‘रील्स’ का चस्का कर रहा है ‘रियल’ लाइफ से दूर

एक रिपोर्ट के अनुसार 10 साल की उम्र से पहले बच्चों को फोन देना उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। नेत्र चिकित्सकों के अनुसार आने वाले 10 से 12 साल में बच्चों में मयोपिया बीमारी देखी जा सकती है।

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आज हम आधुनिकता के दौर में शायद सब कुछ नजरअंदाज करते जा रहें है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है “रील्स “। पहले मोबाइल फोन सिर्फ एक ऐसा माध्यम था जिसके जरिये हम अपनों से और पास हो गए कभी फ़ोन कॉल्स के जरिये तो कभी सोशल मीडिया के जरिये। लेकिन कहते है ना “अति सर्वत्र वर्जयेत”। सोशल मीडिया ने हमें ऐसा जकड़ा की हर इंसान आज उसकी गिरफ्त में है। आजकल इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से हम पूरी दुनिया से संपर्क साध सकते हैं। लेकिन हमारा हमसे ही संपर्क टूट सा गया है। आज हर कोई मोबाइल पर रील्स स्क्रोल करता नजर आ रहा हैं। लोग एक दूसरे से बात कम करते नजर आते है, लेकिन रील्स के जरिये उनका संपर्क बना हुआ है। भारत के ज्यादातर जनसँख्या रील्स बनाने और रील्स देखने में ही व्यस्त है। इसका दुष्प्रभाव हमारे मानसिक, शारीरिक स्वास्थय पर होता जा रहा है , जिसको हम अनदेखा करते जा रहें है।

“रील्स” ने छीना बचपन
पहले बचपन में बच्चों को खाना खिलाना हो या फिर सुलाना हो उनको कहानियां सुनाई जाती थी। नए युग में सभी बातों का हल हम मोबाइल में ढूंढने लग गए। आजकल एक अलग ही होड़ मची हुई है। जिसे देखो वो अपने बच्चों के रील बनाने को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित रहता है। पढ़ाई के बोझ के साथ-साथ माँ- बाप उन्हें रील्स का बोझ भी दे रहें है। आजकल बच्चों के चैनल बना दिए जाते है, फिर उन बच्चों से रील बना कर डाली जाती है। कई लोगों ने तो इसे कमाई का जरिया बना रखा है। बच्चों को भी इस काम में बड़ा मजा आता है । आजकल बच्चे टेक्नोलॉजी को लेकर वैसे भी बहुत आगे है लेकिन रील्स ने बच्चों की एकाग्रता और मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। बच्चे हो या बड़े सब में रील्स की लत एक संक्रमण की तरह बढ़ रही है। इसलिए बच्चे वक़्त से पहले बड़े हो रहे है। उनका मानसिक स्वास्थ्य इस कदर प्रभावित हो रहा है की उनमे गुस्सा, चिड़चिड़ापन, असंतुलन बढ़ता जा रहा हैं। धैर्य की भावना खत्म होती जा रही है।

बढ़ रही अपराध की प्रवृति
रील्स देखने की वजह से जहां एक तरफ बच्चों में एकाग्रता की कमी आई है वहीँ दूसरी तरफ उनमे अपराध की प्रवृति भी बढ़ी है। कई मामलें ऐसे देखे गए है जिनमे मोबाइल नहीं देने पर बच्चे ने अभिवाहक पर हमला कर दिया। हाल ही में कई बार रील्स पर ऐसे कंटेंट भी आते है जो अश्लीलता, अपराध से भरे होते है ।आजकल बच्चे स्कूल बैग में किताबों के साथ चाकू रखने लगे है। चोरी करना, झूठ बोलना , आक्रामक होना ऐसी कई सारी समस्याओं का कारण एक ही है , जरुरत से ज्यादा मोबाइल का उपयोग करना। ऑन लाइन ज्यादा समय बिताने के कारण साइबर बुलिंग का भी शिकार हो रहे है। स्मार्ट फ़ोन्स की वजह से बच्चों में शारीरिक गतिविधि काम हो गयी है।

