना महिलाओं के सोचा जा सकता हैं। क्या यह एक दिन का दिवस उनके सभी अधिकारों की रक्षा कर सकता हैं। क्या वे समाज में स्वतंत्रता से जी सकती हैं। पहले नारी के लिए ना शिक्षा थी और ना ही उनके कोई अधिकार थे। आज के समय शिक्षा और अधिकार दोनों नारी के लिए है पर ये होने के बावजूद भी आज भी वो सुरक्षित नही।
क्या ये दर्द कभी खत्म होगा
सतयुग की सीता से लेकर आज के युग की निर्भया कहें या दामिनी, जैनब कहें या वो 8 माह की बच्ची जिसने अभी इस दुनिया में कदम रखा और कदम रखते ही एक भयानक सच उसके सामने आया। जिस सच को वो दर्द के रूप में महसूस कर रही हैं। सतयुग की सीता को अपनी ही पवित्रता का सबूत देने के लिए धरती में समाना पड़ा तो आज की लड़किया, औरतें और बच्चियों को अपनी पवित्रता बचाने के लिए रोज लड़ाई लड़नी पड़ रही हैं। जनवरी 2018 में हरियाणा के पानीपत में 11 साल की बच्ची के साथ हैवानियत की गई। ऐसा लगता है जैसे निर्भया कांड के बाद हैवानियत और बढ़ गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन अपराधों को रोकने के लिए कानून कठोर नहीं किया गया बल्कि ऐसे दंरिदों को और आजादी दे दी गई है, जिसका परिणाम हम सबके सामने हैं। दिल्ली पुलिस के अनुसार 2017 में 2049 रेप के मामले दर्ज हुए। दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक हर दिन 5 से अधिक मामले रेप के दर्ज किए गए। यौन हिंसा के लगातार मामले सामने आ रहे हैं। सख्त कानून के बावजूद भी को सुधार नहीं। हर वर्ग की महिलाएं, बच्चियां यहां तक की बुर्जुग औरतें भी इस दरिदंगी का शिकार हुई हैं। अभी कुछ दिन पहले ही दक्षिण भारतीय अभिनेत्री का चलती गाड़ी में रेप फिर वीडियों बनाने का मामला सामने आया। तेजाबी हमलों जैसे घिनौने जुर्म का शिकार भी सिर्फ महिलाएं होती हैं। रंजिश इतनी की कुछ भी कर गुजरने को आदमी अपनी मर्दानगी समझने लगा हैं। भारत में भूर्ण की जांच पर रोक है और भूर्ण हत्या को गंभीर अपराध माना गया हैं। इसके बावजूद भी ये अपराध होता रहता हैं। लिंगभेदी मानसिकता के कारण ये अपराध किया जाता हैं। इतनी पाबंदी के बाद भी महाराष्ट्र के सांगली गांव में 19 बच्चियों के भूर्ण को पूलिस ने बरामद किया। तमाम जागरूकता के बावजूद भी भूर्ण हत्या जैसे अपराध बरकरार हैं। घरेलू हिंसा के मामलों में राजस्थान ने दूसरा स्थान हासिल किया है। कई बार तो ऐसी घटनाएं सामने आती है, जिन्हे देखकर लगता है कि क्या ये समाज जागरूक और शिक्षित है। रानोली गांव में रहने वाली कुछ महिलाओं को सलवार-कमीज पहनने की इजाजत इसलिए नहीं क्योकि वह गांव में रहती है, और गांव में उनके सलवार-कमीज पहने से परिवार की शान खराब होती है। बहू और बेटी में कहने को तो कोई फर्क नहीं लेकिन असलियत कुछ और ही है। बेटी अगर जींस-टीशर्ट पहने तो चलता है, लेकिन ये ही बहू पहने तो बात संस्कारों की आ जाती है। जयपुर शहर में रहने वाली रितु को इसलिए प्रताड़ित किया जाता है, क्योकि वह पढी-लिखी है और अपनी राय सबके सामने रखती है। उसे बदतमीज होने का उलाहना दिया जाता है। ये कहने को तो बहुत छोटी-छोटी बातें है, पर ये कहानियां हम अपने घरों में या फिर अपने आस-पास देख सकते