क्यों मज़हब में दफन कर दी जाती है बेटियों की चीखें

0
981

दिसम्बर का वो मनहूस महीना था जब दिल्ली में निर्भया को दरिंदो ने नोचा था, एक इंसाफ की चिंगारी ने वही से जन्म लिया ओर देखते ही देखते वो शोला बन गयी। ज़ेहन उन सवालों के जवाब टटोल रहा था , जो एक पहेली बने हुए थे। कैंडिल मार्च, दुख व्यक्त,ओर सांत्वना सभी कुछ देखा जा रहा था लेकिन इन सभी के बीच एक वो सवाल था वो हुक्मरानों के आंखों में आंखे डाल कर पूछ रहा था कि बहन बेटियां कितनी सुरक्षित है? 2012 में हुई इस दरिंदगी के गुनहगारों को सज़ा तो ज़रूर मिली लेकिन वो सवाल ज़रा भी टस से मस नहीं हुआ। 2018 में भी सवाल बरक़रार है। टीवी रेडियो और इंटरनेट पर हम नजाने कितनी बार विज्ञापन देखते है कि भ्रूण हत्या को रोको, बेटी पढ़ाओ,बेटी बचाओ लेकिन ये सब ज़मीनी तौर पर झूठा से लगता है । क्योंकि बच्चियों के मामले में देश जाग ज़रूर रहा है लेकिन उससे कही ज़्यादा बेटियों को बचाना मुश्किल हो रहा है। घर से निकले तो आफत न निकले तो आफ़त, जीन्स, कुर्ता, सलवार, स्कर्ट यह तक कि बुर्क़ा पहनकर भी आज बहन बेटी सुरक्षित नही लगती। इंसानियत की टूटती साँसों को देखकर हैवानियत का असली चेहरा कहीं न कहीं दिखाई दे ही जाता है। जहां तक मैं समझ पा रहा हूँ अब तो भगवान के साथ साथ इंसानियत भी बंट गयी है।

क्योंकि अब मुजरिम को उसके गुनाह से नही उसके मज़हब से पहचानने की रिवायत चल पड़ी है। देश का मान तिरंगा पहले लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए उठाया जाता था लेकिन अब शायद बचाने के लिए भी उठ रहा है। कठुआ में पिछले दिनों जो कुछ देखने को मिला उससे रूह तक कांप गयी, महज़ 8 साल की इस बच्ची को दरिंदों ने बेरहमी के साथ बलात्कार करके मौत के घाट उतार दिया। अब इसे वहीं वाकया कहूं, दरिंदगी कहूं, या फिर वक़्त का वही सितम जो 2012 में निर्भया के साथ जो हुआ था। वक़्त ने एक बार फिर एक मासूम को सिसकने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन इस बार मामला भी बदल गया था जहां धर्म ने कभी अपनी मौजूदगी दर्ज नही करवाई थी वहां इस बार अल्लाह और भगवान को फिर से बांट दिया गया। बलात्कार किसके साथ हुआ लोग ये भूलने लगे पता नही कौन से मंदिर या मस्जिद से वो हवा आयी जिसने पीड़ित बच्ची को मज़हब के मुताबिक  बांट दिया। अब लोगों का नज़रिया ज़ुल्म को देखने के लिए बदल रहा था, लोग अब ये देख रहे थे जिसके बलात्कार हुआ वो अंजली है या अंजुम है। क्या फर्क पड़ता है कि वो कौन है ज़ुल्म अगर हुआ है, अज़मत अगर लूटी गई है तो गुनाहगार को फांसी के अलावा कुछ और मिलना ही नही चाहिए। एक अहम बात और यहां दिखाई देती है की सोच छोटी है हैवानों की, नियत उनकी खराब है,ज़ुल्म वो कर रहे है इन सबके बावजूद उन बच्चियों का क्या कुसूर है जिन्होंने अभी दुनिया का एक भी रंग नही देखा है, जिनको मालूम ही नहीं है कि आखिर बलात्कार होता क्या है। उनके नन्हे पैर बस अभी घर पर बाबा की गोद ओर स्कूल में टीचर की सरपरस्ती में ही चल रहे है। उनकी मीठी बोली कानों को सुकून देती है लेकिन माहौल कुछ पल में ही बदल जाता है अब  उनकी वो मीठी बोली चीखों में बदल जाती है वो आवाज़ अब डराती है । वो सवाल करती है कि मेरा क्या कसूर था? बाबा मैं तो अभी ठीक से इस पापी समाज को समझ भी नही पायी थी फिर क्यों मुझे दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बनाया? नन्ही से बच्ची के सवालों का जवाब ना तो मेरे पास है और नाही शायद आपके पास होगा। इस सवाल का जवाब  ढूंढने के लिए शायद एक जन्म भी कम पड़ जाए, क्योंकि देश की राजनीति ऐसे मोड़ पर आकर खड़ी हो गयी है कि अपने सियासी फायदे के लिए सबकुछ दाव पर लगा दिया जाता है। बेटी की इज़्ज़त को इस सियासत ने चौराहे पर लाकर नीलाम कर दिया। इतनी दरिंदगी तो हवस के भरे भेड़िये भी नही करते जितनी सियासत के सरताज करते है।

