नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फैसला सुनाया कि मां, बच्चे की एकमात्र प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते, बच्चे का उपनाम (Surname) तय करने का अधिकार रखती है। न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने कहा,कोई भी मां बच्चे के बायोलॉजिकल पिता की मौत के बाद उसकी इकलौती लीगल और नैचुरल गार्जियन होती है। उसे अपने बच्चे का सरनेम तय करने का पूरा अधिकार है। अदालत ने कहा कि अगर वह दूसरी शादी करती है तो वह बच्चे को दूसरे पति का सरनेम भी दे सकती है।
क्या है मामला-
सुप्रीम कोर्ट में यह केस आंध्र की अकेला ललिता ने दायर किया था। ललिता ने 2003 में कोंडा बालाजी से शादी की थी। मार्च 2006 में उनके बेटे के जन्म के तीन महीने बाद कोंडा की मौत हो गई। इसके बाद अकेला के सास-ससुर ने बच्चे का सरनेम बदलने पर विवाद खड़ा कर दिया।
ललिता ने पति की मौत के एक साल बाद भारतीय वायुसेना में विंग कमांडर अकेला रवि नरसिम्हा सरमा से शादी की। इस विवाह से पहले ही दंपती का एक बच्चा और था। ये सभी एक साथ रहते हैं। जब विवाद शुरू हुआ उस समय बच्चा अहलाद अचिंत्य महज ढाई महीने का था। अब उसकी उम्र 16 साल और 4 महीने है।
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सास-ससुर ने पोते का सरनेम बदलने पर किया केस अहलाद के दादा-दादी ने 2008 में अभिभावक और वार्ड अधिनियम 1890 की धारा 10 के तहत पोते का संरक्षक बनाने की याचिका दायर की थी। इसे निचली अदालत ने खारिज कर दिया था। इसके बाद दादा-दादी ने आंध्र हाईकोर्ट में याचिका लगाई कि बच्चे का सरनेम कोंडा से बदलकर अकेला कर दिया गया है। ललिता को गार्जियन मानते हुए हाईकोर्ट ने उन्हें बच्चे का सरनेम कोंडा करने का निर्देश दिया।
हाईकोर्ट की नासमझी सुप्रीम कोर्ट की फटकार-
डॉक्यूमेंट्स में ललिता के दूसरे पति का नाम सौतेले पिता के रूप में शामिल करने के हाईकोर्ट के निर्देश को सुप्रीम कोर्ट ने इसे क्रूरता और नासमझी की श्रेणी में रखा। कहा कि यह बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य और आत्मसम्मान को प्रभावित करेगा।
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कोर्ट ने यह भी कहा कि एक सरनेम बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक बच्चा इससे अपनी पहचान हासिल करता है। उसके और परिवार के नाम में अंतर होने से गोद लेने का फैक्ट हमेशा उसकी याद में बना रहेगा, जो बच्चे को माता-पिता से जोड़े रखने के बीच कई सवाल पैदा करेगा। हम याचिकाकर्ता मां को अपने बच्चे को दूसरे पति का सरनेम देने में हमें कुछ भी गलत नहीं दिखता।
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