लखनऊ: मामला उत्तर प्रदेश सरकार के प्रचार से जुड़ा हुआ है! योगी आदित्यनाथ की सरकार ने बाकायदा टेंडर निकलवाकर अपने प्रचार का जिम्मा एक निजी कंपनी को सौंपा था। दिल्ली की यह कम्पनी मुख्यतः भाजपा शासित प्रदेशों और केंद्रीय मंत्रालयों में पब्लिक रिलेशन काम करती है।
जनवरी २०१९ से इस कम्पनी ने उत्तरप्रदेश में सेवाएं शुरू की। सरकार चाहती थी कि न केवल राज्य बल्कि दिल्ली की मीडिया में भी उसके कामकाज की चर्चा होती रहे। मुख्यमंत्री योगी इसके लिए राजी नहीं थे पर अधिकारियों के कहने पर उन्होंने हामी भर दी।
उत्तर प्रदेश सरकार और पीआर कंपनी के बीच तकरीबन ढाई करोड़ का वार्षिक करार हुआ। यूपी लोक भवन में कंपनी को एक सुसज्जित कमरा भी दिया गया। कंपनी का कामकाज योगी आदित्यनाथ को शुरुआत में ही पसंद नहीं आया। उनकी सराहना पाने के लिए लोकसभा चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू होने के बावजूद इस कंपनी ने भाजपा के प्रचार में हिस्सेदारी की। योगी पर उसका भी प्रभाव नहीं पड़ा।
योगी की नाराजगी लगातार बढ़ती रही। टेंडर के आधार पर कम्पनी के कामकाज को लेकर बहुत सी शिकायतें आईं। कुछ भ्रामक खबरें प्रकाशित हुईं, जिसके नोटिस भी जारी हुए। हालांकि साल के अंत तक कंपनी अपना काम बनाए रखने में सफल रही। इसके पीछे कंपनी का वो रसूख था जो उसने प्रधानमंत्री कार्यालय के नाम पर बनाया है।
कंपनी खुद को पीएमओ के अधिकारियों का करीबी बताती है। कहा जाता है, पीएमओ की तरफ से इस कंपनी की सिफारिश होती है और उसके पास गुजरात सरकार के प्रचार का भी काम है और वह मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को अपने कामकाज की सफलता से जोड़ती है।
मजे की बात इस कंपनी को काम देनेवाले मंत्रालयों और प्रदेश सरकारों के अधिकारियों ने कभी इसकी पुष्टि नहीं की। पीएमओ का नाम सुनकर ही काम दे दिया जाता रहा। उत्तर प्रदेश में खराब काम की वजह से आए दिन सरकार को मुश्किल में डाल देनेवाली इस कम्पनी को दोबारा टेंडर मिलने की प्रशासनिक महकमे में खासी चर्चा थी।
कम्पनी ने इस बार अपने साथ दिल्ली के एक प्रतिष्ठित पत्रकार को जोड़ा था, जिसके प्रभाव से अधिकारियों की स्वीकृति मिल गई थी। पीआर टीम दोबारा काम शुरू कर चुकी थी कि ख़बर आई मुख्यमंत्री ने साफ मना कर दिया है। अगले ही दिन कम्पनी को काम बंद करना पड़ा।
अब बात हो रही है कि इस कम्पनी से राज्य सरकार के अधिकारियों का क्या सम्बन्ध था! जो मुख्यमंत्री की नाराज़गी मोल लेते हुए उसे दोबारा टेंडर दिया गया? और इस कंपनी का पीएमओ से क्या लेना देना है? क्या पीएमओ के कहने पर ही इस कंपनी को काम मिलता है? या पीएमओ का नाम इस्तेमाल कर सरकारी टेंडर हासिल किए जाते हैं?