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य असर
कई बार ये समस्या सुनने को मिलती है की बच्चे को कितना भी खिलाओ लेकिन उसके शरीर को लगता ही नहीं है। मोबाइल देख कर खाना खाने की आदत पहले माता -पिता खुद ही बच्चों में डालते है फिर समस्याओं से दुखी रहते हैं। रील्स पर सेक्सुअल कंटेंट देखने की वजह से कम उम्र में ही हॉर्मोन्स में बदलाव होने लगते है। जिससे उम्र से पहले ही बच्चियों में पीरियड्स आना आम बात हो गयी है। इसी के साथ-साथ नींद का कम होना, भूख नहीं लगना, एकाकीपन , खोये रहना ये सभी मानसिक अवसाद है। कम उम्र में ही बच्चे, युवा इसका शिकार हो रहे है। छोटे छोटे बच्चों की आँखों पर चश्मा लग जाना कोई बड़ी बात नहीं रही गई हैं ।

एक सर्वे के अनुसार सोशल मीडिया के कारण बच्चों में डिप्रेशन भी बढ़ रहा है। 11 वर्ष से छोटे बच्चे या फिर इसी उम्र के बच्चे इंस्टाग्राम और स्नैपचैट से एप्प्स पर घंटो बिता रहे है , जिसके कारण यौन उत्पीड़न का शिकार भी हो रहे है। इन बच्चों का व्यव्हार भी डिजिटल ही होता जा रहा है। सामाजिक व्यव्हार से बचपन कोसों दूर जा रहा है। आत्म विश्वास की कमी, अकेलापन ये सभी समस्याएँ बच्चों में जिस तरह से बच्चों में दिन -प्रतिदिन बढ़ रही हैं उसे नजरअंदाज करना बहुत बड़ी चेतावनी हैं ।

स्क्रॉल करने से 76% बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर
किड्स एंड टेक: इ एवोल्‍यूशन ऑफ टुडेज डिजीटल नेटिव्‍स की एक रिपोर्ट के अनुसार 10 साल की उम्र से पहले बच्चों को फोन देना उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। नेत्र चिकित्सकों के अनुसार आने वाले 10 से 12 साल में बच्चों में मयोपिया बीमारी देखी जा सकती है। इस बीमारी के अंर्तगत निकट की दृष्टि कमजोर हो जाती है। आंकड़ों की मानें तो 6 साल की उम्र में बार बार स्क्रॉल करने से 76% बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है और जिन्होंने 18 साल के बाद मोबाइल का उपयोग ज्यादा किया है उनमें 46% मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित पाया गया है। माइक्रोसॉफ्ट कंपनी खुद इस बात को स्वीकार करती है की 50 प्रतिशत से भी ज्यादा बच्चें साइबर बुलिंग का शिकार होते है।

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जिम्मेदार है हम
सोशल मीडिया पर बच्चों के अकाउंट बनाकर उनपर करोड़ों व्यूज और सब्सक्राइबर पाकर अभिवाहक इतने खुश होते है और गर्व की बात समझते है। लेकिन वो भूल जाते है की ये एक ऐसा दलदल है जिसमे से निकलना बहुत मुश्किल होता है। इन सब से आपका बच्चा दुनिया की नजर में तो आ जायेगा लेकिन वो कब आपसे इतना दूर हो जायेगा की आपको खुद को भी नहीं पता लगेगा। कई बार अभिवाहक शिकायत करते है की उनके बच्चे बहुत गुस्सैल और बद्तमीज होते जा रहे है। इन सब समस्यों के लिए वे खुद ही जिम्मेदार होते है।

बच्चे में अगर कोई हुनर है तो उसको और निखारना चाहिए। उन्हें खेलने , नृत्य सिखने, गायन , कराटे, या ऐसी ही अनेक गतिविधियों में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। जिससे बच्चे का शारीरक और मानसिक दोनों विकास हो। अगर आपके बचे में हुनर है तो उसे कोई ऐसा प्लेटफार्म दीजिए जिससे वो प्रेरित हो और आगे बढे। इस भेड़ चाल का हिस्सा ना खुद बनिए और ना ही अपने मासूमों को बनाइये। बचपन हो या जवानी दुबारा लौट कर नहीं आते। इन बच्चों का बचपन यादगार बनाइये। उनको ऐसी यादें दीजिये जिससे उनका लगाव और उनकी समझ बढ़ें ।

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