क्या आप विश्वास करेंगे कि ऐसे समय जब सरकार द्वारा परिवार को सीमित रखे जाने के नाम पर अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हों, ज्यादा संतान वाले माता-पिताओं को उनकी सरकारी नौकरी में प्रमोशन न देने की बात की जा रही हो, उन्हें चुनाव लड़ने से वंचित किया जा रहा हो, चुनाव लड़ भी लिया तो निर्वाचन निरस्त करने का खौफ हो, तो ठीक उसी समय सरकार ज्यादा संतान उत्पन्न करने की दिशा में भी अग्रसर हो। आपको पढ़कर यह अचम्भा जरूर लगेगा लेकिन यही सच है। हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार का सब धर्मों और जातियों को सम्मान देने का इससे बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता है। हम बात कर रहे हैं भारत में रह रहे पारसियों की। इस समुदाय के लोग अपार धन सम्पदा से भरपूर हैं। उद्योग, सेना, कानूनी पेशा, वास्तुकला हो या सिविल सेवाएं, पारसी समुदाय ने हर जगह शीर्ष पर पहुंचने की क्षमता दिखाई है। जमशेदजी टाटा, वाडिया और गोदरेज जैसे कारोबारी घराने पारसी समुदाय से ही हैं। दादाभाई नौरोजी और भीकाजी कामा द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देशसेवा, होमी भाभा का भारत को एटॉमिक शक्ति बनाने में योगदान भारत के समृद्ध इतिहास का अभिन्न भाग है। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के सैन्य योगदान का भी अपना महत्व है। आप पारसियों के बारे में जानते ही हैं। यह अपने शांत स्वभाव के लिए मशहूर हैं। वे अपने मिलनसार व्यवहार के लिए भी जाने जाते हैं। पर भारत ही नहीं, पूरे विश्व में इनकी आबादी घटती जा रही है। 1941 में पारसियों की भारत में कुल आबादी एक लाख 14 हजार थी। 2001 की जनगणना के अनुसार इनकी आबादी घटकर लगभग 70 हजार रह गई। और 2011 के जनसंख्या आंकड़ों के अनुसार 57,264 पर सिमट गई। पिछले डेढ़ दशक में पारसी समुदाय में सिर्फ 200 बच्चों का जन्म हुआ। पूरे विश्व में इनकी आबादी घटी ही है। यहां यह जान लेना जरूरी है कि पारसी धर्म के लोग भारत में कहां से आए। हुआ यह कि 8वीं सदी में पारसी समुदाय ईरान से भागकर भारत पहुंचा था। इस्लामिक कानून आठवीं शताब्दी में फारस में सख्ती से लागू किया जाने लगा था। बड़े स्तर पर लोगों को अकारण ही सजाएं दी जाने लगीं थीं। सजा से बचने के लिए पारस समुदाय के लोग पूरब की तरफ भागे और भागते-भागते गुजरात आ गए। वह यहां आकर स्थानीय लोगों के साथ आसानी से घुल मिल गए। इसके बाद ये लोग मुंबई पहुंचे और कारोबार करने लगे। समय के साथ इनका कारोबार फलने-फूलने लगा। पारसी आज भारत के कई शहरों जैसे मुम्बई, पुणे, बैंगलोर और हैदराबाद में फैले हुए हैं पर इनकी अपनी आबादी में जरूरत से ज्यादा गिरावट आती गई। इसकी मूल वजह यह रही कि पारसी धर्म के लोग दूसरे धर्मों में रिश्ते नहीं करते। इस नियम को लेकर वो बेहद कठोर हैं। अपने समुदाय में शादी न कर अंतर्जातीय विवाह करने पर उन्हें अपने ही समुदाय का दबाव झेलना पड़ता था। अभी भी दूसरे धर्म में शादी करने वाले को पारसी नहीं माना जाता है। इन दबावों के चलते 1970 और 1980 के दशक में कई युवाओं ने शादी ही नहीं की और वे शादी से बचते रहे। इसका असर बाद में आबादी पर साफ दिखाई देने लगा। 2014 में पारसियों की आबादी बढ़ाने के उद्देश्य से सरकार ने ‘जियो पारसी’ नाम की एक योजना भी चलाई थी। सवाल यह उठता है कि क्या सरकार की यह पहल कुछ रंग ला सकती है। इनकी आबादी बढ़ा सकती है। पारसी समुदाय में जान फूंक सकती है। चार साल पहले अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और पारजोर फाउंडेशन ने “जियो पारसी” नामक जो अभियान शुरू किया था, उसके मुंबई में अच्छे नतीजे दिखाई दिए हैं। अभियान शुरू होने के बाद से पारसी समुदाय में 101 वें बच्चे का जन्म हुआ है। जानकारी के अनुसार पारसी समुदाय के फरहाद मिस्ट भी 2017 में ही पिता बने हैं। मिस्ट इसे गजब की अनुभूति होना बताते हैं। वह सात माह पहले ही पिता बने हैं। हालांकि शुरू में वह इस अभियान में पंजीकरण कराने को लेकर उदासीन थे।
