प्रेम , विवाह और तलाक तीनों ही अपने आप में बहुत बड़े मुद्दे हैं जिन पर अलग अलग विचारधारा वाले व्यक्तियों की अलग अलग राय हो सकती है किन्तु यह शीर्षक इन तीनों को को आज के दौर में एक कड़ी में जोड़कर देखने की अपेक्षा करता है। इस विषय में हर व्यक्ति अपना अलग मत रखता है। और समय के साथ इन तीनों के ही स्वरूप में बदलाव भी आ गया है। यहां सबसे पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि यह लेख प्रेम की परिणीति स्वरूप हुए विवाह में उत्पन्न होने वाली तलाक की समस्या पर लिखा गया है। अतः ऐसा बिल्कुल न समझ जाए की यहां किसी अन्य कारण से होने वाले तलाक को गलत सिद्ध करने की कोशिश की गई है। तलाक यदि सही कारण से है तो वह हर विवाहित व्यक्ति का कानूनन हक है और उससे इनकार नहीं किया जा सकता। पहले बात करते हैं अलग अलग दौर में प्रेम और विवाह की। एक जमाना था जब समाज में खुलापन बहुत कम था। यदि किसी के प्रति आकर्षण या प्रेम का भाव हो तो भी वह लोक लाज के भय से मन में ही दबा रह जाता था। विवाह घर के बड़े बुजुर्ग ही तय करते थे। घर से लेकर पात्र तक को देखना और निर्णय लेना उनके ही अनुसार होता था। जो इस बंधन में बंधने जा रहा होता था उससे सलाह मशविरा करने की कोई ज़रूरत समझी ही नहीं जाती थी।
विवाह के बंधन में बंधने वाले लोगों को भी इसमें कुछ गलत नज़र नहीं आता था क्योंकि उनकी नज़र में यही ज़माने के चलन था। इसमें एक बहुत बड़ा किरदार निभाता था विवाह का बहुत ही कम आयु में हो जाना। विवाह किशोरावस्था में हो जाया करते थे। विवाहोपरांत भी पुरुष अपनी शिक्षा या व्यापारिक प्रशिक्षण को पहले की भांति करते रहते थे और पत्नी परिवार में अन्य सदस्यों के साथ घुलमिल कर रहती थी। उनकी एक दूसरे से अपेक्षाएं बहुत कम थीं। इस बात को यूँ भी कहा जा सकता है कि उम्र इन सब बातों के लिए बहुत कम थी। फिर दौर बदला। महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढ़ा। स्त्री पुरुष दोनों में ही विवाह से पूर्व पूर्ण शिक्षित होने या परिवार की जिम्मेदारी उठाने योग्य होने लायक अपने व्यापार का ज्ञान होने तक विवाह न करने का चलन आया। साथ ही बदला समाज में प्रेम की अभिव्यक्ति का तरीका। इस दौर में अपनी पसंद को उपयुक्त मौका तलाश कर, हिम्मत जुटा दूसरे पक्ष तक स्वयं या किसी और के जरिये पहुंचाने का चलन आया। इस बात को यथासंभव गुप्त रखने का प्रयास होता था। एक और बात खास थी और वो थी प्रेम संबंध को जीवन साथी के स्वयं चुनाव ही के रूप में ही दोनों पक्ष मानकर चलते थे। किसी एक का इससे मुकर जाना धोखा देना माना जाता था। परिवारों की सहमति अक्सर नहीं ही होती थी। ये पूर्ण रूप से निर्भर करता था दोनों पात्रों पर कि वो दबाव के आगे झुक जाएंगे या हिम्मत करके आगे कदम बढ़ा पाएंगे। ये वो दौर था जब अंतर्जातीय विवाह अपने आरंभिक दौर में थे।
