मासूम कोख़

0
957

दोस्तों, हम सबने सुना है की पैसे से हर चीज़ खरीदी जा सकती है। आजकल कोख़ भी खरीदी जाती है , तो इसी के ऊपर मेरी एक रचना आपके साथ शेयर कर कर रहा हूँ..!!

कोख़ में बस तुमसे बातें करती थी
मेरे लिए रातों को जब तूं उठती थी ।
ये अंश तुझे सोने नहीं देता था जब
तुम मुस्करा कर बाहें आगे करती थी।

मेरा मंदिर, मस्जिद थी तेरी कोख़
छोटी कोख में बड़ी ख़ुशी पलती थी।
पीड़ा की चीख चुप रहती बग़ल में
मेरी खातिर दर्द से रिश्ता रखती थी ।

आँखें खुली तब सामने थे अजनबी
ग़ैर नज़रों से नन्हीं आँखें सड़ती थी।
अँधेरा सही पर सो रही थी बेखौफ़
मेरी लक़ीरों में “खुद को” लिखती थी…

अपनी ही कोख़ बिकने से डरती थी ….
अपनी ही कोख़ बिकने से डरती थी …।

©मनीष

मेरी कलम शीर्षक के तहत प्रकाशित अन्य कविताओं को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें