क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने लगा दी रोक, जानें अब चुनावों में कितना होगा नुकसान

2017 में अरुण जेटली ने इसे पेश करते वक्त दावा किया कि इससे राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। ब्लैक मनी पर अंकुश लगेगा।

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Supreme Court verdict on Electoral Bond: लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 6 साल पुरानी इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को अवैध करार दिया। साथ ही इसके जरिए चंदा लेने पर तत्काल रोक लगा दी। 5 जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस ने कहा, ‘पॉलिटिकल प्रॉसेस में राजनीतिक दल अहम यूनिट होते हैं।

पॉलिटिकल फंडिंग की जानकारी, वह प्रक्रिया है, जिससे मतदाता को वोट डालने के लिए सही चॉइस मिलती है। वोटर्स को चुनावी फंडिंग के बारे में जानने का अधिकार है, जिससे मतदान के लिए सही चयन होता है।’ कोर्ट ने कहा कि बॉन्ड की गोपनीयता बनाए रखना असंवैधानिक है। यह स्कीम सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।

कोर्ट ने भारतीय स्टेट बैंक (SBI) को निर्देश दिए हैं कि 2019 से ले कर अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी सारी जानकारी तीन हफ्ते के अंदर चुनाव आयोग को सौंपे। और, चुनाव आयोग को ये सारी जानकारी अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर पब्लिश करनी होगी।

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सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बड़ी बातें
1. SBI राजनीतिक दलों का ब्योरा दे, जिन्होंने 2019 से अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा हासिल किया है।
2. SBI राजनीतिक दल की ओर से कैश किए गए हर इलेक्टोरल बॉन्ड की डिटेल दे, कैश करने की तारीख का भी ब्योरा दे।
3. SBI सारी जानकारी 6 मार्च 2024 तक इलेक्शन कमीशन को दे और इलेक्शन कमीशन 13 मार्च तक अपनी ऑफिशियल वेबसाइट पर इसे पब्लिश करे।
4. राजनीतिक चंदे की गोपनीयता के पीछे ब्लैक मनी पर नकेल कसने का तर्क सही नहीं। यह सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
5. कंपनी एक्ट में संशोधन मनमाना और असंवैधानिक कदम है। इसके जरिए कंपनियों की ओर से राजनीतिक दलों को असीमित फंडिंग का रास्ता खुला।
6. निजता के मौलिक अधिकार में नागरिकों के राजनीतिक जुड़ाव को भी गोपनीय रखना शामिल है।

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इलेक्टोरल बॉन्ड (Electoral Bond) क्या है?
मोदी सरकार ने 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड लाने की घोषणा की थी। इसके तहत सरकार हर साल चार बार 10-10 दिनों के लिए बॉन्ड जारी करती थी। बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर महीने में जारी किए जाते थे। मूल्य होता था- एक हजार, दस हजार, दस लाख या एक करोड़ रुपये। राजनीतिक पार्टियों को 2 हजार रुपये से अधिक चंदा देने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति या कॉरपोरेट हाउस भारतीय स्टेट बैंक की तय शाखाओं से ये बॉन्ड खरीद सकते थे। इलेक्टोरल बॉन्ड को RTI (सूचना के अधिकार) के दायरे से भी बाहर रखा गया था।

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क्या है पूरा मामला
इस योजना को 2017 में ही चुनौती दी गई थी, लेकिन सुनवाई 2019 में शुरू हुई। 12 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने सभी पॉलिटिकल पार्टियों को निर्देश दिया कि वे 30 मई, 2019 तक में एक लिफाफे में चुनावी बॉन्ड से जुड़ी सभी जानकारी चुनाव आयोग को दें। हालांकि, कोर्ट ने इस योजना पर रोक नहीं लगाई। बाद में दिसंबर, 2019 में याचिकाकर्ता एसोसिएशन फॉर डेमोक्रटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने इस योजना पर रोक लगाने के लिए एक आवेदन दिया। इसमें मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बताया गया कि किस तरह चुनावी बॉन्ड योजना पर चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक की चिंताओं को केंद्र सरकार ने दरकिनार किया था। इस पर सुनवाई के दौरान तत्कालीन CJI एसए बोबडे ने कहा कि मामले की सुनवाई जनवरी 2020 में होगी। चुनाव आयोग की ओर से जवाब दाखिल करने के लिए सुनवाई को फिर से स्थगित कर दिया गया। इसके बाद से अभी तक इस मामले को कोई सुनवाई नहीं हुई है।

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इलेक्टोरल बॉन्ड पर विवाद क्यों?
2017 में अरुण जेटली ने इसे पेश करते वक्त दावा किया कि इससे राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। ब्लैक मनी पर अंकुश लगेगा। दूसरी ओर इसका विरोध करने वालों का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले की पहचान जाहिर नहीं की जाती है, इससे ये चुनावों में काले धन के इस्तेमाल का जरिया बन सकते हैं। कुछ लोगों का आरोप है कि इस स्कीम को बड़े कॉर्पोरेट घरानों को ध्यान में रखकर लाया गया है। इससे ये घराने बिना पहचान उजागर हुए जितनी मर्जी उतना चंदा राजनीतिक पार्टियों को दे सकते हैं।

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