खतरे की ओर बढ़ते हम

0
617

अरस्तु ने कहा है प्रकृति की सभी चीजों में कुछ ना कुछ अदभुत हैं। उगता हुआ सूरज रोशनी देता है, खिलखिलाते फूल महक देते हैं, पक्षियों की चहचहाट जिंदगी मे सुकुन भरती हैं। प्रकृति की इस सुरम्य वाटिका में कितने सारे उपवन है जो मन को शीतलता प्रदान करते हैं। यह प्रकृति एकमात्र मनुष्य के लिए ही नहीं बनाई गई, बल्कि विभिन्न प्रकार के प्राणियों का संसार हैं। प्रकृति हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं जो कि हमारे जीवन को आसान बनाती हैं। ईश्वर का दिया है सबसे सुंदर तोहफा है प्रकृति। प्रकृति सिर्फ देती ही नहीं बल्कि हमें जीवन जीने का तरीका भी सिखाती हैं। प्रकृति हमारी भूख मिटाती है तो औषधि बनकर हमारी सेहत का ध्यान भी रखती हैं। सूरज की धूप अगर तन को जलाती है तो पेड़ो की छाया तन को ठंडक पहुंचाती है। क्या हम परमात्मा की इस बेहद खूबसूरत देन का ख्याल रख पा रहें है? या सिर्फ अपने ही स्वार्थ के लिए इसकी बलि दिन पर दिन चढ़ाए जा रहे हैं।

घटते जलस्त्रोत

कलकल करती नदियां, कर रही विलाप

सूखे कुएं, सूखी नहरें कैसा हो गया हाल

मनुष्य के पास सृजन की शक्ति हैं। ईश्वर ने मनुष्य को सृजनकर्ता के रूप में इस धरती पर जन्म दिया। स्वार्थी प्रवृति के कारण मानव इस दंभ में जी रहा हैं और प्रकृति के सृजन को छोड़कर वो विनाश के और इसे ले जा रहा हैं। ये ही कारण है कि आज नदियां, समुद्र, कुएं सब प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। एक समय वो भी था जब ये नदियां-नहरों का जल पथिकों की प्यास बुझाता था। बेझिझक राहगीर इस पानी का प्रयोग पीने के लिए करते थे। एक समय ये है कि शुद्ध जल अब बोतलों में किसी न किसी ब्रांड के रूप में बिक रहा है। जलसंकट जिस हिसाब से दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है ये स्थिति चिंताजनक हैं। देश के कई इलाके ऐसे है जहां पानी कि इतनी किल्लत है कि लोगों का आधा जीवन दूर-दराज क्षेत्रों से पानी लाने में निकल गया। सघन वनों की बारिश भी अच्छी हुआ करती थी लेकिन जंगलों की कटाई के कारण बारिश का स्तर भी कम हो रहा हैं। वन व वानस्पतिक आवरण कम होने से बारिश का पानी नदी-नालों से बह जाता हैं। भूमि में वर्षा के जल का पर्याप्त अवषोषण नहीं हो पाता। सिंचाई, पीने का पानी तथा अन्य दूसरे कार्यो के लिए जरूरत से ज्यादा दोहन के कारण जलस्तर कम होता जा रहा हैं। गांवों क साथ-साथ महानगर भी जल संकट का सामना कर रहे हैं। जून माह की एक रिपोर्ट के अनुसार तमिलनाडु में 140 साल में सबसे भयंकर सूखा तथा चैन्नई में पीने के पानी की आपूर्ति आधी हुई। शहर के चार मुख्य जल भंडार पूंदी, रेड हिल्स, चोलावरम तथा चेम्बरम्बक्कम सूख गए, इसलिए शहर में पेयजल की आपूर्ति रोजाना नहीं हो पा रही हैं। लगभग 200 किलोमीटर दूर नैवेली में बनी वीरनम झील, जहां से एक बड़ी पाइपलाइन के जरिए चेन्नई को पानी मिलता है, वो भी सूख चुकी है। चेन्नई और उससे सटे हुए जिलों में हजारों झीलें, तालाब आदि मौजूद है। इन जल संरचनाओं कि देखभाल सहीं ढंग से हुई होती तो इस भयंकर जलसंकट का सामना नहीं करना पड़ता। छतीसगढ़, रायपुर में रविशंकर बांध भी खाली होने की कगार पर हैं। बारिश कम होने की वजह से जल संकट की चिंता सताने लगी है कि राज्य के करीब 43 बांधों में जलस्तर काफी कम हो चुका हैं। पिछले दिनों एक खबर के अनुसार कोयम्बटुर, तिरूपुर मे अविनाशी टाउन के 150 से अधिक निवासियों ने सड़क को ब्लॉक कर दिया। यह प्रदर्शन पीने के पानी की उपलब्धता की मांग के लिए था। गंगा, यमुना नदियों को पूजा जाता है। ये भी एक विडंबना ही है कि पूजनीय होने के बावजूद भी ये नदियां दूषित हो रही हैं। नदियों के बचाव के लिए कई सरकारी परियोजनाएं बनी लेकिन उनका कोई असर दिखाई नहीं देता हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं विज्ञान और पर्यावरण केंद्र द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के आंकडों ने नदी के प्रदूषण की तस्वीर प्रस्तुत की है। 445 नदियों का सर्वेक्षण किया गया जिससे पता चला कि इनमें से एक चौथाई नदियां भी स्नान के योग्य नहीं है। यमुना नदी एक कचरे का ढ़ेर बन चुकी है। गंगा नदी को सबसे प्रदूषित नदी का खिताब मिल चुका है। जल संकट से उबरने के लिए जरूरत है एकजुट होने की। जल बचाने का संकल्प हर इंसान को लेना हैं। नदियों पर हो रही राजनीति से बचकर नदियों के रख-रखाव की जिम्मेदारी समझनी होगी। नही तो वो दिन दूर नहीं जब मानव बूंद-बूंद को तरसने पर मजबूर हो जाएगा। इस भयावह जलसंकट को देखते हुए रहीम दास जी का एक दोहा याद आता है रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे मोती मानुष चून।

