आज हमारा देश 21वीं सदी के प्रतिमानों के साथ तरक्की कर रहा है। हमारा देश तरक्की की राह पर है। हम विकासशील देशों के मुकाबले में खुद को नई तकनीकों के साथ विकसित करने में लगे हुए हैं तो वहीं दूसरी और रीति-रिवाजों की आड़ में महिलाओं के मौलिक अधिकारों के हनन होते रहने की बात भी सामने आई है। उसके खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई नहीं। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देश के सबसे जटिल सामाजिक मुद्दों में से एक बार में तीन तलाक कहकर तलाक देने की प्रथा को निरस्त किया है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के मूलभूत अधिकारों का हनन करता है। यह प्रथा बिना कोई मौका दिए शादी को खत्म कर देती है। शीर्षस्थ कोर्ट के इस निर्णय के बाद कई मौलवियों, मुस्लिम संगठनों की फैसला विरोधी टिप्पणियां भी आईं हैं। कुछ मुस्लिम संगठनों ने इस जीत का जश्न भी मनाया है। पर देखा जाए तो इसके परे भी मुस्लिम समाज में ऐसी कई कुरीतियां हैं जिन्हें रीति-रिवाज की काली चादर में लपेट कर महिलाओं पर थोपा जा रहा है। इनमें से एक है निकाह मुताह। इसके बारे में ज्यादातर लोगों को कुछ नहीं मालूम है। दरअसल, मुस्लिम समाज में दो तरह के विवाह होते हैं। एक स्थायी विवाह और दूसरा अस्थायी यानी निकाह मुतहा। इसे फौरी निकाह भी कहा जाता है। सुन्नी समुदाय में केवल ‘निकाह’ हो सकता है लेकिन दूसरे समुदाय ‘शिया’ के लोग मुताह’/अस्थायी विवाह भी करते हैं । यह विवाह कुछ समय के लिए किया जाता है । तय अवधि के बाद स्त्री- पुरुष के यौन रिश्ते टूट जाते हैं । इसमें ‘मेहर’ की राशि का भी निश्चित् उल्लेख होता है। एक बात और ‘मुताह’ निकाह के बाद, यदि पति-पत्नी ने आपस में रिश्ते न बनाए हों तो पत्नी पूरे ‘मेहर’ की अधिकारी होती है लेकिन यदि शारीरिक रिश्ते न बने तो महिला केवल आधा ‘मेहर’ पाने की अधिकारी होती है। इस निकाह के खत्म हो जाने पर महिला अपने शौहर से से भरण-पोषण और उत्तराधिकार की अधिकारी नहीं होती है। जानकारों के अनुसार दरअसल, यह विवाह नहीं एक धंधा है। इसमें पैसा देकर कुछ समय के लिए किसी महिला से अस्थाई विवाह कर शारीरिक संबंध बनाया जाता है। अरब देशों के शेख भारत के हैदराबाद और मुम्बई आदि में केवल अय्याशी करने के लिए या लड़कियों का व्यापार करने के लिए आते हैं और निकाह मुताह कर लेते हैं। ऐसे कई मामले पिछले दिनों हैदराबाद में सामने आए हैं।
पुलिस ने ऐसे शेखों के रैकेट भारत में सक्रिय होने की बात कही है। स्थानीय मौलवी भी इस धंधे में शेखों का साथ देते हैं। नाम ना बताने की शर्त पर एक महिला ने बताया कि जिस लड़की का मुताह निकाह होता है और कुछ महीनों बाद उसे छोड़ दिया है, उसे मुस्लिम समाज में मुताही कहा जाता है। उसका दुबारा निकाह फिर संभव नहीं होता है। यानी उस महिला का जीवन खराब और दुश्वार हो जाता है। अगर उसके बच्चे हो गए तो उसको समाज में कोई दर्जा नहीं मिलेगा। यानी सीधे शब्दों में कहा जाए तो यह एक तरह की वेश्यावृत्ति है जिसके जरिए महिलाओं के हकों का हनन हो रहा है। इसके खिलाफ ना तो मीडिया में चर्चा है और ना ही इस गम्भीर मुद्दे पर राजनीतिक पार्टियों की नजर। ऐसा भी