कोई नहीं सोचता, आखिर क्यों हो रहा है सरकारी स्कूलों से मोहभंग ?

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सरकारी विद्यालयों खासतौर पर प्राथमिक विद्यालयों में लड़कियों का नामांकन लड़कों की अपेक्षा अधिक है। बहुत सारे ऐसे विद्यालय मिल जायेंगे जहाँ लड़कियों की संख्या वहां पढ़ने वाले लड़कों की तुलना में अधिक है, परन्तु दर्द यह है कि यहाँ कुल विद्यार्थियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। आलम यह है कि जिस किसी की भी आर्थिक स्थिति थोड़ी ठीक-ठाक है, वो अपने बच्चों का दाखिला एक निजी व अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय में करा रहा है।

ऐसा भी हो रहा है कि लड़के को प्राइवेट और लड़की को सरकारी विद्यालयों में पढ़ा रहा है । इस तरह की ख़बर देश के हर राज्य से सुनने में आ रही है। बड़ा सच यह है कि प्राथमिक विद्यालयों में सिर्फ पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोग ही अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं। यह सब देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि सरकारी प्राथमिक विद्यालय गरीबों के विद्यालय बनकर रह गये हैं।

आखिर क्यों हो रहा है मोह भंग ?
एक आकलन रिपोर्ट के अनुसार, प्राथमिक विद्यालयों के लिए चलाई जा रही अनेक महत्वाकांक्षी योजनाओं के बावजूद, देश के प्राथमिक विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या में पिछले एक साल में ही करीब 23 लाख बच्चों की कमी आई है, जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश के विद्यालयों से करीब 7 लाख बच्चे घट गए हैं।  इतनी बड़ी तादाद में बच्चों का सरकारी प्राथमिक स्कूल से कम होना सवाल खड़ा करता है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?  प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों की कम होती संख्या के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं

शिक्षा का गिरता स्तर
इन कारणों के विश्लेषण में सबसे पहले और महत्वपूर्ण है शिक्षा का गिरता स्तर। आम तौर पर सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में कोर्स पूरा करने के नाम पर खानापूर्ति होती है और बच्चों को बेसिक जानकारियां भी नहीं मिल पाती है, हालांकि इसके कारण बहुत से हैं । कुछ समय पहले विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में कक्षा पांच में पढऩे वाले छात्रों को सामान्य माप-तौल, दो अंकों का जोड़-घटाना, अपनी बातों को वाक्य में लिखकर समझाना या शुद्ध वाक्य लिखना, सौ तक की गिनती और सम्पूर्ण वर्णमाला तक नहीं आती है। यह स्थिति बहुत ही अधिक चिंताजनक है। विश्व बैंक कि रिपोर्ट से ये बात तो साफ है कि प्राथमिक विद्यालय में जो स्थिति है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। असर भी हर वर्ष शिक्षा की इस भयावहता को दिखाते हुए कुछ इस तरह की रिपोर्ट हर वर्ष प्रस्तुत करती है जिसमें निकल कर यही सामने आता है कि परिस्थतियाँ ख़राब नहीं दयनीय है।

एक समय था जब सरकारी विद्यालय के छात्र डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस से लेकर बड़ी-बड़ी नौकरियों में चयनित होते थे, मगर आज सरकारी प्राथमिक स्कूलों की पढ़ाई का हाल और घटती संख्या को देखकर तो भय लग रहा है कि सरकारी विद्यालय में पढने वाले छात्र किसी प्रतियोगी परीक्षा का हिस्सा बन पायेंगे भी या नहीं।
Final Issue for Printing_May 2018-03

