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क्या है अजमेर शरीफ दरगाह की कहानी, जिसपर अब हो रहा है विवाद? जानें सबकुछ

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राम मंदिर मामले के निर्णय आने के बाद पूरे देश में उन सभी धार्मिक स्थानों की जांच की मांग उठने लगी है जहां इस प्रकार का विवाद है। संभल की जामा मस्जिद के सर्वे के बीच इसी कड़ी का एक हिस्सा राजस्थान की अजमेर में स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह (ajmer sharif dargah) भी सुर्खियों में आ गई है।

क्योंकि अजमेर शरीफ में दरगाह को हिंदू मंदिर बताने वाली एक याचिका को राजस्थान की एक निचली अदालत ने सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से दायर याचिका में दावा किया गया है कि दरगाह की जगह पर पहले एक शिव मंदिर था। चलिए जानते हैं? कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जो पर्शिया (ईरान) से भारत आए थे और क्यों किए जा रहे मंदिर होने का दावा?

अजमेर शरीफ दरगाह की कहानी क्या है?
इतिहासकार डॉ. जाहरुल हसन शाहरिब की किताब ‘ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती’ के मुताबिक, सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म साल 1143 ई. में ईरान (पर्शिया) के सिस्तान इलाके में हुआ था। आजकल यह इलाका ईरान के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित है। यह क्षेत्र अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा से सटा हुआ है। बताया जाता है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के पिता का अच्छा-खासा कारोबार था, पर उनका मन अध्यात्म में ज्यादा लगता था। इसलिए उन्होंने पिता के कारोबार को छोड़ कर आध्यात्मिक जीवन अपना लिया था। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने सांसारिक मोह-माया त्याग कर आध्यात्मिक यात्राएं शुरू की थीं।

उसी दौरान उनकी मुलाकात जाने-माने संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से हुई थी। हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी ने ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना शिष्य मान लिया और उनको दीक्षा दी थी। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को 52 साल की आयु में शेख उस्मान से खिलाफत मिली थी। इसके बाद वह हज पर मक्का और मदीना गए थे।

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किताब के मुताबिक, वहां उन्हें पैगम्बर मोहम्मद साहब का ख्वाब आया। उन्होंने मोइनुद्दीन चिश्ती को दिल्ली जाने का आदेश दिया। यहां से वे सीधे दिल्ली की तरफ रवाना हो गए। 11वीं सदीं के अंत तक वे दिल्ली पहुंचे और फिर अजमेर चले गए। यहां उन्हें एक नया नाम मिला ‘गरीब नवाज’ यानी गरीबों का भला करने वाला। उनके पास सभी धर्मों के लोग आने लगे। इससे वे दूर-दूर तक मशहूर हो गए।

1236 में मोइनुद्दीन चिश्ती के निधन के बाद अजमेर में उनका मकबरा बनाया गया। शुरुआत में यह एक छोटा सा मकबरा था। समय के साथ अलग-अलग लोगों ने दरगाह का निर्माण कराया। मांडू के बादशाह महमूद खिलजी ने यहां एक मस्जिद बनवाई। इसके बाद मुगल सल्तनत में भी यहां निर्माण कार्य हुए। मोहम्मद बिन तुगलक और शेरशाह सूरी जैसे बादशाहों ने भी दरगाह को संरक्षण दिया।

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अजमेर शरीफ दरगाह पर लिखी गई 3 किताबों में मंदिर का जिक्र

1. अकबरनामा इस किताब को 16वीं सदी में अबुल फजल ने लिखा था। इसमें बताया गया कि 1562 में अकबर फतेहपुर जा रहे थे। मंडाकर गांव के पास से गुजरते समय उन्होंने दरगाह के चमत्कारों के बारे में सुना और वे दरगाह जा पहुंचे। इसके बाद यह दरगाह आम जनता और शासकों के लिए आस्था का केंद्र बन गई।

2. सम अकाउंट ऑफ द जनरल एंड मेडिकल टोपोग्राफी ऑफ अजमेर इस किताब को 1841 में आर एच इरविन ने लिखा था। इसके मुताबिक, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के समय दरगाह की जगह एक प्राचीन महादेव मंदिर था। चिश्ती हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों को मानते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन ने 40 दिनों तक मंदिर में शिवलिंग पर जल भी चढ़ाया था।

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3. द श्राइन एंड कल्ट ऑफ मुइन अल-दीन चिश्ती ऑफ अजमेर इस किताब को 1989 में ब्रिटिश इतिहासकार पीएम करी ने लिखा था। इसमें भी दरगाह के नीचे शिव मंदिर होने का जिक्र है। किताब के मुताबिक, मोइनुद्दीन चिश्ती की कब्र के नीचे शिवलिंग स्थापित है।

द प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 क्या है?
’द प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991’ उपासना स्थलों को बदले जाने से रोकता है। एक्ट के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 को उपासना स्थल जिस धार्मिक रूप में थे वो बरकरार रहेगा। यानी आजादी के वक्त अगर कोई मस्जिद थी, तो बाद में उसे बदलकर मंदिर या चर्च या गुरुद्वारा नहीं किया जा सकता। ये कानून 11 जुलाई 1991 को लागू किया गया। इसमें कुल 8 सेक्शन हैं।

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