नहीं है कि एक बार में तीन तलाक की तरह इस मुद्दे पर बहस नहीं छिड़ी हो लेकिन शाहबानो जैसी किसी भी महिला ने अपनी जुबां अभी तक नहीं खोली है या किसी महिला की हिम्मत अभी तक नहीं पड़ी है। एक अन्य मुस्लिम महिला का कहना है कि मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थितियों को लेकर कई अहम मुद्दों पर बहस होना अभी बाकी है। हर धर्म में कई रूढ़िवादी सोच है लेकिन मुस्लिम समाज में जितनी रूढ़ियां हैं, वहां से केवल महिलाओं को ही गुजरना है। संविधान सभी को बराबरी का हक देता है। जो हक हिंदू औरत को है, वही हक मुसलमान औरत को भी है और उसे यह मिलना चाहिए। मुस्लिम समाज को अपनी लड़ाई इस्लाम के नजरिए से न लड़कर संविधान के नजरिए से लड़ने की जरूरत हैं।
निकाह कितने दिन का, यह भी तय
निकाह मुताह के दिन तय होते हैं कि यह कितने दिन का निकाह होगा। ऐसा निकाह दस दिन, सौ दिन या कुछ निर्धारित दिनों का हो सकता है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि माना जाता है कि जब फौजें युद्ध के मैदान में जाती थीं तो जहां फतह मिलती थी, वहां सैनिक वहां की औरतों से बलात्कार करते थे। बलात्कार से जन्में बच्चे नाजायज कहे जाते थे। इसलिए फौरी विवाह का सिस्टम बनाया गया। इसमें जितने दिन का करार होगा, उसके बाद वह खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगा। यह एक तरह की कानूनी वेश्यावृत्ति है। अब ये सब मसले कभी इसलिए नहीं उठते कि मुस्लिम समुदाय को भी इस पर बात करने में शर्म आती है। इस व्यवस्था में झेलना तो सिर्फ महिलाओं को ही पड़ता है। हां, इस तरह की शादी से पैदा हुए बच्चों का हक एक समान ही होता है। बच्चों में कोई फर्क नहीं किया जाता।
मुस्लिम समुदाय की राय
मुताह मामले में जब हैदराबाद की मुस्लिम महिलाओं से पूछा गया तो उन्होंने कहा ये गैर कानूनी है। इसे भी तीन तलाक की तरह बंद किया जाना चाहिए। मुस्लिम समुदाय में ऐसी कई प्रथा है जैसे हलाला, पर्दा प्रथा जिसपर एक बार सोचने की जरूरत। महिलाओं के अधिकारों पर काम कर रही एक प्रवक्ता ने मुस्लिम किताबों और कानूनों का हवाला देते हुए कहा, ये गलत है। धर्म के रखवाले बात-बात पर मुस्लिम महिलाओं को सीख देने आगे आते हैं लेकिन जब धर्म के नाम पर धंधा हो रहा है, रैकेट पकड़े जा रहे हैं, तब भी इस मुद्दे पर इतनी खामोशी सही नहीं।
प्रथा का पक्ष लेने वालों की भी कमी नहीं
लगभग तीन-चार साल पहले बीबीसी ने एक रिपोर्ट छापी थी जिसमें बर्मिघम में फार्मासिस्ट का काम करने वाली पाकिस्तानी मूल की शिया महिला शारा ने कहा था कि इससे शरिअत को तोड़े बिना हमें एक-दूसरे से मिलने की अनुमति होती है। हम साथ में डेट कर सकते हैं, शॉपिंग कर सकते हैं, साथ-साथ घूम सकते हैं। हम शादी के पहले एक-दूसरे को बेहतर तरीके से जान भी लेते हैं। ब्रेडफोर्ड यूनीवर्सिटी के उमर फारुख खान का कहना था कि यह प्रथा शिया
छात्रों में लोकप्रिय हो रही है। छात्र-छात्राएं शिक्षित हैं। वे जागरूक हैं। कोई भी प्रथा इसलिए नहीं नकारी जा सकती कि वह पुरानी है। लोग इस विषय पर इसलिए बात नहीं करते क्योंकि इसे निषिद्ध विषय समझा जाता है।
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