भारतीय इतिहास के चर्चित मुकदमों में राजनारायण बनाम उत्तरप्रदेश का नाम आता ही आता हैं । जानकारों की माने तो यह चर्चित मुकदमा ही आपातकाल की जड़ था क्योंकि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इस मुकदमे पर अपने निर्णय में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली का दोषी मानते हुए उनके रायबरेली से सांसद के रूप में चुनाव को अवैध करार दिया था और साथ ही अगले छः साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी। इस फैसले से इंदिरा गाँधी के पास राज्यसभा जाने का रास्ता भी बंद हो गया तो उनके पास प्रधानमंत्री पद छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। यह वो फैसला था जिसने पिछले एक साल से आंदोलनरत विपक्ष को जड़ी-बूटी दी जिसकी उनको तलाश थी ।
क्या था “राजनारायण बनाम उत्तरप्रदेश” मामला ?
भारत के इतिहास में मार्च 1971 में हुए आम चुनाव भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं इन चुनावों में इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी और उसने उस समय लोकसभा की कुल 518 सीटों में से दो तिहाई से भी ज्यादा (352) सीटें हासिल की थी। इस चुनाव से पहले इंदिरा गांधी की छवि बैंकों के राष्ट्रीयकरण और ‘प्रिवी पर्स’ (राजपरिवारों को मिलने वाले भत्ते) खत्म करने जैसे फैसलों से गरीबों के समर्थक के रूप में बन गई थी। जानकारों की माने तो इंदिरा ने बहुत सोच समझ कर अपनी छवि “गरीबों की मसीहा” के रूप में बनाई थी, इसी सन्दर्भ में अपने सलाहकार और हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्रीकांत वर्मा द्वारा रचे गए नारे “गरीबी हटाओं” के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी । इंदिरा की इस छवि की वजह से देश की जनता को उनसे बहुत उम्मीद थी और इसी उम्मीद की वजह से कांग्रेस जबरदस्त बहुमत के साथ चुनाव जीत कर फिर से सत्ता में आई ।
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इस चुनाव में इंदिरा गाँधी ने अपनी पुरानी सीट रायबरेली से अपने निकटतम प्रतिद्वंदी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण को एक लाख से ज्यादा वोटों से हराकर विजयी हुई थी । हालांकि राजनारायण के इंदिरा के साथ नीतिगत मतभेद रहे है और इससे पहले भी उन्होंने इंदिरा के खिलाफ कई बार चुनाव लड़ा और हारे थे परन्तु 1971 की हार के बाद उन्होंने इंदिरा की इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी कि और इंदिरा गाँधी पर आरोप लगाया कि उन्होंने चुनाव में भ्रष्टाचार और सरकारी मशीनरी और संसाधनों के दुरुपयोग किया हैं ।राजनारायण की तरफ से उनके वकील शान्तिभूषण थे जिन्होंने सुनवाई के तहत यह दलील दी थी कि इंदिरा ने अपने चुनाव प्रचार के लिए सरकारी कर्मचारियों का उपयोग किया था और उदाहरण में उन्होंने प्रधानमंत्री के सचिव यशपाल कपूर का उदाहरण दिया जिन्होंने राष्ट्रपति से अपना इस्तीफा मंजूर होने से पहले ही इंदिरा गांधी के लिए काम करना शुरू कर दिया था । यह ही वो मुख्य दलील थी जिसकी वजह से इंदिरा गांधी यह मुकदमा हार गयी थी और उनकी सांसद सदस्यता अवैध घोषित कर दी गयी थी लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त कर दिया था ।
आपातकाल लगने में इस की निर्णायक भूमिका
इस फैसले में जस्टिस सिन्हा ने कांग्रेस को नई व्यवस्था बनाकर लागू करने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया था । इस फैसले के बाद कांग्रेस में नई व्यवस्था को लेकर बहुत माथापच्ची हुई लेकिन कांग्रेस में इस समय कोई ऐसा नेता नही था जो प्रधानमंत्री पद को संभाल सके । हालांकि तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ जिन्होंने “इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया” नारा दिया था उनके नाम को लेकर चर्चा चल रही थी तभी संजयगांधी वहां आये और उन्होंने इंदिरा को इस्तीफा ना देने के लिए ढेर सारे तर्क दिए जिसके फलस्वरूप इंदिरा ने इस फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देने का फैसला किया और इस सम्बन्ध में 23 जून को इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए दरख्वास्त की कि हाईकोर्ट के फैसले पर पूर्णत: रोक लगाई जाए ।