हैं। ”यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता“ क्या ये वहीं देश है जहां ऐसे संस्कारों को माना जाता है। एक तरफ नवदुर्गा में कन्याओं को भोजन कराते है, दूसरी तरफ उन्हें कोख में ही मार दिया जाता है। एक तरफ औरतों को देवी का स्वरूप मानते है और दूसरी तरफ उन्हीं की इज्जत को तार-तार किया जाता है। गाय को माता मानने वाले इस देश में औरतों के साथ जानवरों जैसा सुलूक भी होता है। हम कौनसे दोहरेपन में जी रहे है। क्या हम सच में आधुनिक है या सिर्फ ये एक आडंबर है या फिर मन की तसल्ली। 21वीं सदीं में जहां हम आदमी और औरत की बराबरी की बात करते है। वहां बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान की जरूरत क्यों पड़ रही है। क्यों एक के बाद एक ब्लात्कार की वारदात सामने आ रही है। ऐसे तो हर क्षे़त्र में औरतें आदमियों के बराबर काम कर रहीं है। लेकिन ये स्वतंत्रता क्यों समाज को रास नहीं आती। क्या ये हमारा आधुनिक समाज है या फिर ये कहें कि आजाद तो हम हो गए लेकिन अपने मानसिकता को आजाद नहीं कर पाये। तस्लीमा नसरीन के शब्दों में जो धर्म और समाज औरत का सम्मान नहीं करते वह लोकतंत्र, मानव अधिकार और आजादी के खिलाफ होते है।
जिन्होने हार नहीं मानी
” एक रानी की तरह सोचिए, रानी असफलता से नहीं डरती, क्योकि वह सफलता की सीढ़ी है।“ यह विचार ओपेरा विनफ्रे का है। जो खुद भी इसका जीता जागता उदाहरण है। उनके जीवन में हुई अनहोनी ने कभी उनको डगमगाने नहीं दिया। ऐसा ही एक उदाहरण है लक्ष्मी। 15-16 साल की उम्र में एकतरफा प्यार में घिरे आशिक को ना कहने का खामियाजा तेजाबी हमले से भरना पड़ना। लक्ष्मी सिंगर बनना चाहती थी। एसिड अटैक के बाद वो सिंगर नहीं बल्कि लाखों-करोड़ों लड़कियों की प्रेरणा बनी। लक्ष्मी ने न बल्कि खुद के लिए लड़ाई लड़ी बल्कि खुले-आम बिकने वाले एसिड पर रोक लगाई। लक्ष्मी आज अपने पार्टनर आलोक दीक्षित के साथ मिलकर Stop के द्वारा एसिड अटैक पीड़ितो के लिए लड़ाई लड़ रही है। अमेरिकी अभिनेत्री अलीसा मिलानो के मी टू कैपेंन ने एक और मुहिम का आगाज किया। इस मुहिम के जरिए लाखों लड़कियों ने अपने खिलाफ हो रहे शारीरिक शोषण की आपबीती साझा करने कि हिम्मत दिखाई। महिला हिंसा के खिलाफ शुरू हुए मी टू कैंपेंन को 2017 का टाइम पर्सन ऑफ ईयर चुना गया। यौन प्रताड़ना व यौन हिसंक का खुलासा करने वाली महिलाओं को इस साल का पर्सन ऑफ ईयर चुना गया। इन्हे द साइलेंस ब्रेकर्स नाम दिया गया है। ये तो उन महिलाओं के साहस की कहानी हैं जिन्हे दुनिया जानती है पर कुछ ऐसी महिलाएं भी है जिन्हें दुनिया तो नहीं जानती पर उनकी हिम्मत किसी पहचान की मोहताज नहीं। ऐसे तो जयपुर शहर की शालिनी दोनों पैरों से चल-फिर नहीं सकती, लेकिन उन्होनें 186 भटके हुए बच्चों को अपने घर पहुचाया हैं। मिटटी के बर्तन बनाकर बैचने वाली लाली के पति देहांत बहुत जल्द ही हो गया था, खुद अनपढ़ रह कर अपने बच्चों को उच्च-शिक्षा के लिए तैयार किया।
महिला दिवस की सार्थकता
