बिना विपक्ष कैसा लोकतंत्र!

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मौजूदा सियासी हालात में विपक्ष की एकजुटता बन गई है लोकतंत्र की अनिवार्यता

लोकतंत्र तभी बच सकता है, जब शासन जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता का हो। जनता का शासन उसे कहते हैं जब सरकार हर फैसला जनहित में जनता का मत जानकर ले। जनता का मत जानने का मतलब है सदन में जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी। यानी सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों में ऐसे जनप्रतिनिधि हों जो जनहित का खयाल रखें। इसके लिए जरूरी है। दरअसल, सरकार किसी की भी हो, विपक्ष मजबूत न हो तो स्वेच्छाचारी हो सकती है, मनमानी की परिणति तानाशाही में हो सकती है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा हो तो जनतंत्र के लिए ज्यादा घातक है। गत लोकसभा चुनाव के बाद विपक्ष छिन्न-भिन्न है या यह भी कह सकते हैं कि निराशा और हताशा की स्थिति में ही रहा। प्रतिपक्ष की पतली हालत के कारण सत्तापक्ष न सिर्फ आत्ममुग्ध है, बल्कि बड़े फैसलों में एक तरफा निर्णय लेकर उन्हें लागू कर दिया। इन हालात में सत्तारूढ़ दल और राजनीतिक प्रेक्षक भले ही मान बैठे हों कि विकल्पहीनता की स्थिति में बीजेपी 2019 का चुनाव आसानी से जीत जाएगी।

जयपुर में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विपक्षी एकता के लिए १४ सितंबर को हुए साझा विरासत बचाओ सम्मेलन में कांग्रेस, जेडीयू, सीपीआईएम, एनसीपी, आरजेडी इत्यादि १५ दलों के नेताओं ने एकता का आह्वान किया। अलबत्ता, राष्ट्रपति चुनाव में नीतीश कुमार और उप राष्ट्रपति चुनाव में हुए विपक्षी वोटों के बिखराव का साया भी सम्मेलन पर दिखाई दिया। इस तरह के एकता के प्रयासों की नींव गत अप्रेल के दूसरे सप्ताह में जब संसद का बजट सत्र समाप्त होने वाला था तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआईएम) के महासचिव सीताराम येचुरी संसद के गलियारों में एक-दूसरे से मिले। उस वक्त राष्ट्रपति चुनाव का मुद्दा था, इसे लेकर विपक्षी एकता की हल्की-सी बात हुई थी। फिर, उनकी सोनिया गांधी के आवास पर गुप-चुप मीटिंग हुई। उसके बाद ही साझा विरासत बचाओ के प्रयासों ने गति पकड़ी।

हालांकि इन प्रयासों का भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने मजाक उड़ाया। वे यह भूल गए कि राजनीति हो या कोई और मैदान वक्त एक-सा नहीं रहता। कमजोर विपक्ष की स्थिति पूर्व में भी रही है, खासकर राजीव गांधी के कार्यकाल तक। लेकिन, जो विपक्ष जो छिन्न-भिन्न टूटा-फूटा लगता था, वह पहले वीपी सिंह और फिर वाजपेयी के नेतृत्व में एकजुट हुआ तो कांग्रेस को पवैलियन लौटना पड़ा। यूपीए और एनडीए बनना कोई एक दिन की कोशिश नहीं थी, विचारधाराओं के टकराव पर लोकतंत्र की मांग भारी पड़ी और एकजुटता के रूप में सामने आई।

इंदिरा को भी मिली दो बार चुनौती-

इंदिरा गांधी को तो दो मर्तबा 1967 और 1977 में एकजुट विपक्ष की कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। केंद्र में कांग्रेस को वर्ष 1977 से 2014 तक आधा दर्जन बार विपक्षी एकता के सामने शिकस्त का सामना करना पड़ा। आपको बता दें कि साठ के दशक के शुरू में सत्ता का पर्याय बन चुकी कांग्रेस के सामने विपक्ष अवसाद की स्थिति में था, सत्ता के सामने कई चुनौती नहीं दिख रही थी। तब मजबूत दिखती कांग्रेस हिल गई। उसी दौरान समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ’ का नारा देकर विपक्ष को एक किया। इसका असर यह हुआ कि नौ बड़े राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, पंजाब और उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्यें में गैर कांग्रेसी सरकारें बनी। साथ ही, केंद्र में कांग्रेस की ताकत कम हुई और वह 364 (1962) से 283 सीटों पर आ गई। फिर, आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस को सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा 1977 के आम चुनाव में। १९६७ में एकजुट हुए विपक्ष के बिखरने के बाद इंदिरा गांधी इतनी ताकतवर हो गई कि अपने खिलाफ अदालत के आदेश के बाद आपातकाल लगा दिया। तब लोकतंत्र बचाने को छोटे-छोटे दलों में विभक्त विपक्ष एक हुआ जनता पार्टी के नाम से और 330 सीट के साथ सत्ता में आया। लेकिन जैसे ही एकता टूटी, 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस सत्ता में लौटी। आठवीं लोकसभा के 1984 में हुए चुनाव में सहानुभूति लहर (इंदिरा गांधी की हत्या) में कांग्रेस ने 401 सीट हासिल की, तो 1989 में बोफोर्स घोटाले के मुद्दे पर एकजुट विपक्ष ने कांग्रेस दूसरी बार सत्ता से बाहर किया। इसके बाद 1997 से 2004 तक भी कांग्रेस विपक्ष में बैठी। यह विपक्षी एकता के कारण ही संभव हुआ।