बलात्कारियों जितने दोषी नेता
हर पार्टी हर नेता बार बार उस बच्ची की इज़्ज़त को किसी ना किसी मंच पर खड़े होकर तार तार करते है। कभी बहन बेटी को मज़हब में बांटा जाता है कभी ज़ात में तो कभी नीची उची बिरादरी का खेल उसके साथ खेला जाता है। अज़मत की लुटेरे को कोई बेगुनाह बताता है कोई गुनाहगार, कैंडिल मार्च निकाले जाते है, प्रदर्शन किया जाता है, सड़कों पर निकलते है लेकिन राजनीति इन सबको भी सिर्फ और सिर्फ अपने वोटबैंक के लिए इस्तेमाल करती है। बार-बार नए क़ानून बनाने की बात की जाती है, तसल्ली दी जाती, बड़ी-बड़ी बातें होती है, लेकिन ज़मीनी तौर पर कुछ भी नही होता। सविंधान में बदलाव की बात बार-बार आती है लेकिन कोई सोच को बदलने की लिए क़ानून नही बनाता क्योंकि सोच का कानून बन ही नही सकता, दिमाग में हैवानियत भरे बैठे लोगों पर क़ानून का भी क्या डर होगा, उन्हें पुलिस अदालत का क्या खौफ कुछ नहीं इसलिए शायद छोटे-छोटे क़ानून बनाने से काम ही नही चलता। कठुआ की आसिफा, उन्नाव की गुड़िया, ओर गाज़ियाबाद में जो कुछ देखने को मिला उससे  इंसानियत शर्मसार हुई है, दिल्ली में महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल के अनशन ने भी सरकार की नींद हराम कर दी, स्वाति को जबरदस्त जन सहयोग मिला, उससे हुक्मरानों की परेशानी और बढ़ गयी। जिस राजनीतिक पार्टी ने बलात्कार को लेकर पिछली सरकार की नींव हिला दी थी आज वो ही सरकार इसको रोकने में नाकाम नज़र आई है। शायद इसी आनन फानन में सरकार ने एक नया कानून बनाया 12 साल से कम उम्र की बच्ची  का अगर रेप होता है तो उसको दरिंदे को फांसी के सज़ा दी जाएगी। कानून अच्छा बनाया , शायद इस कानून से कुछ हद तक बलात्कार में कमी भी आये लेकिन अहम सवाल ये है कि 12 साल की बच्ची के साथ भगवान ना करे अगर दुष्कर्म होता है तो उसके दोषी को फांसी पे लटका दिया जाएगा लेकिन 12 से ज़्यादा उम्र की बच्ची के गुनाहगार का क्या होगा वही जो अबतक होता आया है। गिरफ्तारी होगी, प्रदर्शन होंगे, अदालत लगेगी मुक़दमा चलेगा ओर फिर वहीं उसकी इज़्ज़त को बार बार इंसाफ के नाम पर तार तार किया जाएगा, बार बार उनकी अज़मत लूटी या नही इसके गवाह ओर सुबूत ढूंढे जाएंगे। एक बार फिर वहीं खेल होगा जो हो रहा है धर्म का सहारा लिया जाएगा, मैं सरकार की आलोचना नहीं कर रहा लेकिन इस क़ानून का मेरी नज़र में कोई फायदा नही होने वाला है क्योंकि दरिंदगी कोई भी करे, उम्र कुछ भी हो धर्म कोई भी हो हवस का भेड़िये की सज़ा बस एक ही होनी चाहिए बस फांसी। क्योंकि बलात्कार का नाम शायद सुनने में छोटा लगे लेकिन ये सबसे बड़ा जुर्म है पूरे परिवार को इसका दुख झेलना पड़ता है, बड़े लाड प्यार से पाली गयी अपनी बच्ची को मारते हुए देखने, सिसकते हुए देखना,ओर उसकी इज़्ज़त के लुटेरों को ज़िंदा देखने से बड़ा गम शायद कुछ भी नही हो सकता। क़ानून बनाना मक़सद नही होना चाहिए बल्कि उसको अमल में लाना ज़रुरी है

Final Issue for Printing_May 2018-26

सड़के छोड़, सोशल मीडिया बना जंग का मैदान
खोखली दलीलों और झूठे दिलासों से कुछ नही होने वाला क्योंकि आजकल सोशल मीडिया का रोल इतना बढ़ गया है कि झूठ और सच के लिए , अफवाहों को हवा देने के लिए, माहौल को खराब करने के लिए वो ही काफी है। फेसबुक , ट्विटर, इंस्टाग्राम, और न जाने क्या क्या ऐसा चल पड़ा है जिसने समाज को खराब को खराब कर दिया। अल्लाह तेरा भगवान मेरा वाहेगुरु उसका और जीसस इसका ये बहस लगतार चलती रहती है। उससे भी ज़्यादा फ़र्क़ पड़ा है इंसाफ की जंग में, कठुआ में बलात्कार हुआ तो उसे मुस्लिम बोलकर सोशल मीडिया बंट गया, गाज़ियाबाद में हुआ तो हिन्दू बोलकर फिर से बांटा गया। समझ नही आता कि बेटी हिन्दू की थी या मुस्लिम की क्या वो देश की बेटी नही थी, क्या उसके मा बाप नहीं थे लेकिन इससे फ़र्क़ नही पड़ता बस जिसने फेवर की उसने डीपी बदली जिसने गुनाहगारों का साथ दिया उसने रेप न होने की दलील दे डाली, किसी ने साज़िश कहा किसी ने ज़ुल्म कहा ,किसी ने बच्ची को गाली दी तो किसी ने अपनी बहन कहा, समझने वाली बात ये है कि आज हमारी संस्कृति को कितना बदल दिया है इस सोशल मीडिया की दुनिया ने की आज हम बहस इसलिए करते है कि बलात्कार का शिकार होने वाली बच्ची हिन्दू है या मुसलमान, उसकी जाति क्या थी, उसके बॉयफ्रेंड कितने थे, उसकी माँ की लव मेरिज हुई या अर्रेंज, उसका पिता क्या करता है, उस लड़की के कितने लड़के दोस्त थे, नालत है ऐसी सोच पर , धिक्कार है ऐसे इंसानियत पर जो अपना धर्म भूल कर ऐसी बहस में शिरकत करती है। मोमबत्तियां जलाने  लोगों को जज किया जाता है, गलत को गलत कहने वालों का जज किया जाता है , मंदिर मस्जिद को बदनाम करने की साज़िश इस सोशल मीडिया के ज़रिए अंजाम दीया जा रहा है । और तो ओर फेक न्यूज़ का माहौल ऐसा बनाया जाता है कि नफरत के कांटे ना चाहते हुए भी खिल जाते है। कठुआ में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला जब ये कहा गया कि रेप हुआ ही नही है जबकि क्राइमब्रांच की रिपोर्ट ने सबकुछ साफ कर दिया। एक न्यूज़ किसी ने डाली और वो आग की तरह फैल गयी उसने ऐसा रूप ले लिया बार बार उस बच्ची का अल्फ़ाज़ों के ज़रिए बलात्कार किया गया, बार बार उसकी इज़्ज़त को नीलाम किया गया, लेकिन किसी को कोई फर्क नही पड़ा बस लाइक कॉमेंट शेयर करने की दौड़ लगी रहती है किसी को फ़र्क़ नही पड़ता कि  इसका उस बच्ची ओर उसके परिवार पर क्या फर्क पड़ेगा। फेक न्यूज़ को ग्रुप में शेयर करना भी क्या खूबी के साथ किया जाता है हर घर घर हर मोबाइल में ऐसी न्यूज़ शोलों का काम करती है । सोशल मीडिया को इस्तेमाल करने वालों लोगों  में युवाओं की तादात ज़्यादा है इसलिए उनकी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है।