शिक्षकों की कमी
इस हालात के लिए शिक्षकों की कमी भी एक महत्वपूर्ण कारण है। आज के दौर में देश के अधिकतर राज्यों में हजारों की संख्या में प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं जिनको सरकार भरने का प्रयास नहीं करती या सरकारी प्रयास अदालतों के चक्कर लगाते – लगाते ही ख़त्म हो जाते हैं। देश में लगभग 13.62 लाख प्राथमिक विद्यालय हैं परन्तु इसमें कुल 41 लाख शिक्षक ही नियुक्त हैं जबकि देश में लगभग 19.88 करोड़ बच्चे प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। साथ ही पूरे देश में करीब 1.5 लाख विद्यालयों में 12 लाख से भी ज्यादा पद खाली पड़े हैं। इस कारण करीब 1 करोड़ से ज्यादा बच्चे विद्यालयों से बाहर हैं। जब विद्यालयों में शिक्षक ही नही होंगे तो बच्चों को पढ़ाएगा कौन? वास्तव में यह सोचने योग्य बात है कि जब शिक्षक की उपलब्धता नहीं होगी तो फिर अभिभावक अपने बच्चे वहां पर किसके भरोसे छोड़ेंगे? आजकल के युग में एकलव्य तो मिलते नहीं न जो गुरु की अनुपस्थिति में गुरु प्रतिमा से ही शिक्षा प्राप्त कर ले।

सरकारी शिक्षकों पर सरकारी बोझ
सरकार द्वारा प्राथमिक विद्यालय के अध्यापकों से तरह-तरह के गैर-शैक्षिणिक कार्य जनगणना, वोटर लिस्ट का काम, चुनाव में ड्यूटी, मिड-डे मिल, पल्स पोलियो,पुस्तक बांटना, छात्रवृत्ति के लिए छात्रों का खाता खुलवाना एवं आधार कार्ड बनवाने जैसे अनेकों कार्य करवाए जा रहे है। इस तरह के सारे कार्य प्राथमिक विद्यालय के अध्यापकों के सहारे चल रहे हैं। जिससे अध्यापक विद्यालय में अध्यापन कार्य करने से ज्यादा गैर-शैक्षिणिक कार्यों में ही व्यस्त रहते हैं। जब किसी भी सरकारी कर्मचारी से इस मुद्दे पर बातचीत करते है तो उनका दर्द इस काम के नाम पर झलक जाता है और सच में देश का भाग्य विधाता कभी किचन के सामान की लिस्ट में तो कभी मुख्यालय को भेजी जाने वाली डाक में खो जाता है कि उसको उसकी वास्तविक ड्यूटी के लिए समय ही नहीं निकाल पाता है ।

शिक्षा-रोजगार का अंतिम अवसर
आज के दौर में हर क्षेत्र के लोग प्राथमिक विद्यालय में अध्यापन करने की ओऱ रुख कर रहे है जिससे अध्यापन में उनकी रूचि न होने के बावजूद सिर्फ रोजगार के लिए या कही और रोजगार न मिलने के कारण वे इस क्षेत्र का चुनाव कर रहे हैं। आमतौर पर आजकल युवा प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए इसको एक मंच बना लिया है कि नौकरी में रह कर तैयारी करेंगे, जिसके कारण शिक्षण कार्य में वे अपना पूर्ण योगदान नहीं दे पा रहे हैं और वह शायद देना भी नहीं चाहते हैं क्योंकि हमने अपने आस-पास  देखा है कि ऐसे सरकारी अध्यापकों को जो अपने से सम्बन्धित हर विषय पर चर्चा करते हैं, परन्तु कभी भी उन्हें छात्रों की पढ़ाई, शिक्षा स्तर को कैसे बेहतर बनाया जाये और स्कूल में खेल एवं अन्य शारीरिक गतिविधियों पर कैसे ध्यान दिया जाये इन विषयों पर चर्चा करते या फिर छात्रों के भविष्य को लेकर चिंतित नहीं देखा। हालांकि ये उनको कौन बताये कि अगर इस तरह ही शिक्षा का स्तर गिरता गया तो नामांकन गिरेगा और छात्र – शिक्षक अनुपात के हिसाब से अध्यापकों की संख्या में कमी आएगी ।
Final Issue for Printing_May 2018-04

