नई दिल्ली: अटल बिहारी वाजपेयी की आज 95वीं जयंती है। अटल बिहारी वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री, प्रखर राजनेता और ओजस्वी वक्ता थे। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था। वे पहली बार साल 1996 में 16 मई से 1 जून तक, 19 मार्च 1998 से 26 अप्रैल 1999 तक और फिर 13 अक्टूबर 1999 से 22 मई 2004 तक देश के प्रधानमंत्री रहे हैं।
भारतीय जनसंघ की स्थापना में भी उनकी अहम भूमिका रही। वे 1968 से 1973 तक जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। अटल जी का पूरा जीवन हमारे लिए एक प्रेरणा है, और उन्हें यहां शब्दों में बंया नहीं किया जा सकता है। आज हम आपको अटल बिहारी वाजपेयी की उन कविताओं के बारे में बता रहे हैं, जिनकों अपना कर आप अपनी जिंदगी में बेहतर बदलाव ला सकते हैं।
अटल जी ने ऐसे तो एक अनुमान के मुताबिक 51 से अधिक कविताएं लिखी है, लेकिन हम यहां कुछ चुनिंदा कविताओं के बारें में बता रहे हैं….।
जीवन की ढलने लगी सांझ
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
गीत नया गाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा,
रार नई ठानूँगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
पीठ मे छुरी सा चांद
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ
मौत से ठन गई
ठन गई
मौत से ठन गई
जूझने का मेरा इरादा न था
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा
जीवन बीत चला
कल कल करते आज
हाथ से निकले सारे
भूत भविष्यत की चिंता में
वर्तमान की बाजी हारे
पहरा कोई काम न आया
रसघट रीत चला
जीवन बीत चला।
हानि लाभ के पलड़ों में
तुलता जीवन व्यापार हो गया
मोल लगा बिकने वाले का
बिना बिका बेकार हो गया
मुझे हाट में छोड़ अकेला
एक एक कर मीत चला
जीवन बीत चला।
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