समाज का एक ऐसा वर्ग भी है जिसे नहीं पता ये महिला दिवस क्या होता है। शायद इसका कारण अशिक्षा है। इन महिलओं का कहना है कि हर दिन महिलाओं का होता है, बिना औरतों के क्या कोई दिन होता है। सब्जी बेचने वाली सरला कहती है ” हमारा दिन तो सूरज उगने से ही शुरू हो जाता है, सुबह चाय बनाने से लेकर रात को खाने बनाने तक, उपर से परिवार पालने के लिए सब्जी भी बेचनी होती है। अब बताओ ये काम हम ना करे तो कौन करे, कोई दिन हो सकता है भला हमारे बिना। अब ये महिला दिवस तो अमीरों के चोचले है, हम ना जाने ये क्या होता है“ सरला की बात सुनकर ऐसा लगा कि क्या है महिला-दिवस की सार्थकता। कहने को तो ये अंतर्राष्ट्रीय दिवस है, पर इसकी पहुंच सभी महिलाओं तक नहीं है। महात्मा गांधी ने कहा है ” एक आदमी को पढ़ाओगे तो एक ही व्यक्ति शिक्षित होगा। एक स्त्री को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार शिक्षित होगा“ यह कथन सौ फीसदी सत्य है। सरला जैसी कई औरते है जो शिक्षा से वंचित है और इसलिए वे अपने अधिकारों को नहीं समझ पा रही है। महिला दिवस की सार्थकता तभी है जब महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित नहीं रखा जाए। केवल एक दिन बड़ी-बड़ी बातें कर देने से या उनको एक दिन का सम्मान दे देने से जिम्मेदारी यहीं खत्म नहीं हो जाती। क्यों आज भी महिलाएं असुरक्षित है। क्यों हमेषा उनको ही हिदायत दी जाती है कि रात को मत घूमों, ऐसे कपड़े पहनों । क्यों हमेशा उनकी आजादी पर सवाल उठाया जाता है। क्यों कहीं अकेले जाने से पहले उनको सोचना पड़ता है। क्या ये है आजाद देश की आजाद नारी। महिला दिवस की सार्थकता तभी है जब महिलाएं भी बेझिझक रात हो या दिन हो आराम से कहीं भी जा सकती हो। जब किसी लड़की के जन्म से पहले उसे मारा ना जाए। जब दहेज जैसे अपराध खत्म हो जाए और किसी भी लड़की या महिला के साथ कोई भी बदतमीजी करने से पहले हजार बार सोचे। बाबा अंबेडकर ने कहा है किसी समुदाय की प्रगति, उस समुदाय में महिलाओं द्वारा की गई प्रगति से मापता हूं। सही मायनों में महिला दिवस की सार्थकता तभी है जब महिलाओं के प्रति अपराध खत्म हो जाए। उन्हे सुरक्षा, सम्मान और स्वतंत्रता प्रदान की जाए। वह भी आजाद पंछी कि तरह खुली हवा में सांस ले।
बंदिशों में नहीं खुलकर जीना है
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कुछ सच्ची, ईमानदार और उर्जावान महिलाएं, जितना कोई भीड़ एक सदी में कर सकती है उसके मुकाबले 1 साल मे कर सकती है। यही तो है एक महिला की शक्ति की वो कभी टूटती नहीं। यह एक संदेश है उन महिलाओं के लिए जो किसी न किसी प्रताड़ना का शिकार होती है। उनको ना कोई अपवित्र कर सकता है, ना ही एसिड अटैक से उनकी कोई मन की खूबसूरती छीन सकता है। ना ही कोई उनको चार-दिवारी में बंद कर सकता है। वो शक्ति का प्रयाय है उन्हें मजबूर मत करों कि वे ममता की मूरत से प्रचंड रूप धारण करे। यदि ऐसा हुआ तो यह उन सब कायरों के लिए एक चेतावनी है जो उन्हे जितना जल्दी हो उतना जल्दी समझ लेनी चाहिए। केवल मर्दो से दुनिया नहीं चलती। औरत जननी है बिना उसके संसार की कल्पना करना भी मूर्खता है। हर महिला के लिए महिला दिवस पर एक ही गुजारिश………………..हर चीज से बढ़कर अपने जीवन की नायिक बनिए, शिकार नहीं……….नोरा एफ्रेन
नीतू शर्मा
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