लंबा अरसा बीत गया, हमें डाकिये नहीं दिखे: अविनाश झा

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‘काका’

शाम के 6:30 बज रहे थे और मैं अपने कमरे में बैठा सोच रहा था कि आज काका को आने में देर हो गयी, वरना वह तो रोज़ 6 बजे तक आ जाते थे और मेरे घर के बाहर वाले चबूतरे पर बैठकर अपने थैले से चिट्ठियां निकालकर ढंग से लगाने में व्यस्त हो जाते थे। दरअसल, काका हमारे इलाके के पोस्टमैन थे और पिछले कई सालों से वो हमारे यहाँ आते और यही क्रम दोहराया करते थे। वह आये तो हमेशा की तरह मैंने उनको आवाज़ देकर कहा, “काका, अंदर आ जाओ। चाय कब से ठंडी हो रही है।” यह सुनकर उन्होंने अपने जवाब में सिर हिला दिया। मुझे कुछ अजीब सा लगा कि अक्सर खूब बातें करने वाले काका आज शांत क्यों थे?

खैर, वह आये और चाय पीने लगे। मैंने पूछा, “क्या हुआ काका, कोई समस्या है क्या?” मेरा सवाल सीधा था पर वह तो जैसे फूट पड़े। वह मुस्कुरा रहे थे, पर आँखों से आँसू भी आ रहे थे। बहुत खतरनाक कॉम्बिनशन होता है यह, मुस्कराहट के साथ आँसूओं का। खुद को संभालते हुए वह बोले, “बेटा, आज पोस्ट ऑफिस के बाबू ने कहा कि इस इलाके का पोस्टऑफिस अब बंद हो रहा है, आप कहीं और इंतज़ाम कर लो।” मैंने भी गुस्से में कहा, “अरे! ऐसे कैसे बंद कर सकते हैं वे लोग?” वह बोले, “बेटा, उनका दोष नहीं है। अब वह ज़माना तो रहा नहीं कि चिट्ठियाँ आती हों।

इस नए दौर के विकास ने बहुत कुछ दिया है, पर बहुत सारे लोगों से बहुत कुछ छीना भी है।” फिर मैंने स्वाभाविक सा सवाल पूछा और दिलासा देते हुए कहा, “काका, फिर आप क्यों परेशान हो? आप कोई और काम कर लेना और वैसे भी आप तो रिटायर ही होने वाले थे।” वह मेरी तरफ देखकर बोले, “बेटा इस काम को करते-करते मैंने पीढ़ियों को मिटते देखा है। मैं ये काम इसलिए करता था ताकि लोगों की भावनाओं को उनके घरों तक पंहुचा सकूँ। कई बहनों की राखियों को उनके भाईयों से मिलवा सकूँ, सीमा पर खड़े सैनिक की खैर-ख़बर उसके घर तक पहुँचा सकूँ। ये सब करने के मुझे पैसे मिलते थे, पर इससे भी बढ़कर कुछ था तो वह थी राखी पाकर भाईयों के चेहरे की चमक। बेटे की सलामती की ख़बर सुनकर खुश होती माँ। मैं इन सब से खुश भी होता था और किसी परिवार के दुःख में उनके साथ रोता भी था।

पूरा इलाका मेरा परिवार सा बन गया था। जैसे तुम मुझे रोज़ चाय पिलाते हो, ऐसे ही ये सब भी मेरे लिए रोज़ का काम था। पर अब सब खत्म हो जायेगा, बस रह जाऊंगा तो मैं और ये, मेरा झोला।” ये कहकर उन्होंने चाय खत्म की और उठकर चल दिए। उनके बैग से कुछ गिर पड़ा था। मैंने आवाज़ देकर बुलाने की कोशिश भी की पर वो चलते चले गए। लौटकर वापस आने पर मैंने देखा कि वे कुछ चिट्ठियाँ थीं। वे चिट्ठियाँ, जो वो कभी दे नहीं पाये थे। एक चिट्ठी थी जिसमें सीमा पर शहीद हुए सिपाही का आखिरी ख़त था। एक चिट्ठी में एक लड़के के रोड एक्सीडेंट में मर जाने के बाद आया हुआ जॉब लैटर था, जो वह नहीं पहुँचा पाये थे। और भी ना जाने कौन-कौन से ख़त वह छोड़कर चले गए थे। और मैं अकेला ऐसे खड़ा था, जैसे मेरा सब कुछ छिन गया हो। सही और गलत के फर्क के बीच मैं बेबस था। सोच रहा था कि भावनाएँ इंसान को कमज़ोर बनाती हैं या बेबस? बस सोच रहा था और आज भी सोच रहा हूँ। “दूरभाष पर बतियाते हैं, चिट्ठी-पत्री कौन लिखे, लंबा अरसा बीत गया, हमें डाकिये नहीं दिखे।”

अविनाश झा 

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं