केरल: भारत के पहले शत-प्रतिशत शिक्षित राज्य केरल का सबसे हिंसाग्रस्त जिला यानी कण्णूर। राजनीतिक हत्याओं के लिए बदनाम। टारगेटेड पॉलिटिकल कीलिंग यानी सत्ता पर कब्जे के आदिम खेल की यहां लंबी परंपरा है। जैसे-जैसे लोकतंत्र की ज़़डें मजबूत होती जा रही हैं, वैसे-वैसे कण्णूर में राजनीतिक हत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।
भाजपा-आरएसएस, कांग्रेस मुस्लिम लीग, जिस भी पार्टी का यहां जरा भी जनाधार है, उसके कार्यकर्ताओं के सिर पर खतरे की घंटी टंगी मानी जा सकती है। इस छोटे से जिले में अब तक 300 से अधिक राजनीतिक हत्याएं हो चुकी हैं। इससे कई गुना ज्यादा जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो चुके हैं। लेकिन मरने वालों में अधिकांश आरएसएस के स्वयंसेवक और भाजपा के कार्यकर्ता हैं। वैसे राजनीतिक हत्याओं के आरोप में घिरी माकपा भी पीड़ित होने का दावा करती है और इसकी आड़ में इन हत्याओं को सही ठहराने की कोशिश भी करती है। हैरानी की बात है कि जो कण्णूर राजनीतिक चर्चा के केंद्र में आता जा रहा है, वहां का आम आदमी इसके बारे में बात करने को तैयार नहीं है।
मुंबई से कोझिकोड के बीच हवाई जहाज में बगल की सीट पर बैठे कण्णूर के एक बड़े न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर के.एम. महबूब से इस संबंध में बात करना चाहा, तो वे इसे आरएसएस और माकपा की राजनीतिक लड़ाई कहकर टाल गए। यही रवैया कोझिकोड हवाई अड्डे से कण्णूर आने के दौरान टैक्सी ड्राइवर का भी था। होटल, चौराहा कहीं भी, कोई भी इस संबंध में खुलकर बात करने को तैयार नहीं है। जैसे सबको डर सता रहा हो, सच बोलते ही अगला नंबर उसका भी हो सकता है और यही डर इन राजनीतिक हत्याओं के मूल में है।
अखबार में छपी हर रिपोर्ट, चैनल पर दिखाई गई हर खबर पर नजर रखी जाती है। कौन क्या बोल रहा है, कौन किसके पक्ष में खड़ा है। यहां तक कि गांव, गलियों और शहर के चौराहों पर हो रही बहस से भी दोस्त और दुश्मन की पहचान कर ली जाती है और उसके बाद धमकियों का दौर शुरू हो जाता है।
पुराना है हिंसा का दौर
यूं तो कण्णूर में राजनीतिक हिंसा का दौर 1969 में शुरू हो गया था, जब आरएसएस के कार्यक्रम पर माकपा के कार्यकर्ताओं ने हमला कर दिया था। लेकिन अगले एक दशक में हुई ऐसी दो-तीन घटनाओं को किसी ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। समस्या ने सिर उठाना तब शुरू किया, जब 1975 में लागू आपातकाल को वामपंथी पार्टियों के समर्थन से उसके कई कार्यकर्ताओं का पार्टी से मोहभंग हुआ वे आरएसएस की शाखाओं में जाने लगे। 1980 के बाद राजनीतिक हिंसा की बढ़ी संख्या इसका ही नतीजा है। 1999 में केंद्र में पहली बार भाजपा गठबंधन की सरकार बनने और पूरे देश में आरएसएस के बढ़ते प्रभाव का असर कण्णूर में भी दिखा और यहां शाखाओं की संख्या तेजी से बढ़ने लगी।
कैडर पर आधारित माकपा के लिए दूसरी कैडर पर आधारित पार्टी का आना बड़ा खतरा था। कण्णूर में अधिकांश राजनीतिक हत्याएं इसके बाद ही हुई हैं। इसके बाद हालत यह हो गई कि माकपा छोड़कर दूसरी पार्टी का दामन थामने वाले को गद्दार करार देकर निशाना बनाया जाने लगा। ताकि बाकी बचे कार्यकर्ताओं में खौफ बना रहे और वे पार्टी छोड़कर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएं।
माकपा पर इन राजनीतिक हत्याओं का आरोप लगने के ठोस कारण भी हैं। माकपा के नेतृत्व वाली एलडीएफ के सत्ता में आने के बाद विरोधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या की घटनाएं तेजी से बढ़ जाती हैं। राज्य सरकार के दबाव में पुलिस मूकदर्शक की भूमिका में आ जाती है, जो अभी चल रहा है। वहीं कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ के सत्ता में आने पर पुलिस ज्यादा सक्रिय होती है, निष्पक्ष जांच भी करती है। जब निष्पक्ष जांच होती है, चाहे वह राज्य पुलिस करे या फिर सीबीआइ, अधिकांश हत्या के पीछे माकपा के नेता और कार्यकर्ता का नाम सामने आता है।
अभी तक हुई हत्याओं की जांच से इसकी पुष्टि होती है। लेकिन अचरज यही है कि किसी भी दल के लिए यह हिंसा मुद्दा नहीं है। कुरेदने के बाद ही उनका घाव हरा होता है और फिर भूल जाते हैं। जैसे केरल में राजनीति करनी है तो इस नियति को स्वीकारना ही होगा!
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