पहाड़ों की नष्ट होती खूबसूरती

कुदरत बहुत सारे रंगो से भरपूर हैं उसमें से एक रंग पहाड़ों का भी है। हरियाली ओढ़े ये पहाड़ हर मन को लुभाते हैं। तभी तो गर्मियां आते ही मन करता है किसी हिल स्टेशन पर जाने का। ऊंचे- ऊंचे पहाड़ों पर जाकर सेल्फी लेने का शौक सबको हैं। सब चाहते हैं कि पहाड़ों का बैकग्राउंड के साथ कोई अच्छी से तस्वीर हो। लेकिन जितनी तेजी से इनकी कटाई हो रही हैं, उस हिसाब से तो लगता हैं एक दिन ये आकर्षक बैकग्राउंड कहीं लुप्त हो जाएगा। मानव ने हमेशा अपने मतलब को पूरा किया हैं। अवैध खनन से पहाड़ों का नामो-निशान मिट रहा हैं। राजस्थान के अलवर जिले के विभिन्न क्षेत्रों में अवैध खनन को अंजाम दिया जा रहा है। अवैध खनन को रोकने में नाकाम रहने से भिवाड़ी, टपूकड़ा, तिजारा और किशनगढ़ की कई पहाड़िया नष्ट होने के कगार पर हैं। अवैध खनन से पहाड़ों को नुकसान पहुंच रहा हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल प्रदेश में उना मुख्यालय के पास पेड़ों और पहाड़ों की कटाई का कार्य जोर-शोर से चल रहा हैं। उना जिले के पेखूबेला में बन रहे इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के डिपो निर्माण के लिए खनन कार्य चल रहा हैं। विकास के नाम पर जिस तरह से खनन कार्य किया जा रहा हैं उसी की वजह से प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी हुई हैं। कभी भी कोई पहाड़ कि मिटटी धंस जाती हैं, कभी भी भू-स्खलन हो जाता हैं। पहाड़ों की खोती खूबसूरती की एक वजह अवैध मंदिरों का निर्माण भी हैं। छोटी-छोटी पहाड़ियों पर एक छोटे से मंदिर को बड़ा रूप देकर, वहां पर प्रसाद और पूजन सामग्री के दुकानें लगाकर उस पहाड़ी की खूबसूरती को बरबाद किया जाता हैं। राजस्थान में कई जगह पर ऐसे मंदिरों का निर्माण हो रहा हैं। आस्था कि आड़ में पैसे कमाने के चक्कर में लोग इन छोटी पहाड़ियों को गंदा करते हैं। आस-पास में सफाई की कोई व्यवस्था नहीं होती हैं। ऐसा ही नजारा चुरू जिले के स्याणन गांव में देखने को मिला। इस गांव में एक मंदिर है जिसे डूंगरी की माता कहा जाता हैं। जो किसी समय छोटा सा हुआ करता था लेकिन अब इसे एक विशाल रूप दे दिया गया हैं। किंवदतियों के अनुसार ये पहाड़ी महाभारत काल में भीम ने निर्मित की थी। इस पहाड़ी को निर्मित करने का उदेश्य स्वयं का मनोरंजन था। ऐसी किवंदतियों के कारण इन पहाड़ियों का व्यवसायीकरण हो रहा हैं। प्रकृति से कि गयी छेड़छाड़ विनाश का कारण बनती है। हम जितनी जल्दी ये बात समझ जाये ये उसके लिए अच्छा होगा।