भ्रामक प्रचार
इसको शिक्षा जगत की दुविधा कहा जाये या देश का दुर्भाग्य कि सरकारी विद्यालयों की व्यवस्थाओं और अन्य चीजों के लिए बहुत से गलत प्रचार किये जाते है जैसे कि सरकारी  विद्यालयों में गरीब परिवार के बच्चे मिड-डे मिल खाने आते हैं या सरकारी विद्यालयों के बच्चों पर सरकार नई–नई दवाईयों का प्रयोग कर लेती है। निश्चित रूप से यह प्रचार शिक्षा को बाजार बनाने पर तुली ताकतों के इशारे पर किया जा रहा है, ताकि देश से प्राथमिक विद्यालयों का ढांचा खत्म किया जा सके। साथ ही इस प्रचार में वो अभिभावक भी अनजाने में शामिल हो जाते है जिनका बच्चा वास्तव में प्राइवेट विद्यालय में जाकर कुछ खास नहीं सीखा परन्तु अपने रुतबे के लिए प्राइवेट विद्यालय के प्रयासों को श्रेष्ठ बता देते हैं।

अधिकारीयों और कर्मचारियों का विश्वास
वास्तव में देखें तो हमारे सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों का विश्वास भी नहीं है हमारे सरकारी विद्यालयों पर, यहाँ तक कि वहां पर पढ़ाने वाले अधिकतर शिक्षकों के बच्चे भी किसी अन्य प्राइवेट विद्यालय में पढ़ते है । आपको सरकारी स्कूलों की इस दशा को सुधारने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया था वो तो याद ही होगा कि सरकारी अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और न्यायिक कार्य से जुड़े अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने बच्चे को सरकारी विद्यालय में पढऩे के लिए भेजें। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा स्तर को सुधारने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह आदेश इस दिशा में एक ठोस और बड़ा फैसला था, परन्तु अधिकारियों और सरकार के सांठगांठ से हाईकोर्ट के इस आदेश को न केवल न्यायिक प्रक्रियाओं में उलझा दिया गया, बल्कि इस तरह की याचिका लगाने वाले शिक्षक को तरह-तरह से परेशान कर आखिर में बर्खास्त तक कर दिया गया। अगर ये आदेश लागू हो जाता तो इससे एक तरफ तो प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होता वहीं दूसरी ओर शिक्षा का जो तेजी से निजीकरण हो रहा है, उसमें भी कमी आती। क्योंकि सरकारी अधिकारी और नेताओं के बच्चों के यहां पढऩे से उनका ध्यान प्राथमिक विद्यालयों को अच्छी-अच्छी सुविधा देने पर होता।

उपयुक्त कारणों के अलावा भी बहुत से कारण है जिन्होंने हमारे सरकारी विद्यालयों की कमर तोड़ रखी है और हम इस टूटी हुई कमर के सहारे के लिए ढेरों बैसाखियों के सहित उम्मीद कर रहे है कि एक नया भारत बनायेंगे और दुनिया को रास्ता दिखायेंगे ।

इस दिशा में सरकारी विद्यालयों से जुड़े सभी अधिकारियों, शिक्षकों और सामाजिक संगठनो को अपने-अपने स्तर पर सुधार करने की आवश्यकता है, साथ ही प्राथमिक विद्यालय के छात्रों के माता-पिता को भी इस प्रयास में अपना योगदान देना चाहिए क्योंकि अगर नींव ही कमजोर होगी तो उस पर मकान कैसे बनेगा, अगर बन भी गया तो उसका गिरना तय है।

डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य और व्यक्त किए गए विचार पञ्चदूत के नहीं हैं, तथा पञ्चदूत उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है। अगर आप भी अपने लेख वेबसाइट या मैग्जीन में प्रकाशित करवाना चाहते हैं तो हमें [email protected] ईमेल करें।

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