इन कारणों की वजह से कमजोर हैं मानवता के खिलाफ अपराधों पर बने कानून

यह दुखद स्थिति है कि वर्ष 2009 से भारत में बच्चों के खिलाफ अपराधों में लगभग 300% की वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2009 से बच्चों के खिलाफ अपराध में वृद्धि हुई है। 2009 में 24,203 घटनाएं हुईं थीं जो 2015 में बढ़कर 92,172 हो गई।

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आज हर कहीं सुनाई दे रहा है कि मानवता के खिलाफ अपराधों में इजाफा हुआ है। मानवता तार-तार हुई जा रही है। किसी में शर्म नाम की जैसी कोई चीज ही नहीं बची है। और आखिर में, तर्क दिया जाता है कि मानवता की रक्षा के लिए
हम आगे नहीं आएंगे तो हमारी प्राचीन सामाजिक धरोहर, परिवार की अवधारणा कैसे जीवित रह सकेगी। अत्याचार, बलात्कार, यौन दासता, दासता, नस्लवाद का अपराध, हिन्दू बनाम मुस्लिम को रंग देना,  बाल श्रम, पर्यावरण को नुकसान, विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थाओं में होने वाली रैगिंग, नरसंहार, क्रामकता का अपराध,  आबादी का निर्वासन या जबरन हस्तांतरण, स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित करना आदि अनगिनत एेसे अपराध हैं जिनको गिना जाना सम्भव नहीं है। मन और मष्तिस्क पर कुठाराघात करने वाला हर अपराध मानवता के खिलाफ अपराधों में गिना जाना चाहिए। मानवता के खिलाफ अपराध कुछ ऐसा काम है जो व्यापक रूप से निर्देशित -व्यवस्थित हमले या व्यक्तिगत हमले के रूप में किसी भी नागरिक या समूह के खिलाफ जानबूझकर किया जाता है। मानवता के खिलाफ अपराध उन बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रता से भी जुड़ा हुआ है जिसका इंसान हकदार हैं।

यहां यह भी देखा जाना चाहिए कि मानवाधिकार नागरिक स्वतंत्रता से अलग हैं, जो एक विशेष राज्य के कानून द्वारा स्वतंत्रता स्थापित करने के लिए बनाए जाते हैं और उस राज्य के अधिकार क्षेत्र में लागू होते हैं। संक्षेप में कहें, तो  मानव अधिकार कस्टम या कानून के द्वारा स्थापित स्वतंत्रताएं हैं जो मनुष्यों के हितों और हर राष्ट्र में सरकारों के आचरण की रक्षा करते हैं। “मानवता के खिलाफ अपराध” शब्द का उपयोग सम्भवतः सबसे पहले अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में हुआ। हालांकि इस शब्द का (या बहुत समान शब्द) का उपयोग दासता और दास व्यापार के संदर्भ में किया गया था। अफ्रीका में यूरोपीय उपनिवेशवाद से जुड़े अत्याचारों और बेल्जियम के लियोपोल्ड द्वितीय द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन करने के लिए दासता शब्द का इस्तेमाल किया गया था। लगता है कि “मानवता के खिलाफ अपराध” शब्द 1915 में सहयोगी सरकारों (फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन और रूस) द्वारा औपचारिक रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक रूप से तब शुरू किया गया था जब तुर्क साम्राज्य में अर्मेनियाई लोगों की सामूहिक हत्या की निन्दा की घोषणा की गई। मानवता के खिलाफ अपराध का मुकदमा पहली बार न्यूरेमबर्ग में अंतर्राष्ट्रीय सैन्य न्यायाधिकरण (आईएमटी) में 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही चलाया गया था। न्यूरेमबर्ग के साथ ही टोक्यो में आईएमटी की स्थापना करने वाले चार्टर में अपराधों की एक समान परिभाषा दी गई थी। यह भी देखे जाने योग्य तथ्य है कि मानवता के खिलाफ अपराधों को अभी तक अंतरराष्ट्रीय कानून में नरसंहार और युद्ध अपराधों की तरह से संहिताबद्ध
नहीं किया गया है, हालांकि ऐसा किए जाने का प्रयास जारी हैं। इसके बावजूद, मानवता के खिलाफ अपराधों को नरसंहार की तरह अंतर्राष्ट्रीय कानून का एक सर्वोच्च मानदंड माना जाता है।

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कोई इसे नकार नहीं सकता और यह सभी देशों पर लागू होता है। भारत के संदर्भ में देखा जाए तो हाल के दिनों में बड़े पैमाने पर होने वाले अपराधों के हालात से निपटने के लिए कानूनों की जरूरत पर देश में बहुत बहस हुई है। भारत में बड़े पैमाने पर मानवता के खिलाफ अपराधों के कुछ दस्तावेज भी सामने आए हैं। हालांकि हरेक मामले के कारण, तथ्य और जिम्मेदारी अलग-अलग दिखती है लेकिन समान बात यह है कि ये सभी तथ्य मानवता के खिलाफ अपराधों की परिभाषा को पूरा करते हैं। वर्ष 2006 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया था कि हिरासत में उत्पीड़न, हमले और मौत की घटनाएं इतनी व्यापक हैं कि “कानून के शासन की विश्वसनीयता और आपराधिक न्याय पर गंभीर प्रश्न उठाए जा सकते हैं। एक एशियाई मानवाधिकार आयोग ने अपने एक अध्ययन में निष्कर्ष निकाला था कि देश के हर थाने में  यातना देने का अभ्यास किया जाता है। दुखद स्थित यह है कि मानवाधिकार समूहों के मुताबिक, जब तक कि हिरासत में कोई मौत न हो, उसके आंकड़े ही तब तक दर्ज नहीं किए जाते। यह आंकड़ा साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है। संक्षेप में, सामान्य रूप से यही देखा जाता है कि  पुलिस, सुरक्षा बलों द्वारा यातना देना, हिरासत में मौत और झूठी मुठभेड़ सरकारों की आदत पड़ चुकी है।

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नागरिकों को नियंत्रित करने के लिए भी इस तरह की घटनाओं को अमली-जामा पहनाया जाता है। यद्यपि हम 21वीं शताब्दी में जी रहे हैं लेकिन दक्षिण एशियाई महाद्वीप में पाषाण युग का स्वाद मिलता रहता है। कहना न होगा कि पंजाब, कश्मीर और पूर्वोत्तर में, सुरक्षा बलों ने राज्य से पुरस्कार और प्रचार प्राप्त करने की उम्मीद में संदिग्धों और साधारण व्यक्तियों को मारने के लिए फर्जी मुठभेड़ों का करना जारी रखा है। यह दुखद स्थिति है कि वर्ष 2009 से भारत में बच्चों के खिलाफ अपराधों में लगभग 300% की वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2009 से बच्चों के खिलाफ अपराध में वृद्धि हुई है। 2009 में 24,203 घटनाएं हुईं थीं जो 2015 में बढ़कर 92,172 हो गई। गहन विश्लेषण से यह भी रेखांकित किया गया है कि सामान्य वर्ग की लड़कियों के अपहरण और वेश्यावृत्ति के लिए नाबालिगों को बेचे जाने की घटनाएं बहुत बढ़ी हैं। हालांकि “मानवता के खिलाफ अपराध” एक ऐसा फॉर्मूलेशन है जो समाज के ताकतवर लोगों, समूहों की सुरक्षा के लिए नियुक्त पुलिस बलों  द्वारा किया जाता है।  “मानवता के खिलाफ अपराध”, भयावहता का डरावना रूप है।” ऐसा क्यों हुआ? मुझे नहीं पता।

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