मजहब

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मजहब-मजहब से टकरा रहा है
इस मजहब की दीवार को गिरा देते हैं।

जब अपने होने का पता देते हैं
आंखों ही आंखों से कयामत गिरा देते हैं।

दिल में जब बात रह नहीं सकती
कागज कलम को सुना देते हैं।

कुछ रिश्ते निभाने के लिए
कुछ ख्वाइशों का दम तोड़ देते हैं।

पहले दुश्मनों से हम रशक रहते थे
अब उनको भी देखकर फकत मुस्कुरा देते है।

जिंदगी का सफर कब-कहां तक रहेगा
ये कहां किसी को अपना पता देती है।।

– रिया त्यागी
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