औरतों के लिए लड़ने वाले तो बहुत हैं लेकिन कई पुरुष भी समाज में महिलाओं द्वारा शोषित हो रहे हैं, जिनके लिए महिलाओं की अपेक्षा बहुत कम आवाज उठ रही है। ये कहना ऐसी शख्सियत का जिन्होंने थैलेसीमिया जैसी गंभीर बीमारी को कभी अपनी सफलता के रास्ते का रोड़ा नहीं बनने दिया। ‘यू कम लाइक होप’ किताब की लेखिका ज्योति अरोड़ा बताती है कि इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि मेरा जन्म उस दिन हुआ, जिस दिन विश्व थैलेसीमिया दिवस मनाया जाता है।
ये बीमारी मेरे जीवन भर का संघर्ष बन गई लेकिन इसे अपनी सफलता के बीच नहीं आने दिया। बीमारी के कारण सात साल की उम्र में स्कूल छोड़ना पड़ा लेकिन अपनी पढ़ाई जारी रखी। पत्राचार से दिल्ली यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य और मनोविज्ञान में एमए किया है। आगे कहती हैं.. इस बीमारी के कारण हर माह खून बदलवाना पड़ता है लेकिन हर इंसान को जिंदगी में किसी ना किसी तरह की परीक्षा देनी पड़ती है। ईश्वर ने मेरे लिए ये चुना।
ज्योति को किताबों से प्यार ही नहीं बल्कि तकनीक के क्षेत्र की भी अच्छी जानकार हैं। ज्योति अबतक तीन उपन्यास ड्रीम्स सेक, लेमन गर्ल और यू कम लाइक होप लिख चुकी है। इसके अलावा कई पुरूस्कार भी मिल चुके हैं। ज्योति से हमारी बातचीत उनके तीसरे नॉवेल पर आधारित है जिसे उन्होंने विशेष तौर से पुरूषों की समस्याओं से जोड़कर लिखा है उनका कहना है कि महिलाओं के प्रति अपराध होते है लेकिन सशक्त महिलाएं अपने अधिकारों का दुरूपयोग भी पुरूषों के खिलाफ कर रही है।
सही मायनों में देखा जाए तो पुरूष केवल महिला से ही प्रताड़ित नहीं बल्कि सारी कानूनी व्यवस्थाओं से प्रताड़ित है। जिसका हल या तो न्यायपालिका पुरूषों के लिए सही-नियम कानून बनाएं या फिर महिलाएं अपनी मानसिकता बदले। वरना इस समस्या का हल निकलना बड़ा मुश्किल है। पेश हैं बातचीत के कुछ खास अंश…
सवाल- पुरूषों की समस्याओं पर नॉवेल लिखने का विचार कहां से और क्यों आया?
ज्योति- मेरा दूसरा नॉवेल लेमन गर्ल दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड से प्रेरित था। जिसमें बलात्कार पीड़िता की दुर्दशा और उसके जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव को क्रेन्दित किया गया था। जिसकी प्रशंसा के साथ आलोचना भी बहुत हुई। कई महिला विरोधियों ने मुझसे कहा कि मुझे सिर्फ एक पक्ष नहीं देखना चाहिए। मुझे लगा बात तो सही कह रहे हैं, फिर कुछ रिसर्च की। जिसमें 21 साल से ज्यादा समय तक झूठे केसों में अपना सबकुछ गंवा बैठे पुरूषों की दास्तान सामने आयी। इस नॉवेल को लिखने के बाद मैंने जाना कि मैं कोई विशेषज्ञ तो नहीं हूं, परन्तु इतना जरूर है की समस्या बड़ी तेजी से फैल रही है और उतनी ही दुखदायी है जितना महिलाओं पर अत्याचार l हमारे देश में जहां एक ओर महिला सशक्तिकरण के मुद्दे भुनाए जाते हैं, वहीं शादी होने के बाद वही नारी अबला से सबला का रूप धारण कर लेती है। इस दौरान विषय पर लिखना आसान रहा लेकिन पुरूषों के दर्द की कल्पना करना काफी मुश्किल भरा रहा।
सवाल- आपने महिला होकर पुरूषों के हक की बात की परेशानी तो जरूर हुई होगी?
ज्योति- हां परेशानियां तो इंसान का गहना है कब आएगी कब जाएगी कुछ कह नहीं सकते। अगर बात सिर्फ नॉवेल लिखने की करूं तो मुझे इसके बारें बहुत सोचना पड़ा। मेरी शादीशुदा बहनें है उनका अपना एक परिवार है। मेरी लेखनी का उनके जीवन पर प्रभाव ना पड़े इसका मैंने विशेष ध्यान रखा। इसके बावजूद भी एक लेखक को ये ही लगता है कि कुछ कमी रह गई ये बात आप समझ सकती है। जब आप कोई स्टोरी करती है तो कई ख्याल एक साथ आते और उनमें से एक होता खुद की सुरक्षा का। वैसा ही हाल मेरा रहा इस विषय को लेकर।
सवाल- समाज और कानून दोनों जगह महिलाओं से ज्यादा पुरूषों को प्रताड़ित होना पड़ा है, ऐसा क्यों?
ज्योति- समाज हम है और हमारे आस-पास के लोगों की सोच है कि पुरूषों को कोई तकलीफ नहीं होती। शायद यही कारण है कि आत्महत्या और तनावग्रस्त होने के मामले में पुरूष सबसे आगे हैं क्योंकि उनकी कोई सुनवाई नहीं। मैं मानती हूं कि महिलाओं और बच्चियों के साथ रोज अपराध हो रहे हैं लेकिन उनके पास अपनी लड़ाई लड़ने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध है। पुरूष के पास क्या? अगर किसी महिला ने फर्जी केस बना दिया तो उसके पास तो कोर्ट और थाने के चक्कर मारने के अलावा कुछ बचेगा ही नहीं। इस समस्या का समाधान न्यायपालिका ही निकाल सकती है।
सवाल- पुरूष आयोग की मांग तेज है आपका इस पर विचार?
