दिल्ली: विधानसभा चुनावों से पहले सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला आया है। कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा की व्याख्या करते हुए कहा है कि चुनाव में उम्मीदवार या पार्टी धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर वोट नहीं मांग सकते। आपको बता दें सुप्रीम कोर्ट की एक कॉन्स्टीट्यूशनल बेंच होती है जो कानूनी मसलों पर विचार करती है। 7 जजों वाली बेंच में से 4 जज धर्म-जाति और भाषा के आधार पर वोट मांगने के खिलाफ थे, जबकि तीन इसके पक्ष में थे।
इस तरह 1951 के रीप्रेजेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट (RP एक्ट) की नई व्याख्या कर दी है। जस्टिस टीएस ठाकुर की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि कोई चुनावी कैंडिडेट या उसके प्रतिनिधि धर्म, जाति या भाषा का इस्तेमाल वोट मांगने के लिए नहीं कर सकते।
कोर्ट ने कहा, ‘भगवान और मनुष्य के बीच का रिश्ता निजी मामला है। कोई भी ‘राज्य’ (माने सरकार) किसी एक धर्म के साथ विशेष व्यवहार नहीं कर सकती।’
कोर्ट ने ये कहा कि न सिर्फ उम्मीदवार, बल्कि उम्मीदवार के विरोधी भी, उसके खिलाफ बोलने में उसके धर्म, जाति या भाषा को निशाना नहीं बना सकेंगे। ऐसा होने पर इसे RP एक्ट की धारा 123(3) के तहत ‘करप्ट प्रैक्टिस’ मना जाएगा। ये 7 में से 4 जजों का रुख था। बाकी 3 जजों की राय ये रही कि चूंकि लोगों के साथ धार्मिक, जातीय या भाषाई आधार पर भेदभाव हुआ है, इसलिए चुनावी प्रक्रिया में धर्म, जाति या भाषा ‘दीवार’ नहीं बन सकती। कोर्ट ने फैसले में ये भी कहा कि चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है। इसलिए उम्मीदवार का कार्यकलाप भी धर्मनिरपेक्ष ही होना चाहिए।
सुनवाई के बीच कोर्ट ने साफ़ किया था कि वो ‘हिंदुत्व’ शब्द की दोबारा व्याख्या नहीं करेगा। 1995 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि हिंदुत्व ‘जीने का तरीका’ है, न कि कोई एक ख़ास धर्म।
- पिछले पांच साल में मध्यप्रदेश में 89 बाघों की मौत
- NSG की वेबसाइट हैक, PM मोदी के खिलाफ की गई आपत्तिजनक टिप्पणी
ये फैसला उस मामले पर आया है जो मध्यप्रदेश के नारायण सिंह ने सुन्दर लाल पटवा के खिलाफ दायर किया था। सुन्दर लाल पटवा एक वक़्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे। नारायण ने पटवा के खिलाफ चुनाव लड़ा था और वो चुनाव याचिका पटवा के खिलाफ डाली थी, जिस पर मामला सुप्रीम कोर्ट तक आया। 5 जजों की बेंच से हो होकर मामला अब 7 जजों की बेंच तक पहुंचा था।