वो जोड़े जो उस दौर में विवाह संबंध में बंधे, उन्होंने दोनों ही ओर के परिवारों से अपने आरंभिक वैवाहिक जीवन में भेदभाव झेले किन्तु यही उनमें और अधिक नजदीकियां लाने में मददगार साबित हुआ। फिर आया आज का दौर। शिक्षा का स्तर बढ़ा, संचार के साधन बढ़े, साथ ही बढ़ा समाज में एक खुलापन। प्रेम का स्वरूप भी बदला। किशोरावस्था नें एक दूसरे के प्रति होने वाला आकर्षण ,जो पहले भी मौजूद हुआ करता था, अब प्रेम कहा जाने लगा। इसके साथ जुड़ी एक और बात उभर कर आई। पहले जहां प्रेम की परिणीति विवाह समझी जाती थी, अब ऐसा नहीं रहा। दोनों ही पक्ष एक दूसरे को खुलेआम जोड़े के रूप में पुकारे जाने में हिचकिचाते नहीं और आपस में पटरी न बैठ पाने की स्थिति में स्वेच्छा से अलग होकर आगे का जीवन एक दूसरे से अलग व्यतीत करने जा निर्णय बेहिचक लेने लगे। जहां पहले जीवनसाथी का चुनाव मात्र घर वालों की इच्छा पर निर्भर था, अब केवल पात्रों तक ही सीमित हो कर रह गया
ये तो रही बात प्रेम और विवाह की। अब आता है तलाक का मुद्दा। निश्चित रूप से हमारे समाज में तलाक के प्रतिशत में वृद्धि हुई है। इसके कई कारण हैं। सबसे पहले दौर में तलाक का प्रचलन ना के बराबर था। लेकिन उस दौर की अपनी परेशानियां थी। कई बार उच्च शिक्षा के लिए घर से दूर रहने वाले पुरुष दूसरा विवाह कर लेते थे। उनकी पहली पत्नी और संतान उनके परिवार के साथ ही जीवन बसर कर लेते थे और वो अपने नए परिवार में मगन हो जाते थे। यानी कि तलाक बिना हुए भी पति पत्नी एक दूसरे से अलग रहते थे।
दूसरे दौर में प्रेम का परिणाम यदि विवाह न हो सका तो दोनों ही पक्ष उसे यथा संभव गुप्त रख अपनी आगे की ज़िंदगी बसर किया करते थे और यदि विवाह हो पाया तो समाज और परिवार दोनों ही की तरफ से मिलने वाला खिंचाव उनके बीच सेतु का काम करता था। ऐसा नहीं था कि अहम कभी उनके बीच नहीं आया किन्तु उस दौर में विवाह संबंध के टूटने के बाद अपने भविष्य को लेकर एक भय हुआ करता था जो कई बार टकराव की स्थिति में दोनों ही पक्षों को झुकने पर मजबूर कर देता था। तलाकशुदा स्त्री और पुरुष दोनों ही को समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। पति पत्नी दोनों ही कभी बच्चों का भविष्य ,कभी परिवारजन के बारे में विचार कर या कभी अकेले आगे का जीवन काटने में आने वाली परेशानियों के बारे में सोचकर समझौते का रास्ता अपनाते थे।
आधुनिक दौर में स्थिति पूर्ण रूप से बदल चुकी है। अब जमाना भूत और भविष्य के बारे में अधिक सोचने का नहीं रहा। लोग शायद वर्तमान के विषय में अधिक सोचने लगे हैं। समाज का खुलापन जहां एक ओर प्रेम की अभिव्यक्ति में मददगार साबित हुआ वहीं दूसरी ओर विवाहित ज़िन्दगी में अहम के टकराव में आग में घी डालने का काम करता हुआ लगता है। समझौते की भावना का स्तर दोनों ही पक्षों में निरंतर कम होता जा रहा है।
समय के साथ आने वाले बदलाव को समझने के बाद जरूरी है कि निरर्थक बातों को अलग कर सार्थक मुद्दों को प्रयोग में लाया जाए। जहां तक बात प्रेम की है , वह संसार का सर्वोत्तम भाव है। यदि एक बच्चे का उसकी माँ से प्रेम, भाई बहन का आपसी प्रेम, मित्रों का परस्पर प्रेम भाव अनुकरणीय माना जाता है तो जीवनसाथी के रूप में एक दूसरे को पसंद करने वाले लोगों के बीच इसको गलत कैसे कहा जा सकता है। यदि ऐसा होता तो भगवान कृष्ण और राधा की अमर प्रेम कथा धार्मिक अनुष्ठानों में सुनाई न जाती। रोमियो और जूलियट की कथा अंग्रेजी साहित्य की कक्षा में पढ़ाई न जाती।हीर राँझा, लैला मजनूं, शीरी फरहाद के गीत घर घर न गाये जाते।