ज्योति- पुरूष-महिला जब दोनों हमारे समाज का अहम हिस्सा है तो ऐसा बिल्कुल होना चाहिए। (हंसते हुए) सबकुछ महिलाओं के अनुसार हो ये जरूरी नहीं, हमारी वर्तमान सरकार को इस विषय पर जरूर सोचना चाहिए ताकि पीड़ित पुरूषों को गलत के खिलाफ लड़ने की हिम्मत तो मिले। कब तक सड़कों पर खड़ा रहकर न्याय की भीख मांगेगा। दोनों समान है तो समान अधिकार होने चाहिए।
सवाल- महिलाओं को ज्यादा सशक्त बनाने के पीछे मनोरंजन की दुनिया का कितना हाथ है?
ज्योति- (हंसते हुए) सवाल काफी दिलचस्प है, लेकिन सच बताऊं मेरे पास टीवी देखने का समय नहीं है तो शायद जितनी जिज्ञासा से आपने ये सवाल पूछा है उस हिसाब का जवाब आपको नहीं मिल पाए लेकिन हां मनोरंजन रोजमर्रा का हिस्सा है, सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक प्रभाव जरूर छोड़ता है।
सवाल- आपने मनोविज्ञान पढ़ा है, इससे लेखन में कितनी मदद मिलती है?
ज्योति- आपने सही सवाल पूछा, मेरे तीनों नॉवेल अलग-अलग विषय पर है। कुछ भी लिखने से पहले हर पहलू को समझना जरूरी होता है। मैं ज्यादा सामाजिक मुद्दों पर लिखती आयी हूं इसमें कई तरह के चीजें ऐसी आती है जहां मानसिक स्थिति समझने की जरूरत पड़ती है वहां मेरा अध्ययन मेरे काम आता है।
सवाल- धारा 377 के बारें क्या सोचती हैं?
ज्योति- कम शब्दों में कहूं तो जियो और जीने दो बस, हमारी ही सोसाइटी का हिस्सा है। हमसे थोड़ा अलग है तो क्या हुआ कोई अपराध तो नहीं। बस उनके लिए भी अधिकार होने चाहिए ताकि भविष्य में कोई समस्या हो तो कानून उनकी मदद करें।
सवाल- मर्द को दर्द नहीं होता ये बीमारी या सोच?
ज्योति- एकदम बकवास है, क्यों दर्द नहीं होता। आपको चोट लगती है तो आप रो सकती है उन्हें चोट लगे तो चुप रहो लड़के रोते नहीं। इसे सोच और बीमारी दोनों ही कहा जा सकता है। सच कहूं मैं ऐसी चीजों को सोचने में वक्त बर्बाद ही नहीं करती।
सवाल- पुरूषों के स्वभाव में दोहरी भूमिका को आप किस तरह देखती है?
ज्योति- पुरूष ही नहीं सभी दोहरी भूमिका में जीते हैं, लेकिन यहां आपका जो सवाल है उसका सबसे बड़ा कारण पारिवारिक क्लेश। इसलिए अक्सर पुरूष घर में चुप रहना ज्यादा पसंद करते हैं। पुरूष अपना तनाव कभी दिखाते नहीं है लेकिन वह तनावग्रस्त होते हैं और उनका ये ही तनाव उन्हें धीरे-धीरे हिंसक बनाता है। जो आज नहीं तो कल उनसे अपराध करवा डालता है।
सवाल- मतलब मान लिया जाए कि पुरूषों को अपराध की तरफ धकेलने वाली महिला ही है?
ज्योति- ये सवाल बड़ा पेचीदा है, इसका जवाब मेरे लिए काफी मुश्किल है। जैसे सिक्के के दो पहलू है वैसे ही जुर्म के भी पहलू है। इसका फैसला आप मैं मिलकर नहीं कर सकते। इसे न्यायपालिका पर ही छोड़ दीजिए।
सवाल- अंतिम सवाल, आपका अबतक का सफर प्रेरणा है, यंग जनरेशन को कोई खास संदेश देना चाहती हैं?
ज्योति- शुक्रिया, इस बारें में सबसे पहले कहूंगी कि आज के लेखक अपनी किताबों को बेचने के लिए कई कंट्रोवर्सी चीजें करते हैं जो गलत है। इससे केवल उनकी छवि खराब नहीं होती बाकी लेखकों की छवि पर भी असर पड़ता है। मेरा मानना है लिखना आसान कला है लेकिन आपका लिखा लोगों के लिए कितना बदलाव का कारण बनता है ये बात हर लेखक को समझनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर समझे तो कुछ यूं है कि आजकल लोगों को प्यार होता और लोग अपनी कहानी लिख डालते है, इससे आपको पहचान तो मिलेगी लेकिन फायदा क्या हो रहा है, ये सोचने वाली बात है। ऐसा लिखें जो लोगों के काम आए बस। रही बात मेरी तो मुझे इस बीमारी से पहचान नहीं चाहिए थी मुझे खुद की पहचान चाहिए थी। जिसके लिए निरन्तर प्रयास किया और आगे भी जारी रहेगा। बस जैसा मेरा नाम है वैसा ही कुछ-कुछ काम करते रहना चाहती हूं।
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