बिना जीएसटी शिक्षा में सुधार संभव नहीं

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देश में एक जुलाई से जीएसटी (गुड एंड सर्विस टैक्स) लागू हो गया। लंबे समय के बाद इस एक्ट को लेकर आम सहमति बनी और आखिरकार इसे लागू कर दिया गया। देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और देश में टैक्स भुगतान की सुनिशिचतता लाने के उद्देश्य से लागू की गई। इस टैक्स नीति का प्रभाव मौजूदा समय में तो दिखाई नहीं दिया लेकिन आने वाले समय में सकारात्मक उम्मीद की जा सकती है। कोई भी सकारात्मक नीति देश के लिए खराब नहीं होती। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि आंशिक रूप से ही सही, लेकिन देशहित में यह साकार साबित होती है। जीएसटी की महत्वता पर बात करना इसलिए भी जरूरी है। क्योंकि इस नीति को कानून का रूप मिल चुका है। किसी भी देश की प्रगति में अर्थव्यवस्था महत्वपूर्ण हिस्सा होती है, तो भला ऐसे में जीएसटी को लेकर चर्चा क्यों ना हो लेकिन जब हम देश के विकास की चर्चा करते हैं, तो हमारा ध्यान सबसे महत्वपूर्ण कड़ी से भटक ही जाता। विकास की यह महत्वपूर्ण कड़ी देश की शिक्षा पद्धति और शिक्षा नीति है। हर देश में बच्चों को सर्वोच्च संपति माना है। २००९ में ‘शिक्षा का अधिकार’ लागू होने के साथ ही इसकी प्रस्तावना में यह बात कही गई है। वहीं शिक्षा के महत्व के चलते इस संवैधानिक अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया।

 क्यों कमजोर दिखाई देती है शिक्षा नीति 

समय- समय पर शिक्षा नीति में होने वाले बदलावों के चलते भी आजादी के ७० साल बाद भी इसका पूरा फायदा जनता को मिलता दिखाई नहीं देता। आखिरकार ऐसी क्या वजह है, जिनके चलते हमारे मन में कई सवाल पैदा होते हैं। इसे समझने के लिए हमे इतिहास की गहराई में जाना पड़ेगा। यह जानकारी मिलती है कि स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सेनानी और शिक्षाविद् प्रो. गोपाल कृष्ण गोखले ने ब्रिटिशकालीन शासन में ही ‘मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा’ को लेकर कदम उठाने की बात की थी। गोखले ने १८ मार्च १९१० में ब्रिटिश विधान परिषद में इसके लिए प्रस्ताव भी रखा, लेकिन निहित स्वार्थो के विरोध के चलते आखिरकार इसे खारिज कर दिया गया। आज भी देश में शिक्षा को लेकर ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। निहित स्वार्थ की बेडिय़ां अभी भी हर बच्चे तक शिक्षा पहुंचाने में रोड़ा बनती दिखाई दे रही है। आंकडो पर गौर करें, तो हम पाते है कि अभी भी ७४ परसेंट ही साक्षरता का अनुपात पहुंच पाया है। यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि इस साक्षरता के अनुपात में एक बड़ा अनुपात वहीं है, जो सिर्फ अपना नाम लिखना जानते हैं।

सरकारी स्कूल में घटता रूझान 

मुफ्त शिक्षा और शिक्षा का अधिकार नाकाफी क्यों है। आप इसे इन आंकडों को समझ सकते हैं। शिक्षा का अधिकार अच्छी बात है, लेकिन प्रत्येक बच्चों के बीच यदि गुणवत्ता शिक्षा को लेकर बात नहीं होगी, तब तक भविष्य के अंधकार को हटाया नहीं जा सकता है। देश में शिक्षा का अधिकार जब से लागू हुआ है, तब से प्राइवेट स्कूल आरटीई जैसे अधिकारों का उल्लंघन, दिल्ली हाईकोर्ट की फीस बढ़ोत्तरी को लेकर किए गए फैसले मुद्दों को हवा मिली है। वहीं गरीब और कमजोर तबके के छात्रों के लिए 14 साल की उम्र तक मुफ्त में शिक्षा दी जाने के वाबजूद भी लोग अपने बच्चों को ज्यादा फीस देकर प्राइवेट स्कूलों में भेजना पसंद कर रहे हैं। अप्रेल २०१७ में हुई एक स्टडी के अनुसार भारत में सरकारी स्कूलों में जाने वाले बच्चों की संख्या में भारी गिरावट आई है। वहीं इसके उलट प्राइवेट स्कूलों की चांदी रही है।

 हकीकत बढ़ाने के लिए काफी यह आंकड़े 

2010-11से 2015-16 के बीच 20 राज्यों के सरकारी स्कूलों में जाने वाले बच्चों की संख्या 1.3 करोड़ घट गई है, वहीं प्राइवेट स्कूलों में 1.75 करोड़ बच्चों की संख्या बढ़ी है।

– डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (डीआईएसई) और शिक्षा मंत्रालय का आंकड़ा ये भी कहता है कि 20 राज्यों में सभी स्कूलों के रजिस्टर्ड बच्चों में से 65 प्रतिशत यानी लगभग 11.3 करोड़ बच्चों ने सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जारी रखी है।

– भारत के 66 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के छात्र सरकारी स्कूल या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में हैं, बाकी के लोग महंगे प्राइवेट स्कूल में जाते हैं।

– वहीं मार्च में आई इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पांच सालों में सर्व शिक्षा अभियान , सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम पर 1.15.625 करोड़ रुपए,  यानी 17.7 बिलियन डॉलर खर्च होने का बाद भी शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई है

यदि एक राष्ट्र और शिक्षा नीति हो लागू 

आंकड़ो में देश की शिक्षा व्यवस्था की स्थिति साफ तौर पर बयान हो जाती है। वहीं कई ऐसे मसले भी है जहां निहित स्वार्थ के चलते शिक्षा और देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया गया है। जैसे देश में ‘एक राष्ट्र , एक कर नीति’ को लेकर संजीदगी दिखाई गई, यदि एक देश एक शिक्षा नीति अपनाई जाएं, तो शिक्षा के नाम पर हो रहे व्यवसाय को रोका जा सकता है और शिक्षा से जुड़े कई अन्य मुद्दों को भी हल किया जा सकता है।

 15 लाख से ज्‍यादा अनट्रेंडटीचर वहां कैसे पढ़ेगा इंडिया ( अलग से कोड किया जाए इस टॉपिक को)

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ट्रेनिंग कोर्स के लिये प्राइवेट स्कूलों के करीब 10 लाख टीचर्स समेत लगभग 15 लाख अनट्रेंड टीचर्स ने नामांकन कराया है ताकि साल 2019 तक प्रशिक्षण लेकर अपनी नौकरी बचा सकें। इस कोर्स के लिये सबसे अधिक 2.8 लाख उम्मीदवारों ने बिहार से आवेदन किया है जबकि उत्तरप्रदेश से 1.95 लाख, मध्यप्रदेश से 1.91 लाख, पश्चिम बंगाल से 1.69 लाख और असम से 1.51 लाख उम्मीदवारों ने आवेदन किया है। इस संख्या को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं आपके बच्चों को भविष्य किन टीचर्स के हाथ में।

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