कश्मीर समस्या: आखिर क्या करें चिन्तित नागरिक

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पिछले सात दशकों से कश्मीर राजनीतिक नेताओं, पूर्व ब्यूरोक्रेट्स, सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ताओं, संगठनों और यहां तक कि पत्रकारों के लिए भी महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है और कश्मीर को समस्या कहा गया है। कश्मीर भारत के उत्तरी इलाके का वो राज्य है जिसमें जम्मू, कश्मीर और लद्दाख आता है। आजादी के बाद से ही कश्मीर मुद्दा भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में एक फांस बना हुआ है। आज कश्मीर का उल्लेख भारत के एक राज्य, जिसे विशेष दर्जा दिया गया है, के रूप में न होकर समस्या के रूप में होता है। आज जब हम कश्मीर की बात करते हैं तो मुद्दा होता है आतंकवाद, निर्दोषों की हत्या, राजनीति, कश्मीरी पंडित या लाइन आफ कंट्रोल पर होने वाली गोलाबारी। यहां की खूबसूरती और पर्यटन पर ज्यादा चर्चा नहीं होती। हां, जहांगीर के हवाले से इतना जरूर कहा जाता है- जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है। (गर फिरदौस बर रूये जमी अस्त, हमी अस्तो हमी अस्तो, हमी अस्त) 1947 से ही कश्मीर समस्या का कोई हल नहीं निकल पाया है। उपमहाद्वीप में यह अब तक का सबसे महंगा विवाद बन गया है जहां अब तक अनगिनत लोगों की जानें गईं है। सैनिक हताहत हुए हैं और चार युद्ध भी हो चुके हैं। सच तो यह है कि जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने राज्य का भारत के साथ विलय किया था और आज 70 वर्ष बाद भी पाकिस्तान ने इस विलय को नहीं माना है। पर अब तो हमें घड़ी की सुइयों को पूरी तरह से उल्टा घुमाना होगा। और विचार करना होगा कि विलय की मूल शर्तों के मद्देनजर आज की स्थिति में क्या कुछ कर पाना संभव है? समस्या का कोई खुद ब खुद हल निकल आएगा, इसकी उम्मीद करना समझदारी नहीं कही जा सकती। कश्मीर समस्या को बिल्कुल सीधे-सपाट शब्दों से नहीं समझा जा सकता है। इस राज्य को लेकर दो दृष्टिकोण हैं – एक कश्मीरी और दूसरा गैरकश्मीरी या कह सकते हैं कि हमारा नजरिया। कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है। कश्मीर को भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा हासिल है ठीक उसी तरह से जिस तरह अनुच्छेद 371 में नगालैंड, असम, मिजोरम, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को विशेष दर्जा हासिल है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि 1947 में जब बंटवारे के बाद पाकिस्तानी कबायली सेना ने कश्मीर पर हमला कर दिया तो कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ विलय की संधि की। इस पर बौखलाए पाकिस्तान ने कबालियों के माध्यम से भारत पर हमला कर दिया। युद्ध इस बात का साक्षी है। 1948 में भारत ने कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में उठाया। संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव 47 पास किया जिसमें पूरे इलाके में जनमत संग्रह कराने की बात कही गई। लेकिन प्रस्ताव के मुताबिक पाकिस्तान ने कश्मीर से सैनिक हटाने से इनकार कर दिया और फिर कश्मीर को दो हिस्सों में बांट दिया गया। 1951 में भारतीय कश्मीर में चुनाव हुए और भारत में विलय का समर्थन किया गया। जम्मू कश्मीर की नई निर्वाचित सरकार ने भारत में कश्मीर के विलय पर मुहर लगाई। भारत का कहना था कि अब जनमत संग्रह का जरूरत नहीं बची है पर संयुक्त राष्ट्र और पाकिस्तान जनमत संग्रह पर अड़े रहे। कश्मीर के तीन-चौथाई भाग पर भारत का और एक-चौथाई पर पाकिस्तान का कब्जा है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 1962 की लड़ाई में चीन ने  अक्साई चिन पर नियंत्रण कर लिया। इसके अगले साल ही पाकिस्तान ने कश्मीर का ट्रांस काराकोरम वाला हिस्सा चीन को दे दिया। कश्मीर की समस्या अभी भी ज्वलंत बनी हुई है। बौद्धिक वर्ग के लोग प्रश्न उठाते हैं कि जम्मू और लद्दाख के लोग जब भारत में खुश हैं, तो कश्मीर में इतने उपद्रवी हालात क्यों हैं? ऐसा भी नहीं है कि कश्मीर समस्या के हल की कोई कोशिश नहीं हुई। अटल बिहारी वाजपेयी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ ने भी कोशिश की थी। फरवरी 1999 में वाजपेयी की लाहौर यात्रा के मौके पर दोनों ने ‘लाहौर समझौते’ पर हस्ताक्षर किए थे। बाद में नवाज शरीफ ने कहा था, कश्मीर मुद्दे को सुलझाने का फार्मूला दुर्भाग्यवश उस समय सैन्य पलट करके जनरल परवेज मुशर्रफ ने पटरी से उतार दिया था।

जनगणना के आंकड़े

1951 में जब देश की जनगणना हुई तब भारत की आबादी 36,10,88,090 यानी छत्तीस करोड़ थी और 2011 की जनगणना के अनुसार 1,21,08,54,977 यानी एक अरब इक्कीस करोड़ के लगभग। अब भारत की आबादी सवा अरब तक पहुंच रही है। इतने लम्बे समय तक हर भारतीय कश्मीर समस्या को जस का तस देख रहा है। कभी एक कदम आगे तो कभी दो कदम पीछे। इतने सालों में आज तक शायद ही कोई महीना ऐसा रहा हो जब भारतीय जवान या कश्मीरी इस समस्या के शिकार न हुए हों। आकड़े गवाह है कि भारत सरकार कश्मीर को चार लाख करोड़ रुपया प्रत्यक्ष सहायता के रूप में दे चुकी है। इसके अलावा सीमा की रक्षा, आतंकवाद से निपटने मामलों पर लाखों करोड़ रुपए खर्च हुए हैं जिसका सिलसिलेवार ब्यौरा नहीं है। अभी भी कश्मीर के लिए हजारों करोड़ की सरकारी सहायता की मांग की जाती है, कश्मीरी युवाओं के लिए विशेष मांग की जाती है,पर इसका कोई हिसाब बताने वाला नहीं है कि कश्मीर के लिए चार लाख करोड़ की प्रत्यक्ष सहायता जो दी गई, वह कहां खर्च हुई। आखिर चिन्तित नागरिक क्या करें?

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