यह अतिश्योक्ति नहीं, वरन सच्चाई है कि भारत में अमीरों और गरीबों की संख्या का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। प्राइवेट स्कूलों में विद्यार्थियों की हिस्सेदारी बढ़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी नामांकन लगभग दोगुना हो गया है। एक तथ्य और, ज्यादातर प्राइवेट स्कूल, जिनका नामकरण ख्यातिलब्ध ब्रिटिश लोगों के नाम पर किया जाता है, छोटे कमरों में कक्षाएं चलाते हैं। स्कूल के समय अगर बारिश हो गई तो उसका मतलब है कि कक्षाओं में छुट्टी। सरकारी स्कूल एक शिक्षक के सहारे ही चल रहे हैं। साथ ही यह भी कि राजकीय स्कूलों में शिक्षक औसतन पांच में एक दिन अनुपस्थित रहते हैं। एक गैर-सरकारी संगठन के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में हालांकि नामांकन अभी भी अधिक है, 96% से अधिक है। इसकी एक वजह नि: शुल्क मिड-डे मील का मिलना भी है।
अध्यापकों-छात्रों को पढ़ाई से ज्यादा मतलब नहीं। तीन साल बाद नामांकित बच्चों में से 60% भी नहीं मिलते। वर्ष 2010 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया गया। छह से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को स्कूल भेजना अनिवार्य है। पर हकीकत किसी से छिपी नहीं है। अध्यापकों को भी क्या कहा जाए, गैर हाजिर अध्यापक को अगर पता चले कि इंस्पेक्टर साहब आने वाले हैं, तो वे तुरन्त स्कूल पहुंच जाते हैं। छोटे से गांव में बने प्राथमिक विद्यालयों में कुत्तों और पशुओं को आराम से विचरते देखा जा सकता है। स्कूल की इमारतों में से एक का उपयोग घास भंडारण के लिए कर लिया जाता है। शिक्षक धूप में बाहर आराम फरमाते रहते हैं।
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अब आते हैं-दूसरे मुद्दे पर-कैम्ब्रिज इंटरनेशनल ग्लोबल एजुकेशन सेंसस रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत के स्कूलों के 74% छात्र गणित के लिए ट्यूशन लेते हैं। अमरीका, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया और अर्जेंटीना सहित 10 देशों पर सर्वेक्षण में ध्यान केंद्रित किया गया था। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि केवल 3% भारतीय छात्र सप्ताह में छह घंटे से अधिक खेलते हैं। हालांकि, एक उपलब्धि यह रही कि 66% माता-पिता अपने बच्चों से स्कूल की गतिविधियों के बारे में पूछते थे और 50% स्कूल की विभिन्न परियोजनाओं में सहभागिता निभाते थे। इसके अतिरिक्त, सर्वेक्षण में दिलचस्प बात यह भी रही कि शिक्षकों का अपने छात्रों के बीच प्रतिबद्धता का उच्च स्तर दिखा। लेकिन जब उनसे पूछा गया कि वे छात्रों को परीक्षा की तैयारी करने में कैसे मदद करते हैं, तो उनमें से 73% ने कहा कि वे अपने छात्रों को विभिन्न प्रकार के सवालों के जवाब देना सिखाते हैं। यह तथ्य भी उभरकर सामने आया कि छात्रों का परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन सुनिश्चित करने मामले में भारत के शिक्षक दुनिया में सबसे कम दबाव में हैं। 60.4% शिक्षकों को लगता है कि परीक्षा में छात्रों का प्रदर्शन उनके पेशेवर प्रदर्शन का पैमाना है।