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अगले दिन सुप्रीम कोर्ट की ग्रीष्मकालीन अवकाश पीठ के जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने इस पर सुनवाई करते हुए अपने फैसले में कहा कि वे इस फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी । साथ ही कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं एवं बतौर सांसद वेतन और भत्ते लेने पर भी रोक बरकरार रखी । जानकारों की माने तो 12 जून से 24 जून को जो हुआ उसका ही परिणाम 25 जून की देर रात में आपातकाल था, जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन तो एक बहाना मात्र था।
जेपी आन्दोलन की भूमिका
एक तरफ इंदिरा इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपनी सांसद सदस्यता को वैध ठहराने के लिए प्रयासरत थी तो दूसरी तरफ गुजरात और बिहार का छात्र आन्दोलन के बाद जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष का कांग्रेस के खिलाफ विरोध भी अपने पूर्ण योवन पर था । विपक्ष की मांग थी कि बिहार की कांग्रेस सरकार इस्तीफा दे दे और साथ ही केंद्र सरकार के खिलाफ भी उनके तेवर हमलावर थे।
इस समय कोर्ट के इस फैसले ने इस फैसले ने आग में घी का काम किया और विपक्ष को और आक्रामक कर दिया । सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की रैली थी जिसमे जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए इस्तीफे की मांग की। उस रैली में जेपी द्वारा रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का बोला गया अंश अपने आप में नारा बन गया है। यह नारा था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । जेपी ने कहा कि अब समय आ गया है कि देश की सेना और पुलिस से आह्वान किया कि वे सरकार के उन आदेशों की अवहेलना करें जो उनकी आत्मा को कबूल न हों अर्तार्थ अनैतिक हो, उन्होंने कहा कि वे अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करे ।
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जेपी के बयान को बहाना बना आंतरिक अशांति के नाम आपातकाल
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी की स्थिति नाजुक हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही उन्हें पद पर बने रहने की इजाजत दे दी थी लेकिन समूचा विपक्ष अब सड़कों पर उतर चुका था । आलोचकों की माने तो इंदिरा गांधी किसी भी तरह सत्ता में बने रहना चाहती थीं और उन्हें अपनी पार्टी में किसी पर भरोसा नहीं था । ऐसे हालात में उन्होंने आपातकाल लागू करने का फैसला किया और इसके लिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण के बयान का बहाना लिया । 26 जून, 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा,‘आपातकाल जरूरी हो गया था। एक ‘जना’ सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है, इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला जरूरी हो गया था ।“
मुक़दमे का फैसला अगर खिलाफ नहीं होता तो आपातकाल नहीं लगता
इस सम्बन्ध में भारत के इतिहास और राजनीति के लगभग सभी विद्वान एकमत हैं कि इंदिरा गांधी के खिलाफ आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले ने देश का राजनीतिक इतिहास निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाई। इस फैसले की वजह से परिस्थतियां ऐसी बन गयी थी कि इंदिरा के सामने अपनी छवि और नाम को बचाने के लिए रास्ता नजर नहीं आ रहा था। कुछ विद्वानों का तो यहां तक मानना हैं कि यदि यह फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ नहीं जाता तो देश में आपातकाल लगाने की नोबत नहीं आती।
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