सर्वशक्तिमान न मानें एनडीए को-

वैसे, वर्तमान हालात में आज के सत्ताधीशों और एकतरफा राय रखने वाले राजनीतिक प्रेक्षकों को स्मरण रखना चाहिए कि देश में हुए सोलह आम चुनावों में से दस में कांग्रेस सत्ता में आई। छह बार पूर्ण बहुमत से और चार बार गठबंधन का नेतृत्व करते हुए। जाहिर है, कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई भी तो लौटी है, कभी खुद के बूते तो कभी गठबंधन के सहारे। वर्तमान में कांग्रेस नीत यूपीए फिर सत्ता के बाहर है। विपक्षी एकता फिर टूट रही है। ऐसे में विकल्प के रूप में उभरना तो दूर की बात फिलहाल सभी विपक्षी दलों को साथ लाने के प्रयास भी बढ़ाने पड़ेंगे। बिहार का महागठबंधन टूट चुका है। फिर भी, ध्यान रहे कि एनडीए 18 राज्यों में भले ही सत्ता में हो, लेकिन 1967 की तरह अभी भी पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, पंजाब जैसे बड़े राज्यों में सत्ता तो दूर विपक्ष की भूमिका भी मजबूती से निभाने की स्थिति में भी नहीं है। तो, कुछ राज्यों में बहुमत-अल्पमत के बीच बारीक रेखा पर है।

सर्वमान्य नेता नहीं विपक्ष के पास-

केंद्र में मोदी सरकार बने तीन साल हो गए, मगर विपक्षी दल कोई ऐसा नेता नहीं खोज पाए हैं, जिसमें सभी को आस्था और विश्वास हो, या जो व्यक्तित्व में मोदी पर भारी पड़ सके। हालांकि विपक्ष बार-बार इकट्ठा हो रहा है पर जुड़ नहीं रहा। दरअसल, इसे जोड़े रखने वाला ऐसा नेता नहीं मिल रहा हो, जो या तो जन नेता हो या फिर राजनीति से दीगर अपना तगड़ा वजूद रखता हो। राहुल गांधी में कथिर रूप से परिपक्वता की कमी के वे सर्वसम्मत नेता नहीं बन पा रहे, तो व्यक्तित्व में वो आकर्षण नहीं कि वोट खींच सके। इस मामले में राहुल और सोनिया गांधी को मोह छोडऩा पड़ेगा, हां अगर प्रियंका गांधी को लॉन्च किया जाए तो करिश्मे की उम्मीद की जा सकती है। वे कई मौकों पर अपनी राजनीतिक समझ की झलक दिखा भी चुकी हैं। या फिर, मीरा कुमार जैसी नेता को आगे किया जा सकता है, एक तीर से दो निशाने सध सकते हैं, दलित वोट का धु्रवीकरण और परिवारवाद के साथ ही विदेशी नागरिकता के आरोप से भी मुक्ति मिलना।

क्षेत्रीय हितों में उलझे दल-

उत्तर प्रदेश के सपा-बसपा के साथ ही ओडि़शा में बीजद के अलावा कई छोटे दलों को क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता भुलाकर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक होना पड़ेगा। तमिलनाडु में  सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक, आंध्र प्रदेश में वाई एस जगनमोहन रेड्डी की अगुआई वाली वाईएसआर कांग्रेस और तेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) भले ही राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए प्रत्याशी के समर्थन में रही हो, लेकिन अपने-अपने क्षेत्रीय हितों के कारण तटस्थ की स्थिति में हैं। इनको भरोसा दिलाने वाला गठबंधन इनको साथ ले सकता है।

अक्षिता शर्मा-

डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।