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अधिकांश तथ्य यह निकला कि ज्यादतर शिक्षकों को लगता है कि परीक्षा में छात्रों का अच्छा प्रदर्शन उनकी व्यावसायिक सफलता का पैमाना है। उनका ध्यान वास्तव में उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षण को सुनिश्चित करने पर नहीं है, बल्कि बस छात्रों को परीक्षा में मदद करने पर है। स्कूलों में देखने को यह भी मिलता है कि ज्यादातर स्कूलों में कक्षा में व्यावहारिक रूप से कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता है। पाठों की सरसरी ब्रीफिंग की जाती है और छात्रों को होमवर्क दे दिया जाता है। चूंकि छात्र स्कूल में बुनियादी अवधारणाओं को समझ नहीं पाते हैं, इसलिए वे माता-पिता की मदद लेने के लिए मजबूर होते हैं। उच्च डिग्रीधारी माता-पिता बच्चों की मदद तो करते हैं लेकिन उनसे शिक्षकों का काम करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे में बच्चों के लिए ट्यूशन लगा देते हैं। ट्यूशन भी शिक्षक ऐसे पढ़ाते हैं कि वे परीक्षाओं को क्रैक कर सकें।
एक वाक्य में कहा जाए तो भारत में शिक्षा प्रणाली का कुल मखौल उड़ रहा है। अगर कोई छात्र अपने विषय के प्रोफेसर से कुछ अलग पूछता है जो उसके पाठ्यक्रम में नहीं हैं, तो उससे कहा जाता है कि वह सिर्फ उसी बात पर ध्यान केंद्रित करें जो निर्धारित पाठ्यपुस्तक में है और परीक्षा के लिए प्रासंगिक है। लेकिन यह विवादित स्थिति हमेशा से नहीं रही है। मेरा मानना है कि हमसे पहले की दो पीढ़ियों की बेहतर स्कूलिंग हुई थी।
यह भी सच है कि शिक्षा तक उनकी पहुंच सीमित थी लेकिन उन्होंने जो कुछ भी सीखा, अच्छी तरह से सीखा। दादा-दादी शायद केवल आठवीं या दसवीं कक्षा तक पढ़े थे, लेकिन मूल पर उनकी बहुत मजबूत पकड़ थी। प्रतीत होता है कि शिक्षा क्षेत्र में व्यापक पहुंच के दौरान, स्कूलों और शिक्षकों ने गुणवत्ता से समझौता करना शुरू कर दिया। गुणवत्ता की जगह परीक्षा में प्रदर्शन करना आना अंतिम मापदंड बन गया। यह उन सर्वेक्षणों में परिलक्षित होता है जहां बड़ी संख्या में छात्रों को वही पढ़ाया जाता है जो उनकी कक्षा के लिए प्रासंगिक हैं। अब यह स्पष्ट हो गया है कि हमारे स्कूल और विश्वविद्यालय केवल डिग्री देने वाली संस्थाएं बन गईं हैं। इसका मतलब साफ है कि रोजगार बाजार में उनके पास रोजगार देने की कम क्षमता है। इसके अलावा आर्टिफिशियल इंटेलीजेन्स और ऑटोमेशन से कई श्रेणियों की नौकरियां गायब हो रही हैं। इसका मतलब है कि भविष्य के लिए हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो उच्च-कुशल, प्रौद्योगिकी-गहन नौकरियों के लिए छात्रों को योग्य बना सके। यदि चीजें तेजी से नहीं बदलती हैं तो हमारा जनसांख्यिकीय आंकड़ा जल्द ही जनसांख्यिकीय दुःस्वप्न में बदल जाएगा। अब यह समय है कि सरकार शिक्षा की गुणवत्ता को गंभीरता से ले और शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार करे।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की खराब गुणवत्ता की वजह
-जर्जर बुनियादी ढांचा।
-शिक्षक-छात्र अनुपात में भारी अंतर
-शिक्षकों का मानकों पर खरा न उतरना।
-शिक्षकों में समर्पण का अभाव
-शिक्षकों पर कई जिम्मेदारियां थोपना, इससे उन पर भार पड़ता है।
-राजनीतिक हस्तक्षेप
-स्कूल के सभी मामलों में भ्रष्टाचार।
-गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में राज्य सरकारों की उदासीनता
गुणवत्ता सुधारने के लिए सुझाव
-स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए कोई आरक्षण नहीं हो।
-कोई कमबैक न हो, केवल मेरिट के आधार नियुक्ति हो।
-नेताओं को स्कूल प्रशासन से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए
-नेताओं को स्कूल से दूर रखा जाए।
-छात्र कल्याण की सभी गतिविधियों को अभिभावक-शिक्षक संघ अंजाम दें।
-सरकार की भूमिका केवल आवश्यक धन की मंजूरी देना हो।
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