समय भले ही बदल जाये किन्तु प्रेम यदि सच्चा है तो उसका भाव कभी बदल नहीं सकता। आज जब नई पीढ़ी पढ़ लिख कर, आत्मनिर्भर हो कर ही विवाह के बंधन में बंधना चाहती है तो बेहतर है कि जीवनसाथी के चुनाव में सबसे बड़ी भूमिका वह स्वयं ही निभाये। एक दूसरे की पसंद नापसंद को भली भांति समझें। यदि लगता हो कि वो एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, तभी विवाह के बंधन में बधें, अन्यथा नहीं क्योंकि एक बार गौर करने वाली है कि यदि ये संबंध आगे चलकर टूटने की कगार पर आ खड़े होते हैं तो उसमें मात्र दो ही नहीं ,और लोग भी इस त्रास को झेलते हैं जिसमे बच्चे विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
यदि विवाह का रास्ता अपनाया गया है तो ध्यान रहे हिन्दू विवाह में फेरों के वक्त लिए जाने वाले वचन उपहास मात्र नहीं है। उनमें बहुत गूढ़ भाव छुपे हैं। पति और पत्नी दोनों एक दूसरे के सम्पूरक बताये गए हैं अर्थात एक की कमी को दूसरा पूरा करेगा, ऐसी अपेक्षा की गई है। यही विवाहित जीवन का मूल मंत्र है। मुस्लिम और ईसाई विवाह में भी मौलवी या पादरी शादी के बंधन में बंधने जा रहे पात्रों से उनकी मर्जी पूछ कर ही आगे बढ़ते हैं।
अधिकतर जोड़ों में अहम का टकराव उनको एक दूसरे की कमियां इंगित करवाने में इतना व्यस्त कर देता है कि वो शायद इस बात को भूल ही जाते हैं कि कभी उन्होंने एक दूसरे को अपने लिए स्वयं पसंद किया था। कोई भी रिश्ता समय के साथ अपना स्वरूप बदलता है। एक व्यक्ति को एक ही समय में अपने अलग अलग रिश्तों को निभाना होता है। जिम्मेदारियों और परिवार के बीच कई बार समयाभाव के कारण भी संबंध तनावपूर्ण हो जाते हैं। आज के दौर में ये तनाव स्त्री और पुरुष दोनों तरफ है क्योंकि अधिकतर दोनों ही कामकाजी होते हैं।
ध्यान रहे कोई भी इंसान सर्वगुण सम्पन्न नहीं होता। हैं ये ज़रूर है कि प्रत्येक व्यक्ति में अपने अलग गुण होते हैं और अपने अलग दोष। स्त्री और पुरुष दोनों से ही बदलते वक्त के साथ स्वयं की सोच को बदलने की अपेक्षा की जाती है। प्रेम जुड़ने को कहता है, टूटने को कभी नहीं। यदि हमने किसी को प्रेमपूर्वक अपनाया है तो उससे जुड़े लोगों को भी आदर, प्रेम देना होगा। कई बार जिस आदर की अपेक्षा हमको उनसे है, वो नहीं मिल पाती किन्तु इसमें दोष हमारे जीवनसाथी का नहीं, उस व्यक्ति विशेष का होता है। धैर्य का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। अधीरता और अति अपेक्षा संबंधों को खत्म ही करती है। ध्यान रहे जो पुराने संबंधों को निभा नहीं सकता , वो नए संबंधों को भी तभी तक निभा पायेगा , जब तक उनमें ताज़गी है।
ये एक अकाट्य सत्य है कि समय के साथ परिवर्तनशीलता आदिकाल से चली आ रही है। संबंधों में किसी भी तनाव, परेशानी के समय में दूसरे के स्थान पर स्वयं को रखकर देखा जाए तो अधिकतर समस्याओं का समाधान हो सकता है।अंत में इतना ही लिखना काफी होगा कि न तो इसका पता है कि ज़िन्दगी कब तक है और कब नहीं और न ही इसका कि हमारा आने वाला कल आज से बेहतर होगा या नहीं। तो बिना वजह के मुद्दों से अपने आज के जीवन में कोई भी कमी क्यों रखी जाए। यदि अपने जीवन में अपने लिए ही जीने की सोच के बदले जीवनसाथी की पसंद नापसंद के बारे में सोचना भी शामिल कर लिया जाए तो शायद संबंध और अधिक बेहतर हो जाएंगे।
दीपा जोशी धवन
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