हम आज जो कर्म कर रहे हैं, वह कर्म है और दो चार-दस दिन पहले जो कर्म किया, वह ‘संचित कर्म’ है। अब संचित कर्म का जो भी फल मिलेगा वही हमारा भाग्य (प्रारब्ध) है। उदाहरण के लिए जैसे किसी ने कर्म करके (धन) रूपये कमाए तो रूपये कमाना हुआ कर्म। वह कमाया हुआ धन बैंक में जमा कर दिया, यह हुआ संचित कर्म। अब यह संचित धन हमारे भाग्य का है। यह अपने कर्मों का फल ही प्रारब्ध है।
जैसे बैंक का धन जमाकर्ता को ही मिलेगा- दूसरे को नहीं। इसी तरह हमारे कर्मों का फल हमें ही मिलेगा। हमारे भाग्य का फल दूसरे को और दूसरे के भाग्य का फल हमें नहीं मिलेगा। अत: कोई किसी को दुख देता और न ही सुख देता है।
कोई न काहु दुख-सुख कर दाता निज कृत कर्म भोग सुन भ्राता।
सब अपने कर्मों का फल ही भोगते हैं। कर्मों के अनुसार ही जन्म-मरण, संयोग-वियोग, प्रेम-वैर, दुख-सुख, यह सब अपने कर्मों का फल है।
जन्म हेतु केवल पितु-माता-कर्म शुभाशुभ देत विधाता।
तुम्हारे संचित कर्मों का फल, विधाता की बैंक में जमा हैं, वह शुभ-अशुभ जो भी है। उन्हें दे देते हैं। श्रीमद्भागवत् में श्रीकृष्ण जी ने भी बाबा नंद से कहा था कि बाबा-
कर्मण: जायते जन्तु: कर्मणैव विलीयते।
सुखं दुखं भयं क्षेमम्-कर्मणैवाभिपघते।।
बाबा ! अपने कर्म से जीव जन्म लेता है और अपने कर्म से मर जाता है। उसके जीवन में सुख-दुख-भय-क्षोभ जो भी होता है, उसके कर्मों का फल है। उसे पाकर ही वह कहता है कि हमारे भाग्य (प्रारब्ध) ये ही था भाग्य बनना अपने हाथों में है क्योंकि अपने कर्मों से भाग्य बनता है। अत: बहुत सोच-विचार के ही कर्म करना चाहिए।
कतिपय लोग उलटे-सीधे कर्म करके अपने आपको बाहुबली मानने लगते हैं। ऐसे लोग दुखी-गरीब-अमीर-निर्बल-बलवान की तो बात ही क्या, वे तो भगवान को भी कुछ नहीं समझते। सबकुछ अपने को ही मानते हैं। यह उनका भ्रम है कि मैं बाहुबली हूं। जब उनके बुरे कर्मों का फल उदय होगा। तब उनका बल एक पल में धूल में मिल जाएगा। आपको एक उदाहरण दे रहा हूं। अगर यह घटना किसी परिवार पर घटित होती है तो यह इत्तफाक ही कहा जाएगा।
किसी गांव में एक गोविंद सिंह नाम का व्यक्ति रहता था। वह अपने आपको महान बाहुबली समझता था। जिसे चाहे नीचा दिखाने की सोचता रहता था। उसकी बात ना मानों तो परेशान करता था, बल्कि उसने एक आदमी का कत्ल भी कर दिया था। गोविंद सिंह के एक पुत्र था। पुत्र का विवाह हुआ और एक पोता भी हो गया। जबतक पूर्व कर्मों का शुभ फल रहा। तबतक वह सुखी रहा। जब वर्तमान कर्मों का फल उदय हुआ तब पत्नी स्वर्ग सिधार गई। उसका बेटा भी अपने गांव के किसी व्यक्ति को रंजिशवश मारने गया। किन्तु खुद अपनी जान गंवा बैठा। गोविंद सिंह खुद भी अंधा हो गया। गांव छूट गया। पौते ने घर-जमीन बेच दी। उसके घर कोई भी दीपक जलाने वाला ना रहा। स्वंय भी परदेश जाकर मरा।
कहां गया वह बाहुबल? उसके कर्मों ने उसे मिट्टी में मिला दिया। अत: जो भी व्यक्ति स्वंयम को बाहुबली मानकर किसी को सताता है दबाता है। बुरे कर्म करता है। उसका यही हाल होता है।
दगा किसी का सगा नहीं है, न मानो तो करके देखो।
जिसने-जिसने दगा किया, उनके जाकर घर देखो।।
कर्मों का फल ही प्रारब्ध (भाग्य) है, जो गोविंदसिंह का हाल हुआ वहीं भाग्य करता है। कर्मों से ही भाग्य बनता है और भाग्य से ही सुख-दुख सब भोगने पड़ते हैं। प्रारब्ध को टालना किसी के वश में नहीं है।
-पं भंवरलाल आसोंपा
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