क्या है जियो पारसी योजना
जियो पारसी योजना में पारसी समुदाय को कुछ अस्पतालों में मुफ्त प्रसव सम्बंधी इलाज किया जाता है। मेडिकल टेस्ट और अस्पताल पर होने वाला व्यय सरकार उठाती है। अभियान के तहत विज्ञापन अभियान भी चलाया गया है। इसमें उन्हें समय पर विवाह, गर्भ धारण के सही समय और प्रजनन संबंधी उपचार आदि के बारे में बताया जाता है। सरकारी आवंटन की 7 फीसदी राशि पारसी युवक और युवतियों को सलाह देने पर खर्च की जाती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पारसी समुदाय की कुल जनन क्षमतादर एक से नीचे है। पारसी समुदाय में आम तौर पर महिलाएं 29 से 30 तथा पुरूष 35 साल की आयु में विवाह करते हैं। देश में पारसी आबादी के 31 फीसदी लोग 60 साल से अधिक आयु के है तथा 30 फीसदी अविवाहित हैं। पारसी समुदाय की प्रभावशाली सदस्य नरगिस मिस्त्री कहती हैं कि जब समुदाय सिकुड़ रहा हो तो सरकार की यह पहल अच्छी है। लेकिन वह इस बात पर भी दुख जताती हैं कि योजना अंतरर्जीतीय विवाह करने वालों के लिए नहीं है । वह यह भी कहती है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है। एक सामाजिक अड़ियलपन को धार्मिक आधार में नहीं बदला जा सकता। दूसरी ओर, कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर माजा दारुवाला कहती हैं कि हम अपने मूल देश से भगाए गए लोग थे। हम यहां आकर लोगों से घुल मिल गए। हमारे तौर-तरीके अलग हैं। इसके बावजूद पारसियों ने समाज के लिए बड़ा योगदान दिया है।
विरोध इसलिए
कुछ समाजशास्त्री इस अभियान का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। इनके अनुसार यह अभियान हरियाणा की किसी एक खाप पंचायत की तरह है जिसमें अंतरजातीय विवाह करने पर ऑनर किलिंग की घटनाएं होती हैं। जहां विवाह केवल अपनी ही जाति में किया जा सकता है। इनके अनुसार यह कैसा सरकारी अभियान है जिसमें एक समुदाय को आपस में शादी करने और तेजी से बच्चे पैदा करने के लिए कहा जा रहा है। वह भी समुदाय की घटती आबादी को बढ़ाने के नाम पर। यह उचित नहीं है। समाज के हर कामों पर अपनी राय व्यक्त करने वाले एक समाजशास्त्री ने साफ तौर पर कहा कि पारसी समुदाय के पास धन की कोई कमी नहीं है। एक गरीब देश प्रभावशाली और उच्च शिक्षित समुदाय पर करोड़ों रुपए खर्च कर रहा है। यह नस्लभेद, अभिजात्यवाद का खुला प्रदर्शन है। यदि यही पैसा आदिवासियों पर खर्च किया जाता तो उनका और कल्याण होता। भारत का नारा रहा है-हम दो, हमारे दो लेकिन अब नारा बन रहा है दो और दो से ज्यादा पारसी।
ऐसे लुभा रहा अभियान
जियो पारसी के एक विज्ञापन में ऐसे पारसी लोगों की कल्पना की गई है जिनके पास काफी जमीन है, धन है। विज्ञापन अधेड़ उम्र के अविवाहित, संतानहीन धनवान व्यक्ति को अविवाहित रहने से होने वाले नुकसानों की चेतावनी देता है। विज्ञापन में बताया गया है कि अगर वह अविवाहित ही रहा तो उसकी धन सम्पदा उसके निधन के बाद नौकरों के हाथ में चली जाएगी और नौकर ही उसका वारिश बन जाएगा। एक अन्य विज्ञापन पारसी स्त्री-पुरूषों को जल्द शादी करने और ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित करता है। विज्ञापन में यह भी कहा गया है कि आप अपने बच्चे को जो सबसे खास तोहफा दे सकते हैं, वह है एक भाई या बहन। सिर्फ एक बच्चा करना, काम को अधूरा छोड़ने जैसा है। अभी जुलाई में ही जियो पारसी पब्लिसिटी फेज-२ के लॉचिंग भी की गई है। यह तो वक्त ही बताएगा कि पारसी समुदाय अपनी आबादी में कितना इजाफा कर सकता है।
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