वनों का विनाश

पर्यावरण का महत्वपूर्ण अंग वन और पेड़ भी हैं। प्राचीनकाल से ही पेड़ों में देवताओं का निवास माना जाता हैं। ज्यादातर घरों के आंगन में तुलसी का पौधा आज भी देखा जाता हैं। पुरानी कहावत के अनुसार एक पेड़ 100 पुत्रों के बराबर होता हैं। आज के आधुनिक समय में जनसंख्या के साथ-साथ पेड़ों की कटाई भी बढ़ गई हैं। जंगलों की कटाई का कार्य अंधाधुंध तरीके से चल रहा हैं। एक तरफ सरकार जंगलों को बचाने का प्रयास कर रही हैं वहीं दूसरी और सरकार की आंख के नीचे लकड़ी के माफिया अवैध रूप से जंगलों की कटाई के कार्य को भलीभांति अंजाम दे रहे हैं। वनो की कटाई से मिटटी, पानी आदि का हरण होता हैं। भारत में वन-सम्पदा पर्याप्त रूप से हैं। भारत में 657.6 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन पाए जाते हैं। वर्तमान में 19.39 प्रतिशत भूमि पर वनों का विस्तार हैं। गत नौ वर्षो में 2.79 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास की बलि चढ़ गए। छत्तीसगढ़ राज्य में सबसे ज्यादा वन-सम्पदा हैं। भारत में वन नीति के तहत देश के 33.3 प्रतिशत क्षेत्र में वन होने चाहिए। यूएनईपी के मुताबिक, दुनिया में 50-70 लाख हेक्टेयर भूमि प्रति वर्ष बंजर हो रही हैं। जंगल हमारे जीवन की अमूल्य निधि हैं। दुनिया को प्राण वायु देने वाले जंगल अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश में जितने पेड़ काटे जाते है उसके बदले में पेड़ लगाने की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हैं। इस साल के अप्रैल महीने में पौड़ी जिले के पोखड़ा रेंज में वन माफिया द्वारा सैकड़ों हरे पेड़ काटे जाने का खुलासा हुआ। ये सारा खेल प्रशासन की आंख के नीचे चल रहा था। हरे चीड़ के पेड़ों पर वन माफिया आरी चला रहे थे। हम अपने स्वार्थ में इस कदर डूब गए है कि हमें वनों से होने वाले फायदों को दरकिनार कर दिया हैं। वनों से औषधियों का निर्माण भी होता हैं। वन भू-जल को भी संरक्षित करते हैं। अगर वन होंगे तो ही हम वन्य-जीवों का बचा पाऐंगे।

महासागर का पानी भी खतरे में

धरती पर जीवन का आरंभ महासागर से ही माना जाता हैं। लाखों जीव महासागरों में पाये जाते हैं। जीवों के साथ-साथ महासागर खनिज पदार्थो का भी भडांर हैं। हमारी धरती का लगभग 70 प्रतिशत भाग महासागरों से घिरा हुआ हैं। महासागर धरती के मौसम को भी निर्धारित करता हैं। समुद्री जल की लवणता और उष्माधारिता का गुण धरती के मौसम को प्रभावित करता हैं। वर्तमान में मानवीय गतिविधियों का असर समुद्री जीवन पर पड़ रहा हैं। महासागर के तटीय-क्षेत्र में प्रदूषण दिन पर दिन बढ़ रहा हैं। तेलवाहक जहाजों के तेल रिसाव के कारण समुद्री जल मटमैला होता जा रहा हैं। औघोगिकरण के कारण कार्बन उत्सर्जन एक बहुत बड़ा सवाल बन कर सामने खड़ा हैं। वर्तमान में कार्बन-डाई-ऑक्साइड का स्तर 40 फीसदी बढ़ा हैं और इसका एक हिस्सा महासागर में विलय हुआ हैं। बढ़ती जनसंख्या के कारण महासागर कचरा डालने का पात्र बन गए हैं। पानी का बढ़ता तापमान समुद्री जीवों के लिए हानिकारक हैं। समुद्री जल में तेल रिसने से जल पर एक तेल की सतह सी बन जाती हैं जिससे वायु जल सतह से सीधे संपर्क में नही आ पाचती हैं जिससे ऑक्सीजन की सांद्रता में कमी आती हैं। समुद्री प्रदूषण का प्रभाव समुद्री जल-जीवों पर पड़ता हैं।

ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ता खतरा

ग्लोबल वार्मिंग विश्व की सबसे बड़ी समस्या बन गई हैं। ग्लोबल वार्मिग के दुष्परिणाम भी हमारे सामने उभर कर आ रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग धरती के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी हैं। कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, मिथेन, नाईटोजन ऑक्साइड का आवरण के सूर्य की परावर्तित किरणें को धरती तक आने में रोक रहा हैं, जिससे धरती के तापमान में वृद्धि हो रही हैं। जंगलों का भारी संख्या में हो रहा विनाश इसकी दूसरी वजह हैं। जंगल कार्बन डाइ ऑक्साइड को प्राकृतिक तरीके से नियंत्रित करते हैं। ओजोन पर सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती हैं। ओजोन परत में छेद हो गया हैं। जिससे पराबैंगनी किरण सीधे धरती पर पहुंच रही हैं। धरती के तापमान में वृद्धि हुई हैं। ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है कि अब ग्लेश्यिर्स भी पिघलने लगे हैं। आंशका ये ही जताई जा रही है कि अभी धरती के तापमान में और बढ़ोतरी होगी। ग्लेशियर्स पिघलने से समुद्री जल में भी वृद्धि होगी। ग्लोबल वार्मिंग का असर मानव-स्वास्थय पर देख जा रहा हैं। बढ़ती गर्मी के कारण डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारियों को बढ़ावा मिला हैं।

प्रकृति से सीखो प्यार करना

अल्बर्ट आइन्सटाइन ने कहा है प्रकृति को गहराई से देखिए और आप हर एक चीज को बेहतर ढंग से समझ सकेंगे। प्रकृति हमें प्यार करना सीखाती हैं। हमें भी प्रकृति से प्यार करना सीखना चाहिए। प्रकृति के पांच तत्व जल, वायु, अग्नि, मिटटी और आकाश। सब एक दूसरे के विपरीत है। प्रकृति ही इनमें संतुलन बना कर रखती हैं। हमें जरूरत है अपने निजि स्वार्थ को भूलकर पर्यावरण सुरक्षा के लिए आगे आए। ये बात हम सब जानते है कि बिना पानी, वायु, अग्नि आदि के हम जीवित नहीं रह सकते। ना ही हम अपना अस्तित्व बिना प्रकृति के सोच सकते हैं। हमें पर्यावरण का सही अर्थ समझना चाहिए। विकास की आड़ में हम अपना ही सर्वस्व समाप्त करने पर तूले हुए है। हम क्यो भूल जाते है कि हम पर्यावरण पर निर्भर है ना कि पर्यावरण हम पर।  प्रकृति बदले में हमें वहीं देती है जो हम उसको देते हैं। हम अपनी आवश्यकता की सारे चीजे प्रकृति से मिलती हैं। अपने स्वार्थ के खातिर हमने प्रकृति को प्रदूषित जल, हवा, जंगलों की कटाई, वन्य जीवों की हत्या ये सब चीजे दी है, इसके बदले में प्रकृति ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं के साथ खड़ी हैं। जिस प्रकार मौसम बदल रहा है उसके परिणाम भी भयावह होंगे। पहले हर एक मौसम का अपना मजा था। गर्मियों की शाम, सर्दियों की धूप, बारिश की बूदें, बसंत की बहार, पर अब कहीं बाढ़ के हालात है तो कहीं सुखे की मार तो कहीं पहाडों का गिरना। इन सब हालातों के जिम्मेदार हम ही हैं। हमें और अपनी आने वाली पीढ़ी को वन संरक्षण का महत्व, पेड़-पौधो को लगाना उनकी देखभाल करना, कचरे को सही जगह पर फेंकना आदि सारी बातें सीखनी और सिखानी होंगी। अब भी वक्त है अगर अभी नहीं संभले तो शायद  प्रकृति हमें दूसरा मौका संभलने का ना दे। खुद से प्रेम करने के साथ-साथ हमें  प्रकृति से भी प्रेम करना चाहिए। जॉन लुब्बोक के शब्दों में-धरती, आकाश, जंगल औद मैदान, झीलें और नदियां, पहाड़ और समुद्र ये सभी बेहतरीन शिक्षक है, ये सब हमको इतना कुछ सिखाते है जो हम किताबों से नहीं सीख सकते है।  प्रकृति को काबू में रखने के लिए हमेशा उसका कहा मानिये।  प्रकृति मां की तरह संरक्षण करती हैं।

लेखक- नीतू शर्मा
डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।