Final Issue for Printing_May 2018-27

 बलात्कार की घटनाओं पर सियासत नहीं
ये वो देश है जिसने 60 सालों के राजतंत्र को चुटकियों में खत्म करके मोदी को देश का बादशाह बना दिया, ये वो ही युवा है जो निर्भया के क़ातिलों को फांसी दिलाने के लिए सड़को पर उतर आए, जिन्होंने धर्म की सीमा को लांघ कर देश को तरजीह ज़्यादा दी है, ये व ही युवा है जिन्होंने बड़ी बड़ी ताक़तों को नेस्तनाबूद कर दिया लेकिन अब ये युवा भी बंटा हुआ नजर आता है, इस राजनीति और सोशल मीडिया ने युवाओं को बदल दिया है, उन्हें सियासत के रंग में घोल दिया है, अब युवा सड़कों पर तांडव करते है तो फासिस्ट ताक़तों के लिए , प्रदर्शन करते है तो बलात्कारियों को बचाने के लिए, हालांकि ये वो युवा है जो भटके हुए है, इनमे एक तबका भी ऐसा जो सच्चाई और इंसाफ  की लड़ाई के लिए हमेशा खड़ा हुआ नजर आता है, युवा शक्ति से देश की तस्वीर को बदल जाए सकता है लेकिन शर्त ये है कि सभी युवाओं के एक होना पड़ेगा जो युवा अलग अलग किश्ती में सवार हो गए है उनको एक ही किश्ती में सवार होने पड़ेगा,उन्हें इंसाफ के लिए एकजुट होकर लड़ाई लड़नी होगी, धर्म से आगे बढ़कर इंसानियत को ज़िंदा करना होगा तब जाकर गुनाहगार को सज़ा ओर बेगुनाह को सुकून मिलेगा। बलात्कार ऐसा घिनौना अपराध है जिसको लेकर सियासत नही होनी चाहिए, बलात्कार के दोषी को सिर्फ और सिर्फ फांसी होनी चाहिए, उसमे हिन्दू मुस्लिम नहीं बल्कि इंसानियत की लड़ाई हो और इंसाफ की लड़ाई के साथ साथ सोच को बदलने की ज़रूरत है।

– मो.आरिफ कुरैशी

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य और व्यक्त किए गए विचार पञ्चदूत के नहीं हैं, तथा पञ्चदूत उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है। अगर आप भी अपने लेख वेबसाइट या मैग्जीन में प्रकाशित करवाना चाहते हैं तो हमें [email protected] ईमेल करें।